दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Wednesday, February 27, 2008

आइये जारी रखें अपनी शैतानियाँ


यार लोग सोचते होंगे कि कॉपीराइट का सवाल उठाकर उन्होंने कोई नई चीज़ की. ये सच नहीं है. कॉपीराइट एक ऐसा इश्यू है जिसके बारे में हम सभी जानते हैं. और सचेत हैं. मैंने दिनेशराय द्विवेदी की पोस्ट का हवाला देते हुए स्वप्नदर्शी से अपने पत्राचार को आपके साथ इसलिये शेयर किया कि एक तो इस पर आपकी राय जान ली जाय और दूसरे स्वप्नदर्शी भी जान सकें कि हिंदुस्तान में इस कॉपीराइट को लेकर क्या रवैया है. मुझे उम्मीद थी कि इस विषय में ब्लॉग और इंटरनेट के धुरंधर खिलाडी कुछ कहेंगे लेकिन उनकी हिलैरियस ख़ामोशी मुझे इस नतीजे पर पहुँचने को मजबूर कर रही है कि वे इस विषय पर विचार नहीं कर सके हैं और उनके पास भी इसका कोई जवाब नहीं है.

इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री, उसकी पुनर्प्रस्तुति, उपयोग और दुरुपयोग: कुछ विचारणीय प्रश्न

मैं इस मामले में ख़ुद को अनुपयुक्त व्यक्ति पाता हूँ क्योंकि इस सिलसिले में कोई आचार संहिता बनाई गई या नहीं, इस पर पुरानी बहसों या विमर्श को कहाँ सम अप किया गया! यह बात मेरे सामने स्पष्ट नहीं है. मैं ख़ुद इस क्षेत्र में नया हूँ और समझता हूँ कि जानकार इस दिशा में मेरा मार्गदर्शन करेंगे. जहाँ तक मेरा इंप्रेशन है- जो कुछ ओपेन सोर्स की शक्ल में हमें वाइल्ड सर्च से परिणाम मिलता है, वह सबके लिये प्रयोग में लाने योग्य है. यह मानकर चलने में क्या हर्ज है कि जिसने भी अपनी कृति यहाँ स्वतंत्र छोडी हुई है वह इस बात के लिये तैयार है या अवेयर है कि उस कृति को कोई दूसरा प्रयोग में ला सकता है, लाएगा ही. अगर स्रोत का ज़िक्र कर दे तो उसकी भलमनसाहत वरना न करे तो कोई ज़बर्दस्ती तो है नहीं. अगर ऐसी ही परेशानी है तो मैं पूछना चाहता हूं कि आपने इसे पब्लिक डोमेन में रखा ही क्यों? ख़ुद सोचिये उदाहरण के लिये आप अपनी पत्नी या किसी आत्मिक पारिवारिक क्षण का फ़ोटोग्राफ़ अगर पब्लिक डोमेन में न ले जाएँ तो उसका उपयोग-दुरुपयोग आपकी फैमिली अलबम से लेकर ही करना तो संभव होगा!


भारत में कॉपीराइट हासिल करना, उपयोग की अनुमति लेना या कृतिकार को उसका मानदेय पहुँचाना बहुत कठिन है

अगर आप किसी शरारत और दुरिच्छा से संचालित नहीं हैं और सचमुच चाहते हैं कि कृतिकार को उसका अभीष्ट मिले तो आइये एक खेल खेलें. अज़ीज़ नाज़ाँ क़व्वाल की यह मशहूर क़व्वाली मेरे ब्लॉग पर यहाँ मौजूद है. आपसे अनुरोध है कि बताएँ इस क़व्वाली के व्यावसायिक उपयोग की मंशा रखने वाले को वैधता का प्रमाणपत्र कैसे मिल सकता है? मैं आपको तीन साल का समय देता हूँ.


कूडे में पडी कृतियाँ और संरक्षण का सवाल

मेरे पास मेरी वर्षों की दीवानगी और अपनी धरोहर के प्रति मेरे जुनून ने ऐसा बहुत सा ज़ख़ीरा जमा कर दिया है जिसे हम कूडा समझ चुके हैं. सचमुच कूडेदान से बटोरे गये, कबाडियों से ख़रीदे गये और चोर बाज़ार से जुटाए गए माल में यह पता करना मुश्किल है कि इसका सोर्स क्या है. हमारे यहाँ एक अंधी दौड है जिसमें वह सब कुछ, जिसे लाभदायक और ट्रेंडी नहीं माना जाता उसे कूडेदान में डाल दिया जाता है. कोई डेढ सौ संगीतकारों-गायकों और गीतकारों का डाटाबेस मेरे ही पास है जिनके बारे में आप नहीं जानते लेकिन जिन्होंने एक ज़माने में रिकॉर्ड कंपनियों को मुनाफ़े का एक बडा हिस्सा दिलाया. आप नहीं जानते इसमें आपका कुसूर नहीं लेकिन वे रिकॉर्ड कंपनियाँ भी इनकी कोई ख़बर नहीं रखतीं. एक ज़माने के लोकप्रिय संगीतकार चरनजीत आहूजा जिन्होंने अंजन की सीटी में म्हारो मन डोले...जैसा यादगार गाना कम्पोज़ किया, वे दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहते हैं और अब स्मृतिलोप-निराशा और गुमनामी का जीवन जी रहे हैं. मैने जब उनसे बात की तो लगा ही नहीं कि वो अपने किये किसी काम से पैशनेटली जुडे भी हैं. इसी गीत का ज़िक्र करें तो आपसे पूछने का मन होता है कि इस गीत के गीतकार अलाउद्दीन और गायिका रेहाना मिर्ज़ा के बारे में आप कभी जान भी पाएंगे या नहीं? रही बात इस गीत को सुनने की, तो इसके लिये आपको किसी सर्च इंजन से सिर टकराना होगा या फिर यह यूनुस के ब्लॉग पर यह मिलेगा.
ऐसा बहुत सा संगीत और साहित्य है जो हम अपने जीवन का अमूल्य समय बरबाद करते हुए, अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए आप तक पहुंचा रहे हैं. हम समझते हैं कि इस बात का महत्व समझते हुए दिनेश राय द्विवेदी जैसे क़ानूनी अध्यवसायी और दूसरे लोग इस महान उपक्रम को जारी रखने की क़ानूनी शक्ति बनेंगे वरना इसमें हमें कोई उज्र न होगा कि हमें अपनी लीगेसी के संरक्षण और विस्तार के दंडस्वरूप जेल आदि की सज़ा काटनी पडे. यहाँ यह स्पष्ट करना बेहतर होगा कि हम करेंसी संगीत और साहित्य को प्रसारित-प्रचारित करें तो अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए हमें उचित उल्लेख करना चाहिये और यह बता देना चाहिये कि सामग्री का स्रोत क्या है और इच्छुक व्यक्ति इस सामग्री को कहाँ से ख़रीद सकते हैं ताकि संबंधित व्यक्ति की व्यावसायिक हानि न हो.
कई दूसरे ब्लॉगर्स की तरह मैं भी यही सोचकर ख़ुद को नैतिक दृष्टि से संगत पाता हूँ कि मैं प्रचारित प्रसारित सामग्री का व्यावसायिक या निजी अर्थोपार्जन के लिये तो उपयोग नहीं कर रहा. दिलचस्प है कि मौजूदा सवाल हमारी साथी ब्लॉगर की तरफ़ से आया है जो अमरीका में रह रही हैं और इस सिलसिले के कई ज्वलंत मुद्दों से दो-चार हैं. हमें न यह कहकर छूट नहीं मिल सकती कि खुद नोटोरियस अमरीकी संस्थाएं एशियाई देशों और दुनियाभर के इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स के साथ किस बलात्कार में मुलव्वस हैं और न यह कहकर कि वहाँ नागरिक चेतना और जीवनस्तर इस बात की इजाज़त देता है कि स्वत्वाधिकार आदि के प्रश्न को स्ट्रीमलाइन किया जा सका है. आप जानते हैं कि हमारे यहाँ लेखक बेचारा प्रकशक को पैसे देकर भी अपनी किताबें छपवाता है जबकि पूँजीवादी देशों और अधिकारसंपन्न देशों में लेखकों के लिटरेरी एजेंट प्रकाशकों की नाक की नकेल हैं. गायक-गायिकाओं और संगीत के धंधे के बाज़ लोग माफ़ियाओं और संगीत कम्पनियों के रहम-ओ-करम पर ज़िंदा हैं. ऐसे में हम किस रचनात्मक सम्मान और प्रेरोगेटिव की बात करते हैं.

बाज़ार और उससे जुडी नैतिकता

यहाँ ग़ौरतलब यह भी है कि हमारे ही साहित्य और प्रीरिकॉर्डेड संगीत पर बाज़ार फलफूल रहा है.विज्ञापन और टेलीविज़न मे‍ लाखों के पैकेज पर नौकरियाँ करनेवाले लोग जिस बेशर्मी से मूल रचनाओ‍ को अपने कौशल के साथ अपना बना लेते है‍ उसी के लिये अपनी दावेदारी और क्लेम चाहते है‍. इसलिये मामला उतना इकहरा और द्व‍द्वमुक्त नही‍ है जिसके लिये डरने और पने मौजूदा शग़ल से हाथ खींच लेने की नौबत आ जाए.


आइये जारी रखें अपनी शैतानियाँ.


इस लेख से जुडी हुई कडियाँ
क्या हम चोर हैं?
इरफ़ान की चिंताएँ हम सब की चिंताएँ हैं
कॉपीराइट ऐक्ट:कुछ फ़लसफ़े कुछ उल्झनें
कापी राइट का कानूनी पहलू एक वकील की कलम से
काँपीराइट को समझें, इस का उल्लंघन करने पर तीन साल तक की सजा, साथ में ढ़ाई लाख तक जुर्माना हो सकता है
कॉपीराइट उर्फ़ गंदा कॉलर-साफ़ कॉलर

Tuesday, February 26, 2008

कॉपीराइट उर्फ़ गंदा कॉलर-साफ़ कॉलर

वकील ने देख लिया था कि उनकी कमीज़ का कॉलर गंदा है और आज सुबह भी उन्होंने दही-चूडा खाया था. पहले तो वो बहुत देर तक मोबाइल पर बात करने का नाटक करता रहा लेकिन पिंड छूटता न देखकर उन्हें बाहर अरबिंद की चाय की दुकान पर ले आया. चाय को मजबूरी में सुडकते हुए वकील ने उन्हें बताया कि इस मामले में कुछ नहीं हो सकता है. अगर कुछ होना ही है तो बहुत पैसा खर्च होगा और टाइम भी बहुत लगेगा. पैसे की बात सुनकर वो उस तरफ़ देखने लगे थे जिधर लिखा था- अठारह वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को सिगरेट, तम्बाकू, पान-मसाला आदि बेचना दंडनीय अपराध है.

कई दिनों की दौडभाग के बाद उनके बेटे ने इस वकील से मुलाक़ात करवाई थी जिसे अग्रवाल समाज में बडी इज़्ज़त हासिल थी और लेखकों के साथ शराब पीने से उसमें लेखकीय लचक आ गई थी. कॉपीराइट को अब उसने अपनी रुचि का नया अड्डा बना लिया था लेकिन रोना यही था कि लेखक कंगला होता है उसके पास खरचने उतना भी नहीं होता कि....

उनकी एक कहानी, जिसने नई कहानी आंदोलन के दौर में उन्हें रातों-रात शिखर पर पहुंचा दिया था, को एक अमरीकी प्रकाशन ने अपनी एंथोलोजी में अंग्रेज़ी में अनुवाद करके छाप लिया था और अब तक इस एंथोलोजी के तीन संस्करण हो चुके थे. उन्होंने कई बार सोचा कि अगर छापना ही था तो मुझसे पूछ लेते...फिर यह सोच कर संतोष कर लिया कि मुझसे पूछते कैसे? पिछले कई साल से मेरा कोई स्थाई पता भी नहीं रहा...कभी बडे बेटे-बहू के साथ, कभी छोटे अनिमेष के साथ...कभी बेटी से मिलने चले गये तो कभी बिसनाथ के ऑरोवेलवाले आश्रम में नेचर क्योर में पडे हैं...जब घर पर भी हुए तो कभी डाकिया बाहर बैठे हारूनघडीसाज़ को चिट्ठी दे गया तो कभी बाहर डिब्बे में डाल गया और लौंडे उससे जहाज बनाकर उडा गये....

Monday, February 25, 2008

क्या हम चोर हैं?


पिछले कई दिनों से निजी पत्र व्यवहार में स्वप्नदर्शी यह चिंता व्यक्त कर रही हैं कि हम लोग अपने ब्लॉग्स पर जो साहित्य-संगीत आदि प्रकाशित-प्रसारित कर रहे हैं उस संदर्भ में हमने कॉपीराइट उल्लंघन के पहलुओं पर विचार किया है? आज ही दिनेशराय द्विवेदी की एक पोस्ट का हवाला देते हुए उन्होंने यह लिंक भेजा है जिसके अनुसार हम सब जो इस काम में लगे हैं उन्हें सोचना चाहिये। मैं इस दिशा में किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहा हूँ। इसलिये इस पोस्ट को एक निवेदन की तरह लिया जाय। यह निवेदन ब्लॉग और इंटरनेट महारथियों से - रवि रतलामी, श्रीश, अविनाश, देबाशीश, मैथिली, सागर नाहर और जीतू चौधरी सहित उन तमाम लोगों से है जिन्होंने हमें चोरी की राह पर ढकेला है। मैं भाई यूनुस, विमल वर्मा, पारुल, अशोक पांडे, प्रमोद सिंह और उन सभी मित्रों से आग्रह करता हूँ जो पूर्व प्रकाशित साहित्य और प्री-रेकॉर्डेड म्यूज़िक अपने ब्लॉग्स या साइट्स पर अपलोड करते हैं, वे बताएं कि क्या हम सब चोर हैं? इस दिशा में क़ानूनी नुक़्तों के मद्देनज़र आप सभी अपने ब्लॉग प्रसारण और प्रकाशन की हलचलों के पक्ष में क्या दलीलें देते हैं.
जब तक इन चिंताओं पर कोई ठीक-ठाक पोज़ीशन नहीं ली जाती तब तक के लिये मैं अपने ब्लॉग पर या सामोहिक ब्लॉग्स पर अपनी ओर से ऐसी कोई भी सामग्री प्रसारित-प्रकाशित नहीं करूँगा जिसमें आइपीआर के निषेध का मसला जुडा हो.

Sunday, February 24, 2008

सुनिये रघुवीर सहाय की कविता , किताब पढकर रोना

रोया हूं मैं भी किताब पढकर के
पर अब याद नहीं कौन-सी
शायद वह कोई वृत्तांत था
पात्र जिसके अनेक
बनते थे चारों तरफ से मंडराते हुए आते थे
पढता जाता और रोता जाता था मैं
क्षण भर में सहसा पहचाना
यह पढ्ता कुछ और हूं
रोता कुछ और हूं
दोनों जुड गये हैं पढना किताब का
और रोना मेरे व्यक्ति का

लेकिन मैने जो पढा था
उसे नहीं रोया था
पढने ने तो मुझमें रोने का बल दिया
दुख मैने पाया था बाहर किताब के जीवन से

पढ्ता जाता और रोता जाता था मैं
जो पढ्ता हूं उस पर मैं नही रोता हूं
बाहर किताब के जीवन से पाता हूं
रोने का कारण मैं
पर किताब रोना संभव बनाती है.





रघुवीर सहाय

आवाज़: इरफ़ान
........अवधि: लगभग डेढ मिनट

Thursday, February 21, 2008

एक "आज़ाद" लड़की से कुछ सवाल



Where do you go to my lovely

You talk like Marlene Dietrich
And you dance like Zizi Jeanmaire
Your clothes are all made by Balmain
And there's diamonds and pearls in your hair, yes there are

You live in a fancy apartment
Off the Boulevard Saint-Michel
Where you keep your Rolling Stones records
And a friend of Sacha Distel, yes you do

You go to the embassy parties
Where you speak in Russian and Greek
And the young men who move in your circle
They hang on to speak to you, yes they do

But where do you go to my lovely
When you're alone in your bed
Tell me the thoughts that surround you
I want to look inside your head, yes I do

I've seen all your qualifications
You got from the Sorbonne
And the painting you stole from Picasso
Your loveliness goes on and on, yes it does

When you go on your summer vacation
You go to Juan-les-Pins
With your carefully designed topless swimsuit
You get an even suntan on your back and on your legs

And when the snow falls you're found in Saint Moritz
With the others of the jet-set
And you sip your Napoleon brandy
But you never get your lips wet, no you don't

But where do you go to my lovely
When you're alone in your bed
Won't you tell me the thoughts that surround you
I want to look inside your head, yes I do

You're in between twenty and thirty
A very desirable age
You'r body is firm and inviting
But you live in a glittering stage, yes you do

Your name, it is heard in high places
You know the Aga Khan
He sent you a racehorse for Christmas
And you keep it just for fun, for a laugh, a-ha-ha-ha

They say that when you get married
It'll be to a millionaire
But they don't realize where you came from
And I wonder if they really care, or give a damn

Where do you go to my lovely
When you're alone in your bed
Tell me the thoughts that surround you
I want to look inside your head, yes I do

I remember the back streets of Naples
Two children begging in rags
Both touched with a burning ambition
To shake off their lowly-born tags, so they try

So look into my face Marie-Claire
And remember just who you are
Then go and forget me forever
But I know you still bear the scar, deep inside, yes you do

I know where you go to my lovely
When you're alone in your bed
I know the thoughts that surround you
'Cause I can look inside your head
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Text transcribed by Ashok Pande


Peter Sarstedt.....Duration:05:43

Wednesday, February 20, 2008

पतनशीलता: कुछ आत्मस्वीकार और थोडी कशमकश वाया ज़िया मोहेउद्दीन और मोहम्मद अली रुदौलवी


पतनशीलता एक सतत द्वंद्व है. आइये सुनें कि इस कश-म-कश से गुज़रता एक शख़्स किन-किन चीज़ों को याद कर रहा है और अपने मन को समझाता कुछ समझने की कोशिश कर रहा है.


ज़िया मोहेउद्दीन
..........अवधि-08:04

Tuesday, February 19, 2008

शील, अश्लील और पतनशील: कुछ टिप्स


ऐ नेक ग़रीब भोली हिन्दनियों, इन ख़ुद मतलबियों के कहने को हर्गिज़ न मानो. तुमको पतिव्रता महात्म्य सुनाते हैं और तुम्हारे ख़ाविंदों को को कोकशास्त्र, नायिकाभेद और बहार ऐश और लज़्ज़तुलनिसा की पोथियाँ सुनाकर कहते हैं - इस दुनिया में जिसने दो-चार दस-बीस कन्याओं से संग न किया, उसका पैदा होना ही निष्फल है.

बस अब तुम इस धर्म को छोड दो. ऐसी पति सेवा से स्वर्ग नहीं मिलेगा...नर्क में तुम्हें भी जाना पडेगा.

यह किसी बडे महात्मा का वाक्य है- "जो किसी को बद काम में मदद करता है या उसे मना नहीं करता, वह उसके आधे पाप का भागी हो जाता है."
बस, तुम्हारे इस धर्म करने से तुम्हारे पति अधर्म करते हैं, जब वे किसी ग़ैर स्त्री के पास जाते हैं, तुम उस वक़्त इस धर्म के बाइस बोल नहीं सकतीं क्योंकि ख़ाविंद के बरख़िलाफ़ न बोलना ही धर्म है. बस, वे इस काम में दिलेर हो जाते हैं. ग़रज़, उस वक़्त तुम्हारा कुछ न कहना आइंदा के लिये उन्हें अधर्मी बना देता है. ज्यों-ज्यों तुम इस धर्म में दृढ होती जाती हो, त्यों-त्यों वे अधर्म में ज़्यादा हो जाते हैं. फिर यक़ीन नहीं होता कि तुम्हारे दिल पर कुछ सदमा न होता हो. बस, अपने ही दिल पर सहारती हो. जब नहीं सहारा जाता तो आप ही मर जाती हो. गोया, तुम्हारा यह धर्म, उनका अधर्म, तुम्हारी जान लेनेवाला है. तुम्हारा मतलब इस धर्म के करने से ये था कि वे तुम पर ऐतबार रखें. उलटा तुम ही जेलख़ाने में डाली गयी और शक तुम पर किया गया.सच्चे दिल से धर्म तभी किया जा सकता है जब तुम्हारे ख़ाविंद तुम्हरा ख़याल करें. वह ख़यल तभी कर सकते हैं जब वे ज़नाकारी से बाज़ आएं.

उनको ज़नाकारी से रोकने की यह अच्छी तज़बीज़ है- जब वे किसी औरत के पास जावें, तुम कहो हम भी दूसरे मर्द के पास जावेंगी. अगर किसी रंडी, लौंडे को घर में लाएँ तो तुम फ़ौरन शादी तोड दो.फिर आदि वेद में लिखा भी है-"तैने कीती रामजनी, मैंने कीता रामजना."
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सीमंतिनी उपदेश, लेखक: एक अज्ञात हिंदू औरत, पृष्ठ-99-100

Sunday, February 17, 2008

इस तरह शुरू होती है "सुनो एमएफ़ हुसेन की कहानी" Suno M.F.Husain Ki Kahani


हक्कू साहब ने इच्छा ज़ाहिर की है कि मैं अपने एक पुराने प्रोडक्शन की झलक यहाँ रखूँ. पेश करता हूँ ख़ुद हुसेन साहब की आवाज़ में इस नायाब ऑडियो बुक की ओपनिंग. इस पाँच घंटे की ऑडियो बुक का एक-एक शब्द हुसेन साहब का लिखा हुआ है. उन्होंने मेरे लिये पाँच नये अध्याय भी लिखे जो इन बावन छोटे-बडी कहानियों में शामिल हैं. टूटी हुई बिखरी हुई पर इनमें से एक दो कहानियाँ आप पहले भी सुन चुके हैं।








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Thursday, February 14, 2008

एक भोजपुरी वैलेंटाइन के मन की चीत्कार

वैलेंटाइन डे पर एक ख़ास पेशकश. सुनिये एक भोजपुरी युवती आज के दिन अपने प्रिय से क्या कह रही है. स्वर नीलम ग्यान का है. मोहम्मद उस्मान के लिखे गीत को संगीतबद्ध किया है के.एस.नरूला ने.

Wednesday, February 13, 2008

उठो भावुक मत बनो !

1
"निष्ठुर"
मैं अनु को यही कहकर याद करता हूँ. ऐसी बात नहीं है कि उसने मुँह मोड लिया है. उपेक्षा करती थी मेरी लेकिन उसके सलोने मुखडे पर भावुकता के क्षण उभरते हुए नहीं देखे थे मैंने.

"बहुत भावुक हो तुम"
वो कहती थी. ज़रा सी बात पर तुम बेचैन हो उठते हो, ख़ुश हो जाते हो, रो देते हो, लंबी-लंबी बातें करते हो. क्या है ये सब?
फिर वो मेरे गालों पर अपनी उँगलियाँ रखती. मेरी आँखें थोडी देर को उसकी तरफ़ उठतीं और मैं किसी निर्वात में खो जाता, जबकि वो मुझे निर्निमेष निःशब्द देर तक देखती रहती. मैं एक जादू में बँधा उसकी नाज़ुक उँगलियों को माथे पर छुलाता, आँखों से लगाता.

कहीं एक मौन था और हम दोनों इस मौन के इस पार और उस पार रहते. हमारी आँखों के दायरे भीगे होते और कहीं से उभरती तरलता की लहरों पर भावों की नौकाएँ धीरे-धीरे हिचकोले लेतीं, जिनके चप्पुओं की आवाज़ें हमारे दिलों की धडकनों में घुल जातीं और एक अजाना डर पसरता कि दूरी कम होने से नावें टकरा न जायें.

चुप्पी, सन्नाटा, तरलता, चमक और फिर मोहक मुस्कान!
मेरे बालों में उँगलियाँ फँसाकर माथे को हल्की जुंबिश देती-- "उठो भावुक मत बनो".
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An extract from Dil Ne Phir Yaad Kiyaa, 24 Oct 2006

जन्नत है देखनी तो किसी दिल में आशियाँ बना...मुकेश

Tuesday, February 12, 2008

इरफ़ानियत एक कविता है


मुलाक़ात

फिर तुमने
अपने
ठंडे पोरों से छुआ।

बुधवार था
और आसमान से
नमी की चादर
हमें ढँकने आई,

हम शोलों की तरह
दहक रहे थे
जहाँ हमारे बीच
सारी मान्यताएँ पिघल गईं

उस नीम ठंड में हम
सतह की हवा को हल्का बनाते रहे.
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पहल, 56 पृष्ठ 215

चंदा रे चंदा कुछ तू ही बता मेरा अफ़साना

Sunday, February 10, 2008

पुस्तक मेला, आवारगी और एक तट छोडती नाव

मैं इस वक़्त भी उसी जगह पर हूँ



मैं इस वक़्त भी उसी जगह पर हूँ

जहाँ मेरे दिल का समुंदर
तुम्हारे शानदार जहाज़ को रुख़्सत होते देखकर
ठिठक गया था


आसमान तब कुछ और नीचे उतर आया था

पहाडों ने तुम्हें जाने के लिये जगह दे दी थी

मैं अब भी उसी जगह पर हूँ

इस इंतज़ार में
कि जिस शहतूत के दरख़्त को
मैंने आँखों से ओझल होते देखा है

वह लौटते हुए कैसा लगेगा!
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पिछ्ला हफ़्ता महान अप्रत्याशाओं और सुखद आश्चर्यों से भरा गुज़रा. मेरी कुछ माँगी हुई मुरादें पूरी हुईं और बिनमाँगी हुई भी. भाई अशोक पांडे आए तो वो अपने साथ वह चेक भी लाए जिसने आपके साथ पिछले दिनों टूट गये रिश्ते को फिर से शुरू करने का ज़रिया बनाया. मैंने कहा था बिल अदा नहीं कर पा रहा हूँ और वो बोले "अच्छा" और जब वो बोले मैं अदा करता हूँ तो मैंने कहा "ठीक है".

बानगी सुनिये





लाए तो वो अपने साथ बहुत कुछ ऐसा थे जिसे मैं क्या कहूँ, आप मुनीश की ज़बानी पहले ही पढ चुके हैं. वो एक शानदार घुमक्कड और परले-दर्जे के आवारा हैं. आज उनका साथ छूट गया. और लगा कि शहर से आवारगी का मसीहा कूच कर गया. इस बीच कई और जाने-अनजाने दोस्तों ने मेरे बिल की अदायगी का प्रस्ताव रखा है जिनके प्रति मैं तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ.
मुनीश ने पुस्तक मेले और इसके बहाने जुटे कुछ ब्लॉगरों का हाल तो बताया ही है. इस बीच उन्होंने एक छापामार रिकॉर्डिंग भी कर डाली. सुनिये इसमें अशोक पांडे, मनीषा, मुनीश और मैं क्या-क्या फेंक रहे हैं-

ब्रोकेंन एंड स्कैटर्ड

टूटी हुई, बिखरी हुई
In English
-
Broken and scattered, tea leaves
Crushed under feet
- My poetry
Hair, coarse with dirt, fallen, yet
Clinging to the neck

- Such my skin
as though detached
from me,
blended with clay

Standing in the light and shade of the
Afternoon, are trolleys of waiting,
Like my ribs …
Empty sacks are being darned with bodkins
Which bear the desolation of my eyes.

Even the chill carries a smile
Who is my friend

The pigeons hummed a ghazal
I could not catch
the radeef - qafias
So smooth, so soft, so sweet
Was their pain

The sand of Ganga is oscillating in the sky
Like a mirror
In which I am sleeping like mud
And I am shining
Somewhere
… Don’t know where

My flute is a rudder
Whose notes are dampened
“Chhup Chhup Chhup” my heart beats …
Chhup Chhup Chhup

He has been born who would embellish my
death
I have opened that shop, in which
Medicines
Labeled ‘poison’ laugh
There is so much love in the twitches
Of their injections

She is laughing at me who stands on
My lips on one sole
But her hair are pressed under my back
Scratching me like thin wires

A clear reflection of her kiss has crushed
My face with the stamp of her soles
Her bosom has grinded me even

Lay me down on the mountains of desire
Where I am writhing like a cascade
Let me burn in the rays of the sun
So that it its glaze and in its flames
You may dance

Let me drip like dew from wild flowers
So you may drench the dozy
Burning of your eyelids
With its pacified smell, If possible

You talk to me like the shy hinges of my
Door … keep asking
Questions
From the numberless rooms of my heart

Yes, you love me like fish love the waves
… in which they don’t come for being
Trapped
Like breezes do to my bosom
Which they cannot compress deep enough.
You love me as I love you.

Mirrors! Dissolve in the dark and write me
And read me on the sky
Mirrors! Smile and kill me
Mirrors! I am your life

A flower, putting on the laughter of dawn
Removing the rough, brown blanket of night
Coiled around me

It had no thorns
- Only one very black
Very long tress of hair
Shadowing till ground … where my feet
Had disappeared

That flower, chewing pearls, dissolving
Stars in its squints, showered upon me
Like a living perfume case

And then I saw that I am merely a breath
Mingled in its drops
Which must be choking your bosom
In your dreams, must be throbbing badly
Like a splinter

I could not become a salute at her feet
By the time I bowed
The direction of her feet
Had disappeared taking my eyes along

When you met me, you found
A torn and opened envelope
You turned it over and over – there was
Nothing in it
You threw it away – only then the fallen me
Could make you realize that it was me
You even bent down once to pick it up, but then left
It there
Thinking something.
I had met you even thus.

You proved that my memory was guilty –
And you charged
Exaggerated interest on that.
And then I said – in the next birth. I smiled
The way
Sad mountains
Sinking in the evening waters smile.

You appreciated my poetry very much, I
Thought
You were telling your own tale. You
Appreciated
my poetry very much.
An aroma dwells upon my eyelids like
A suggestion, as though it was the tiny
Spelling of your name –
A small, lovely, tilted spelling

Ah! That tip of the grass blade
That remained glued to your teeth
In that picnic
Pierces my sleep even this day

If I were jealous of anyone, I would have
Taken rebirths every hour – again and again
But as if I am immortal with this body itself
Because of you

A number of arrows, a number of boats, a
Number of
Feathers came here – flying, floating and
Passed away
They bore me – all of them
You thought you were in them
No, no, no.

There was no one in them
Only the doleful glitters of
Bygone catastrophes and happenings
were there.
Merely.
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Shamsher Bahadur Singh
1954
Translated by Ashok Pande
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