दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Thursday, March 25, 2010

एक ताज़ा फ़ोटो


रात भारी सही कटेगी ज़रूर,
दिन कड़ा था मगर गुज़र के रहा
-अहमद नदीम क़ासमी

Monday, March 22, 2010

जाने कहां गये वो गीत!

मोहल्ला से एक पुरानी पोस्ट का पुनर्प्रकाशन



इरफान भाई दोस् हैं। उनकी शख्सीयत का एक पहलू नहीं है। वो आंदोलनी रोज़मर्रे से शुरू होकर आज हर उस फ़न के माहिर हैं, जो सामने वाले को चमत्कार लग सकता है। अच्छी पेंटिंग, अच्छे विचार, अच्छी आवाज़ और उम्दा ज़बान- सब कुछ है उनके पास। रेडियो रेड नाम के एक प्रोडक्शन हाउस की नींव उन्होंने रखी और एक समानांतर प्रसारण की मुहिम में आज दिन-रात लगे रहते हैं। काम के दरम्यान ही उन्होंने पुराने हिंदी फिल्मी गानों के ख़ज़ाने से कुछ फुटकर नोट्स लिये। यह काम उन्होंने एक स्मारिका के लिए किया, जो इस साल गोरखपुर में होने वाले फिल् महोत्सव में छपना था। दंगों ने इस महोत्सव की तय तारीख़ को जला कर राख़ कर दिया। अब जब कभी ये महोत्सव गोरखपुर में होगा, तब स्मारिका छपेगी और तब ये आलेख भी छपेगा। लेकिन हमारे आग्रह पर इरफान भाई और संजय जोशी ने ये नोट्स मोहल्ले पर जारी करने के लिए उपलब् करा दिया। फिलहाल तो हम उन्हें शुक्रिया ही कह सकते हैं।
-मोहल्ला सम्पादक की टिप्पणी

पुराने फिल्मी गाने: महज़ मनोरंजन या रोशनी का ज़रिया‍

कहते हैं कि फिल्मी गाने आधुनिक जीवन का लोक संगीत हैं। बीसवीं सदी की एक अद्भुत ईजाद यानी फिल्मों ने हमें फिल्मी गाने दिये हैं। इनका वुजूद बदलते हुए समाज के साथ ही रूप लेता रहा है और अब भी ले रहा है। कह सकते हैं कि जो काम लोकगीत-मुहावरे और लोकोक्तियां किया करती थीं, वही काम ये गाने पिछले सत्तर सालों से कर रहे हैं। किसी भी समाज में सत्तर साल कोई बड़ा अरसा नहीं होते। फिर हमारे जैसे प्राचीन समाज में इतने थोड़े से वर्षों की गिनती ही क्या है? लेकिन कभी बैठ कर सोचिए कि कैसा जादू है इन फिल्मी गानों में, तो सचमुच हैरत होती है। मधुर संगीत और फिल्म में प्लेसिंग के बाद तो इनके जादू का असर दिखता ही है- इसके बगैर भी इनका स्वतंत्र व्यक्तित्व नकारा नहीं जा सकता। खासतौर पर जिन्हें हम ‘पुराने गाने’ कहते हैं, वो पुराने होकर भी पुराने नहीं पड़ते। इन गानों में जो शायरी है, वह अपने समाज के हर दुख-दर्द, शिकायत और प्रतिरोध को स्वर देती है। यह शायरी सताने वालों का पक्ष नहीं लेती, इसमें सताये हुए लोगों की भरपूर तरफदारी है। इसमें शोख निडर, बेबाक मोब्बत का इजहार है, असहाय और बेसहारा लोगों की तकलीफों और उमंगें हैं, मेहनतकश लोगों के ख्‍वाब और उम्मीदें हैं। बच्चों की लोरिया हैं, जमाने से टकराने और कुरीतियों को चुनौती देने की बाते हैं, सकारात्मक मूल्यों की पक्षधरता है, परम्परा और यथास्थिति की ग़ुलामी का प्रतिकार है, प्रकृति और मनुष्य के संबंधों का बेलगाम वर्णन है, सेल्फरेस्पेक्ट और व्यक्तिपरकता की गूंज है। ये शायरी इंसान में जीने के हौसले को तो दो कदम आगे बढ़ाती ही है, इंसान से इंसान के रिश्ते और भरोसे को मज़बूत करती है। रोमांटिक से लेकर यथार्थपरक गीतों की इंद्रधनुषी छटा को देखते हुए विष्णु खरे के शब्दों में हम कहेंगे कि ऐसा कोई विषय, ऐसा कोई भाव, ऐसी कोई जीवन स्थिति नहीं है, जिस पर गाने न लिखे गये हों। और यह भी कि अगर इस दौर के समूचे भारतीय समाज को सिरे से नष्ट कर दिया जाए, तो भी इन गीतों के माध्यम से उस काल को पुनःनिर्मित (reconstruct) किया जा सकता है कि वह कैसा समाज था, लोगों के सुख-दुख, सपने, संस्कृति, परम्परा और सामाजिक-आर्थिक रिश्ते कैसे थे।

आज फिल्मी गीतों में मौजूद कविता या कहें शायरी की पड़ताल करते हुए जज़्बाती तौर पर मेरे सामने कई मंज़र उभरते हैं, कई बातें ताज़ा हो जाती हैं। मेरे घर में जो रेडियो था, उस पर सुबह से ही रेडियो सीलोन और विविध भारती पर गाने खनक उठते थे। मेरी दादी को पुराने गानों का शौक़ था और पिता भी कला-साहित्य-संगीत के कम प्रेमी नहीं थे। सुबह सवा सात से साढ़े सात बजे तक रेडियो सीलोन से ताज़ा रिलीज़ हुई फिल्मों के गाने बजते थे और साढ़े सात से आठ तक पुराने गाने बजते थे। इस कार्यक्रम का समापन नियम से सहगल के गाये किसी गीत से होता था। ‘चाह बरबाद करेगी हमें मालूम न था’, ‘दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं’, ‘एक बंगला बने न्यारा’ और ‘सो जा राजकुमारी सो जा’ जैसे गाने आज भी यादों में इस तरह ताज़ा हैं कि जैसे कल की बात हो। गाने वालों की आवाज़ और संगीत का जादू हमें mesmerized कर दिया करता था। इस सबके बीच एक और दिलचस्प बात ये होती थी कि शब्दों का एक लय संसार हमारे जीवन में प्रवेश कर जाया करता था। ज्यादातर प्रेम और विरह के गीत हमारी ज़ि‍न्‍दगी को उतना प्रभावित नहीं करते थे, जितना उन्हें प्रभावित करते होंगे, जिन्होंने प्रेम और विरह के मर्म को समझा होगा। हम बच्चे थे और ‘मार कटारी मर जाना रे अंखियां किसी से मिलाना ना’, या ‘आवाज़ दे कहां है- दुनिया मेरी जवां है’ की गहराई तक नहीं पहुंच सकते थे।

यादों का सिलसिला आगे बढ़ता है और उनमें एक दूसरे को काटते और एक दूसरे को अपदस्थ करने की कोशिश में लगे गाने जुड़ते हैं। ‘वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहां’, ‘गोरे रंग पे न इतना गुमान कर गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा’, ‘दिल को देखो- चेहरा ना देखो चेहरे ने लाखों को लूटा’, ‘दो जासूस करें महसूस कि दुनिया बड़ी खराब है’, ‘मेरा जीवन कोरा काग़ज़ कोरा ही रह गया’, ‘घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं’, ‘न मुंह छुपा के जियो और न सर झुका के जियो, ग़मों को दौर भी आए तो मुस्कुरा के जियो’, ‘बाज़ार में गुज़रा हूं खरीदार नहीं हूं’, ‘कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं इंसान को कम पहचानते हैं’, ‘एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना’, ‘ग़म और खुशी में फर्क न महसूस हो जहां- मैं दिल को उस मुकाम पे लाता चला गया’ और इस तरह की सैकड़ों लाइनें हमारी भाषा और साहित्य शिक्षण का हिस्सा बनती गयीं। ऐसा नहीं था कि हम इन पंक्तियों को सायास subscribe कर रहे थे क्योंकि हमारे लिए prescribed syllebus था और हमारे शिक्षक-अभिभावक आश्वस्त थे कि हम नीति और बोध की अच्छी-अच्छी बातें पढ़ कर सभ्य-सुसंस्कृत नागरिक बन रहे हैं। हालांकि सच्चाई ये थी कि हमें पढ़ायी-बतायी जाने वाली बातों में एक बासीपन था और एक किस्म की जड़ता, जो हमें पूरी तरह आश्वस्त नहीं कर पाती थी कि हम अपने समय की फ़रेबी हक़ीक़तों को कभी पकड़ पाएंगे। शायर इसी खालीपन और बेबसी में हर बार एक फिल्मी गाना हमारे कानों से होता दिल में उतरता था और हमें एक साथी मिल जाता था। ग़ौर कीजिए कि जब बात समझी-समझी सी लग रही हो लेकिन उसे कहने का ढंग न आ रहा हो तो चंद आसान, आम फ़हम, रोज़ इस्तेमाल में आने वाले लफ़्जों के बेहद सरल ताने-बाने में उसे कसकर पेश कर दिया जाए, तो आंखें कैसी खुशी से चमक उठती हैं? ‘चांदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया’, ‘प्यार किया कोई चोरी नहीं की’, ‘हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गाएगा’ जैसे गानों ने हमें ये सलीक़ा सिखाया है कि हम ज़ि‍न्दगी को काले-सफेद रंगों में देखना बंद कर दें और उन रंगों को भी पहचानें जो इन दो रंगों के बीच हमेशा मौजूद रहते हैं।

इन फुटकर विचारों और स्मृतियों की खंगाल के पीछे मेरे उस पेशे का भी हाथ है, जिसे मैंने शौक़ और व्यावहारिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए अपनाया है। आप शायद जानते हैं कि मैं दिल्ली में एफएम गोल्ड पर रेडियो प्रेज़ेंटेटर हूं, जिसे फैशन और सुविधा के लिए रेडियो जॉकी कहा जाता है। प्रोग्राम में आने वाले पत्रों और फोन कॉल्स से मुझे हर शो में ये एहसास होता है कि गाने सिर्फ मेरे लिए नहीं बल्कि करोड़ों श्रोताओं के लिए एक ऐसा सरमाया है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। आठवें दशक में ग़जलों और गैर फिल्मी गानों ने भी इस श्रव्य संसार में एक नया आयाम जोड़ा है जो क्रम आज भी चलता चला जाता है। यहां जगजीत सिंह और मन्ना डे के अलावा बेगम अख्तर का नाम उन लोगों की सूची में सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए, जिन्होंने समय की धड़कनों से गूंजती शायरी से हमारा परिचय कराया।

एक शो में एक दिन किसी कॉलर को लाइन पर लिया, तो उसने बताया कि उसे ‘जाने वालों ज़रा मुड़ के देखो मुझे, एक इंसान हूं मैं तुम्हारी तरह...’ में आने वाली लाइन ‘फिर रहा हूं भटकता मैं यहां से वहां’ और ‘परेशान हूं मैं तुम्हारी तरह’... ‘तूफान तो आना है, आकर चले जाना है, बादल है ये कुछ पल का, छाकर ढल जाना है... परछाइयां रह जातीं, रह जाती निशानी है... ज़ि‍न्‍दगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है’... ‘हो गयी है किसी से जो अनबन, थाम ले दूसरा कोई दामन, ज़ि‍न्‍दगानी की राहें अजब हैं हो अकेला तो लाखों हैं दुश्मन’... ‘इतनी सी बात ना समझा ज़माना, आदमी जो चलता रहे तो मिल जाए हर खज़ाना’... ‘कभी मैं न सोया, कहीं मुझसे खोया, हुआ सुख मेरा ऐसे, पता नाम लिखकर कहीं यूं ही रखकर भूले कोई कैसे, अजब दुख भरी है ये बेबसी बेबसी’... ‘जाकर कहीं खो जाऊं मैं, नींद आये और सो जाऊं मैं, दुनिया मुझे ढूंढे मगर मेरा निशां कोई न हो’... ‘मिलकर रोएं फरियाद करें उन बीते दिनों की याद करें, ऐ काश कहीं मिल जाए कोई वो मीत पुराना बचपन का’... ये वो लाइनें हैं जो उसे अक्सर याद आती हैं और बेचैन कर जाती हैं।
जिस कॉलर ने इन सबकी फरमाइश की थी, वो एक कॉल सेंटर में सीईओ था और कोई तीन लाख रुपये प्रति माह उसकी सैलरी थी। बातचीत के दौरान वह सहज रूप से किसी फिल्मी गाने की लाइन का सहारा लेकर अपनी बात कहता। इस बार अपने बचपन और बीते दिनों की यादों की अक्कासी में उसने जो लाइनें कहीं वो शैलेंन्द्र की थीं- ‘मैं अकेला तो न था, थे मेरे साथी कई, एक आंधी सी उठी, जो भी था ले के गई, आज मैं ढूंढू कहां खो गए जाने किधर, बीते हुए दिन वो हाए प्यारे पल छिन।‘

मैं हैरान हूं और सोचने को मजबूर कि फिल्मी गानों को महज़ मनोरंजन का सामान समझा जाए या उन्हें रोशनी का एक ज़रिया भी, जो करोड़ों अनाम लोगों को हर पल सहारा देते हैं, उनकी आवाज़ बनते हैं। क्या इन्हें गंभीर विमर्श और विचार योग्य विषय नहीं बनाया जाना चाहिए?

Saturday, March 6, 2010

चंदू की नानी

ये मेरे बेटे अबान (साढ़े चार साल) ने पिछले महीने प्रमोद को सुनाई। आप भी सुनिए।