Wednesday, June 13, 2007
भरे प्यालों की ऊब
वे पेट पीट रहे हैं
तुम गोटें पीट रहे हो
वे कंद-मूल खोद रहे हैं
तुम भाषा की जडें खोद रहे हो !
उन की घुटन में राम को पुकारा जाता है
और तुम्हारी घुटन में
राम को, हुक्काम को, इस उस तमाम को
काग़ज़ी दंगल में पछाडा जाता है.
उन का हुलास
उन की सूखी फ़सल के साथ डूब गया है
तुम्हारा हुलास
तुम्हारे फिर-फिर भरते प्यालों के साथ ऊब गया है.
उन का दुख? वे छिपा सकते तो छिपा जाते
पर वह उन के चेहरे की झुर्रियों में अंका हुआ है.
तुम्हारा दुख? तुम छपा सको तो छ्पा लोगे
यों भी वह तुम्हारी आस्तीन पर टंका हुआ है.
वे जन हैं--जो अपने को नागरिक भी नहीं जानते,
तुम नागरिक, नागर, जो अपने को जनकवि हो मानते.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
mast hai . aisi hi cheezen laya karo.
its very interesting and informative.kavita dekh kar mann khush ho gaya .kaafi dinon baad kuch achha dekha.isme aapki mehnat saaf jhalak rahi hai.aapki mehnat ka lutf hum uthayenge.
Post a Comment