दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Wednesday, August 3, 2016

टोबा टेकसिंह वाया केतन मेहता


Zeal for Unity के लिए केतन मेहता ने मंटो की मशहूर कहानी 'टोबा टेक सिंह' पर इसी नाम से फिल्म बनाई है। कल शाम (1st July 2016) इसी फिल्म से 7वें जागरण फ़िल्म फ़ेस्टिवल की शुरुआत हुई। 'टोबा टेक सिंह' पर अब तक कई नाटक और फ़िल्में बन चुकी हैं। विभाजन पर यह एक इतनी प्रभावशाली कहानी है कि इसे किसी भी तरह पेश किया जाए, इसका कुछ न कुछ असर इसके भोक्ता पर पड़ता ही है। ये अच्छी बात है कि भारत और पाकिस्तान की साझा स्मृतियों को संजोने के लिए 'ज़ी' ने ज़ील फ़ॉर यूनिटी जैसा इनीशियेटिव लिया है और ये भी बुरा नहीं है कि 'दैनिक जागरण ग्रुप' ने हिन्दी इलाक़ों में अपनी अख़बारी मुहिम के उलट भारत-पाक एकता को अपने फ़िल्म फ़ेस्टिवल का पवित्र कार्य बना कर पेश किया। ये भी ठीक है कि अगर मंटो की प्रस्तुतियां न हों तो युवाओं की एक बड़ी जमात अँधेरे में रह जाएगी और भारतीय उप महाद्वीप में एक दौर तक हुई साहित्यिक रचनाओं की और पीठ कर के खडी मिलेगी। इतनी सारी अच्छी बातों के साथ साथ ये बात कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि केतन मेहता इस कहानी की सिनेमाई पेशकश में इस कला के विशेष उपकरणों का उपयोग करके कोई नया अनुभव रच पाने में नाकाम रहे। अगर कहानी में मौजूद करुणा, विडम्बना और हास्य को ही वे उतने वज़न में पेश कर देते तो भी कहानी के साथ न्याय कहा जाता। इसके उलट ऐसे कई क्रूशियल मौक़ों पर अभियाक्तियों का असावधान बनाव, अर्थ को अनर्थ में बदल रहा है। टोबा टेक सिंह के बिशन सिंह की भूमिका में पंकज कपूर हैं जो ठीक वैसे ही बनकर पूरी फिल्म में हैं जैसा आप कहानी पढ़ने के बाद बिशन सिह की कल्पना करते हैं। विनय पाठक को मंटो के किरदार में पेश किया गया है। एक अन्य अभिनेता जो इश्क़ का क्या होगा लॉर्ड कहा करता है; इन तीन अभिनेताओं को छोड़ दें तो अभिनय के मामले में यह किसी शौक़िया नाटक से अलग नहीं है। सीनिक सेटिंग और संगीत में कैसी भी कल्पनाशीलता से काम नहीं लिया गया है। लहजे और उच्चारण की भ्रष्टता, पात्रों से लेकर नरेटर तक में, महान उत्साह के साथ मौजूद है। शुरू में कुछ लोग बिशन सिंह को भीषण सिंह भी कहते पाए गाये और साजिदा को सज्जीदा। मंटो की किसी कहानी पर काम करते हुए उनकी 'खोल दो' को घुसाने का मोह ज़्यादातर लोग रोक नहीं पाते और केतन ने भी खोल दो की छौंक लगाईं है जो शायद फिल्म को रोचक बनाने की उनकी आख़िरी लेकिन नाकाम कोशिश है। फिल्म देखने से कहानी का पढ़ा हुआ सुख तो जाता ही रहता है उलटे दर्शक कुछ नकारात्मकता लेकर भी निकलता है।