दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Sunday, June 24, 2007

रेडियो मैटनी 3 से 6


दिल्ली में अब दस से ज़्यादा एफएम चैनल्स हैं जो 24x7 प्रसारण करते हैं.मैं इनमें से एक पर रेडियो जॉकी हूं. इसका नाम है एफएम-गोल्ड. इसे आप 106.4 मैगाहर्ट्ज़ पर दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में सुन सकते है. जालंधर में ये आपको एफ़एम 107.2 मैगाहर्ट्ज़ पर सुनाई देता है जबकि हिन्दुस्तान के किसी भी कोने में आप इसे शॉर्टवेव 31 मीटर बैंड पर सुन पाते हैं. ये शॉर्टवेव पर कैसे पहुंचता है इसकी ख़बर प्रसारकों को भी नहीं है. श्रोताओं की चांदी है और टेक्निकल लोग इसका ये लीकेज रोक भी नहीं पा रहे हैं. कहा जाता है कि प्रायवेट चैनेल्स की तकनीकी प्रसारण गुणवत्ता के सामने यह कहीं नहीं ठहरता और यह भी उडती हुई ख़बरें सुनी जाती हैं कि इस चैनेल को सैबोटाज करने के लिये प्रशासनिक मशीनरी प्रायवेट ऑपरेटरों के साथ गहरी सांठगांठ में मुब्तिला है. सुदूर चीन और भारतीय उपमहाद्वीप से मिलनेवाली ईमेल्स और चिट्ठियां बताती हैं कि इस चैनेल की साख़ अच्छी है और वजह ये बताई जाती है कि इसकी पहचान अलग है क्योंकि बाक़ी सारे चैनेल एक जैसा ही संगीत बजाते हैं, एक को दूसरे से अलग कर पाना और पहचानना मुश्किल है. मुनाफ़े-टीआरपी के चक्कर में बेसिरपैर की प्रोग्रामिंग करते हैं. इसके उळट समाचारों और जानकारियों के साथ एक खास दौर का संगीत ही इस चैनेल पर सुनाई देता है. लोग नॉनस्टॉप-नॉनसेंस चैटिंग को एक सीमा तक ही झेलते हैं और वापस पुराने गानों और जानकारियों की दुनिया में लौट आते हैं.
इस परिचयात्मक नोट के लंबा खिंच जाने से मैं अभी तक अपनी बात शुरू नहीं कर पाया हूं जिस बात के लिये मैंने ये पोस्ट लिखने का मन बनाया इसलिए सीधे मुद्दे की बात पर आता हूं.
शनिवार और इतवार दोपहर तीन बजे से छः बजे तक का वक़्त एफएम पर जिस प्रोग्राम के लिये मुक़र्रर है उसका नाम है- 'रेडियो मैटिनी तीन से छः', इस प्रोग्राम में किसी फ़िल्म को लेकर उसके बारे में बात होती है और उस फ़िल्म का साउंडट्रैक बजाते हुए गाने और फ़िल्म की कहानी सुनाई जाती है. भारी संख्या में श्रोता इसमें फोन करके हिस्सा भी लेते हैं. इस प्रोग्राम का आखिरी घंटा पुराने और दुर्लभ गीतों को समर्पित है जिसका ज़िक्र जल्द ही करूंगा. तो रेडियो मटिनी में आम-तौर पर यह विवेच्य फिल्म पुरानी ही होती है. अब तक मैं इसमें प्रमुख रूप से 'अलबेला', 'आग', 'सूरज और चंदा', 'तीसरी क़सम', 'मंडी', 'दिले नादां', 'भूमिका' और 'कथा' फिल्में ले चुका हूं. आज मैने जो फ़िल्म उठाई थी वो थी 'सोने की चिडिया'.

"सोने की चिडिया" में मुझे कभी 'भूमिका' और कभी 'मेघे ढका तारा' की याद आती रही. हालांकि ये दोनों ही फ़िल्में 'सोने की चिडिया' के बाद बनीं हैं.
इसे लिखा और प्रोड्यूस किया है इस्मत चुग़ताई ने, निर्देशक शाहिद लतीफ़ हैं, संगीत ओपी नैयर का है, गीत साहिर लुधियानवी , मजरूह सुल्तानपुरी और कैफी आज़मी ने लिखे हैं. फ़िल्म 1958 में बनी थी. बॉक्स ऑफ़िस पर तब इसकी क्या रिपोर्ट रही,आप बताएंगे तभी हम जान पायेंगे. फ़िल्म में नूतन, तलत महमूद और बलराज साहनी प्रमुख कलाकार हैं. धूमल इसमें बन रही फ़िल्म के टिपिकल प्रोड्यूसर बने हैं जिन्हें बलराज साहनी एक प्रसंग में बेवक़ूफ़ बताते हैं.
गाने जिस क्रम में आते हैं वो इस प्रकार है---
1. बेकस की तबाही के सामान हज़ारों हैं/ आशा भोंसले
2. प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी/ तलत-आशा
3. छुक-4 रेल चले चुन्नू-मुन्नू आयें तो ये खेल चले/ आशा
4. सच बता तू मुझपे फ़िदा/ तलत-आशा
5. रात भर का है मेहमां अंधेरा किसके रोके रुका है सवेरा/ रफी
6. सइयां जब से लडी तोसे अंखियां/ आशा

इन गीतों के अलावा इसमें कैफ़ी आज़मी की मशहूर नज़्म भी है जिसका पार्श्व पाठ बलराज साहनी के लिये खुद कैफ़ी आज़मी ने किया है -

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुट्पाथ पे नींद आयेगी
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड्की इसी दीवार में खुल जायेगी.....

फिल्म में ये नज़्म पूरी रखी गई है, मैं इसके इतने अंश को जारी करते हुए उम्मीद करता हूं कि आगे तो आपको याद ही होगी. फिल्म में एक फिल्म का फ़ायनांसर-प्रोड्यूसर है जिसके सामने एक इंक़लाबी शायर श्रीकांत(बलराज साहनी) फिल्म के डायरेक़्टर की बात रखने के लिये ये नज़्म सुना रहा है. प्रोड्यूसर अपने बाल नोच रहा है और "कोई खिड्की इसी दीवार में खुल जायेगी" सुनने पर अपने कमरे की खिड्की को बडी चिंता के साथ देखता है.



'सोने की चिडिया' लछ्मी या लच्छो (नूतन) के जीवन की दुख भरी दास्तान है. लछ्मी एक युवती है जिसके मां-बाप मर चुके हैं और कोई भी उसे अपनाना नहीं चाहता. दूर की रिश्ते के मामा मामी उसे दूर के रिश्ते की काका-काकी के मत्थे मढ्कर चलते बनते हैं. काका कीमियागर है और सोना बनाने के प्रयोग में दिन-रात जुटा रहता है, आदमी वो दिल का अच्छा है. घर में कलह एक स्थाई भाव है. घर का बडा बेटा अपनी पत्नी के साथ घर छोड कर ससुराल जा बसता है. छोटा शराब और बदकारियों से घिरा क़र्ज़ में डूबता जाता है. जब क़र्ज़ चुकाने में वह अपने को बेबस पाता है तो एक रात लछ्मी को किसी बहाने से घर के बाहर भेजता है. दरअस्ल ये उसकी एक चाल होती है ताकि इस सौदे के एवज़ वह अपने क़र्ज़ से मुक्त हो जाये. जिन ग़ुंडों की सेवा में लछमी भेजी जाती है उनसे बचती-बचाती आखिरकार वो एक थियेटर में शरण पाती है जहां संयोग़ से उसे गीत गाता पडता है.

गाने और अभिनय से उसका चर्चा चारों तरफ चल निकलता है और जल्द ही वो फ़िल्मों में एक कामयाब हीरोइन बन जाती है. घर में अब लछ्मी कमाऊ 'सोने की चिडिया' साबित होती है. उसका निजी जीवन दासों जैसा ही है क्योंकि सारा हिसाब किताब उसका 'भाई' ही रखता है.

थॉडे समय के लिये उस्के जीवन में अमर(तलत महमूद) आता ज़रूर है लेकिन वह भी एक लोभी और मतलबपरस्त किरदार साबित होता है. प्यार में ठुकराई गयी लछ्मी एक मेंटल ट्रॉमा से गुज़रती है. हारकर वह आत्महत्या का फैसला करती है लेकिन "रात भर का है मेहमां अंधेरा किसके रोके रुका है सवेरा" सुनकर प्रेरित होती है और जीवन में वापस आ जाती है क्योंकि ये गीत और कोई नही, लछ्मी का पसंदीदा इंक़लाबी शायर श्रीकांत गा रहा होता है.

लछ्मी पहले अमर के साथ भी शादी करने के बाद बहुत सारे बच्चे पाने की तमन्ना रखती थी और वही इच्छा श्रीकांत के साम्ने भी ज़ाहिर करती है. श्रीकांत स्वाभिमानी और मूल्यों में विश्वास रख्नने वाला आदमी है और वह लछ्मी के कलाकार से सहमत नहीं है. तभी एक दिन उसे फ़िल्मों में काम करने वाले एक्स्ट्राओं के जीवन का भयावह अंधेरा दिखाई देता है. वह इन एक्स्ट्राओं के जीवन में थोडी खुशहाली लाने के लिये एक ऎसा समझौता करता है जिसे समझना मुश्किल है. क्या था वो समझौता? जानने के लिये देखिये सोने की चिडिया.
इस्मत चुग़ताई ने कहानी का ऐसा मार्मिक ताना बाना बुना है कि वह किसी फार्मूले की याद नहीं दिलाता. शाहिद लतीफ ने कुछ चालू डिवाइसेज़ का ऐसा इस्तेमाल किया है जिससे उनमें नयी ताक़त भर गयी है. फिल्म एक्स्ट्राओंवाले सीक्वेंस में तो आप भूल ही जाते हैं कि यह फीचर फिल्म है, यहां ये एक डॉक्युमेंट्री का काम करने लगती है. बलराज साहनी हमेशा की तरह एक अच्छे एक्टर नहीं बल्कि ज़िम्मेदार आदमी दिखाई दिये हैं.

9 comments:

अनामदास said...

इरफ़ान भाई
हम तो 'कैफ़ियत' ऑडियो एलबम में ही कैफ़ी आज़मी की इस नज़्म को सुनते रहे थे, मुझे पता नहीं था कि यह बलराज साहनी पर फ़िल्माई भी गई है. धन्यवाद, आपके पास गुज़रे ज़माने का अनमोल ख़ज़ाना है, बाँटते रहिए, लुटाते रहिए.
धन्यवाद

अभय तिवारी said...

परिचय अच्छा है, फ़िल्म के बारे में जानकारी अच्छी है.. बस मियाँ इतनी उम्मीद अच्छी नहीं.. बताइये जो ऩज़्म न हम ने पढ़ी न सुनी आप उम्मीद पाले हैं कि हमें याद होगी..

अफ़लातून said...

आभार । एक दाईं चाँद पुतली पर लिखल जाँव -'गुलरी के फुलवा ,बलम हाय ,तुम हुई गए' - वाले।

Pratyaksha said...

106.4 तो हम सुनते रहते हैं कभी दफ्तर से समय से छूट जायें ,माने साढे पाँच से छ बजे शायद गज़लों का प्रोग्राम आता है ।
कैफी आज़मी की नज़्म कभी टीवी पर उनपर फिल्माये किसी प्रोग्राम में सुना था ।पढकर फिर याद ताज़ा हुई ।

इरफ़ान said...

अभय भाई, जहां तक मेरा खयाल है, मैने आपको "अभय हिंदू" कहकर कभी भी किसी सार्वजनिक मंच पर संबोधित नही किया. आपके इरादे क्या हैं ये तो मुझे नहीं मालूम लेकिन मुझे घुर्मा के रामअवतार सेठ की याद बरबस ही आजाती है जब-जब मैं आपकी ओर से यह संबोधन सुनता हूं. सेठ रामअवतार अग्रवाल तब कोई साठ साल के हो रहे थे(कृपया इसे सठियाना न पढें)और मुझे दूर से आता देखकर आवाज़ लगाते--आवा हो कटुआ पंडित!
आपने तारीफ़ की इसे स्वीकार करूं तो आपके द्वारा बार-बार उपयोग में लाये जानेवाले सफ़िक्स को भी मान्यता दी गयी माना जायेगा. वैसे इसी वक़्त कुछ और मित्र मेरे इस ऐतराज़ पर ऐतराज़ कर रहे हैं और मैं उनकी इस भावना की इज़्ज़त करता हूं कि वो इस संबोधन को ज़बान और तह्ज़ीब का हिस्सा मानते हैं और अन्यार्थ को मीन-मेख़. लेकिन भाई आप समझ रहे हैं ना! कि यह सिर्फ पुरानी दोस्तियों की बेहिजाबियां ही नहीं है और न ही हिंदी क्षेत्रों के लहजे का कम्युनल हार्मोनियम रंग. यारों को इस बात का भी बडा फ़ख़्र होता है कि उनके दोस्त यासीन ख़ां, मुजाहिद हुसेन, और कल्लन क़ुरेशी है. वक़्त आने पर वो इस बात का हवाला देना ज़रूर याद रखते हैं कि हम लोग सिवइयां खाने जाया करते थे और मोहसिन की अम्मी हमें अपना छोटा बेटा समझती थीं.

इरफ़ान said...

अनामदास भाई और अफलातून भाई! आप जितनी ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर डाल रहे हैं, मैं न तो उसके क़ाबिल हूं और न ही ऐसा कोई भ्रम मुझे है.
हां ये ज़रूर है कि मैं कुछ साउंड ज़रूर आपके लिये पेश करना चाहता हूं जिससे आपकी यहां तक की यात्रा ज़रूर ही क़ाबिल-ए-ज़िक्र बन जायेगी. बस मुझे उस तरकीब को समझना है जिससे देवाशीश और उनके साथी पॉडभारती चलाते हैं. अगर आप में से कोई मेरी इस मामले में मदद करे तो आभारी होऊंगा.

इरफ़ान said...

प्रत्यक्षाजी, आपने ठीक ही याद किया कि शाम को एफ़एम गोल्ड पर ग़ज़लों का प्रोग्राम होता है.अंदाज़-ए-बयां नाम का ये शो रोज़ाना सुनाई देनेवाले लगभग ढाई सौ घंटों के एफएम प्रसारणों में अकेला ग़ज़लों का लगभग एक घंटे का प्रोग्राम है. कल आप इसे मेरे साथ सुनेंगी. धन्यवाद.

Anonymous said...

वैसे आप लोग कोई और बात कर रहे हों और मैं टांग़ आड दूं-यह ठी क नही है लेकिन मियां को मियां नहीं कहेंगे तो क्या कहें/ सेठ साहब की तो वही बत्तायॆगे लेकिन उन्हें ऐसा नही कहना चाहिये था, बच्पन में मन बहुत संवेदन शील रहता है. आपके साथ यह हुआ इसका हमॆं दुख है.

Anonymous said...

भई इरफान भाई,
आपके अंदाजे बयां कार्यक्रम के तो हम बहुत ही बड़े दीवाने हैं इसके अलवा छूमंतर भी बहुत अच्छा लगता है.
और यह हो ही नहीं सकता कि हम गाड़ी में हों तो कोई और चैनल सुन लें एआईआर एफ एम गोल्ड के अलावा.
अगर सफर में होते हैं तो दोपहर के समाचारों से लेकर येशाम मस्तानी तक हम इसे ही सुनते हैं.
एआईआर एफ एम गोल्ड के बारे मे एक पोस्ट लिखने की कब से सोच रहे हैं पर अब जल्द ही लिखेंगे.