यह तो सभी जानते हैं कि धर्म यानी मज़हब और कला का पुराना रिश्ता है. चाहे वो इटली के पुनर्जागरण के समय की कला हो, अजंता के भित्तिचित्र हों या फिर मंदिरों की मूर्तिकला. इन सभी का स्रोत धर्म रहा है. धर्म की छत्र छाया में ही ये सभी पली हैं.लेकिन ये भी मानना होगा कि कम से कम शुरुआती दौर में धर्म को भी कला की उतनी ही आवश्यकता थी जितनी कला को धर्म की.प्रोफेसर एएन वाइटहेड के अनुसार जब धर्म मानव इतिहास में अवतरित होता हैतो उसके चार रूप नज़र आते हैं--रीति-संस्कार, भावना, विश्वास, और औचित्य स्थापन. साधरणतयाः ये माना ही जाता है कि सृष्टि के कम से कम दो रूप तो हैं-दृश्य और अदृश्य.जो दृश्य है वो भले ही हम समझ न पायें, लेकिन कम से कम उसे देख सकते हैं.अदृश्य को सभ्यता के शुरुआती दौर में न देखा जा सकता था और न ही समझा.जिसे हम समझ नहीं पाते, लेकिन किसी तरह मह्सूस कर सकते हैं उससे या तो भय की उत्पत्ति होती है या आश्चर्य की. आदि मानव की यही दो प्रधान भावनाएं थीं. भय से धर्म का जन्म हुआ और आश्चर्य से कला का.
अपने भय पर क़ाबू पाने के लिये और उन शक्तियों का संरक्षण पाने के लिये,जिससे वह डरता था, उसने रीति या रिचुअल का सहारा लिया, इस आशा से कि इनके द्वारा वे शक्तियां उससे प्रसन्न रहेंगी और उनकी कृपा मनुष्य पर बनी रहेगी. लेकिन रीति के लिये प्रतीक और संगीत की आवश्यकता थी और इनके लिये धर्म को संगीतकार और कलाकार की ज़रूरत पडी.रीति पालन करते-करते एक नई बात पैदा हुई. कला के जोड के कारण मनुष्य को इसमें आनंद का अनुभव होने लगा.अब रीति पालन दैवीय शक्तियों को अनुकूल बनाने के लिये आवश्यक नहीं रह गया, आनंद प्राप्ति का एक ज़रिया भी बन गया.शायद इसी आनंद भावना के कारण नृत्य, नाटक, मूर्तिकला और चित्रकला की शुरुआत स्वतंत्र कलाओं के रूप में हुई जो अब धर्म के ऊपर पूर्णतः निर्भर नहीं थीं. इस तरह से यह कहा जा सकता है कि शुरुआत में मनुष्य रीति के कारण ही कलाकार बना,लेकिन बाद में कला की स्वतंत्र स्थापना हुई.
जैसे जैसे धर्म संगठित होता गया और उसकी जकड समाज पर बढती गयी वैसे-वैसे मनुष्य का निजी जीवन और सामाजिक आचरण दोंनों धर्म की गिरफ़्त में आते चले गये.व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में कोइ फ़र्क़ नहीं रहा. दरअस्ल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की धारणा प्रजातंत्र के आने के बाद ही दोबारा उभर कर आई.तब भी बहुत अर्से तक इंसान का व्यक्तिगत जीवन धर्म के बताए हुए रास्ते पर ही चलता रहा. हमारे समय की स्थिति अब बिल्कुल अलग है.सभी धर्म ईमानदारी, सौहार्द्र और अछे इंसान बनने की यानी दूसरे लोगों का भला करने के सीख देते हैं.लेकिन अब हमारे जीवन में इन चीज़ों की कोई जगह बाक़ी नहीं रही है.पूंजीवाद की शिक्षा कुछ अलग है-व्यापार बढाओ, धन कमाओ और अगर इसके लिये औरों का शोषण करना हो तो इससे बिल्कुल मत हिचको. सबसे आगे बढ्कर चलो चाहे इसके लिये तुम्हें औरों को कुचल कर आगे बढना पडे.दूसरों के साथ अपना धन बांटने में कोइ अच्छाई नहीं है, तुम जितना ज़्यादा धन का व्यय अपने ऊपर करोगे, तुम उतने ही बडे आदमी बनोगे.जगजीवन राम ने भी जब अपना बडप्पन साबित करना चाहा था तो अपनी ही बस्ती में एक बहुत बडा मकान बनाया था, कोई सार्वजनिक स्कूल या धर्मशाला नहीं.मतलब यह कि धर्म और रोज़मर्रा के जीवन में अब कोई खास रिश्ता बाक़ी नहीं रहा है.
एक संकीर्ण तबक़े के लिये धर्म अब जातीय चिन्ह बन कर रह गया है,जो हमें एक दूसरे से अलग करता है और जिसके झंडे के नीचे एकत्रित होकर हम दूसरों पर हमला कर सकते हैं.इसमें दूसरों से बचाव की भावना कम है, आक्रमण की भावना अधिक. विडंबना ये है कि धर्म के झंडे के नीचे इकट्ठा होने के लिये हर इंसान को अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता छोड्कर एक ही तरह का व्यवहार करना अनिवार्य है. इसलिये धर्म के ठेकेदारों को कलाकार की स्वतंत्रता नामंज़ूर है क्योंकि कलाकार वैयक्तिक स्वतंत्रता का प्रतीक है.वह धर्म के प्रतीकों को अपनी ऐतिहासिक धरोहरों के बतौर स्वीकार तो करता है,लेकिन उन प्रतीकों से कलात्मक ढंग से खेलने का अधिकार छोड्ना नहीं चाहता. और छोडे भी क्यों, आख़िर ये प्रतीक उसी के पूर्वजों ने तो बनाये हैं? और हिन्दू धर्म में तो इन प्रतीकों के कितने रूप हैं. चाहे शिव हो या हनुमान या फिर गणेश हो या विष्णु, इनके अनेक रूप हैं तो इनका एक और रूप क्यों नहीं हो सकता?
यही बात उन प्रतीक चिन्हों पर भी लागू होती है जो धार्मिक तो नहीं हैं लेकिन लगभग धार्मिक है जैसे भारत माता... जब हम भारत को भारत माता के रूप में श्रद्धेय मानते हैं तो उसका चित्रण स्त्री के आकार में करना क्या गुनाह है!(हुसेन के संदर्भ में)मान लिया, स्त्री का आकार इस चित्र में निर्वस्त्र है, लेकिन उसमें कहीं कामुकता या अश्लीलता तो नज़र नहीं आती. एक और दृष्टि से देखें तो हम सब ने बचपन में अपनी मां को कमोबेश निर्वस्त्र रूप में देखा ही है. स्त्री का हर निर्वस्त्र रूप कमुकता का द्योतक नहीं है और न ही निरादर का.
के.बिक्रम सिंह के लेख मज़हब का शिकंजा, जनसत्ता 13 मई 2007 से साभार
3 comments:
bahut badhiya post hai bhai. vicharottejak aur sochane ko mazboor karnewala.
इंसान की स्वतंत्रता को जकड़ने की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर पैनी नज़र...
to aise main kya stree ko kaam ki nigah se dekhana aur usmain prem ke gambheerya ko dhoondhana apripakava ya sankeern manseekata hi mani jayegi?
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