दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Monday, December 31, 2007

साल की पहली पेशकश


जब बहुत शोर हो और कुछ रस्मी-बेमानी शुभकामनाओं और शुभेच्छाओं से मन उकता जाये तो आइये कहें.








फिल्म: स्वामी विवेकानंद (1998), संगीत: सलिल चौधरी, गीत: गुलज़ार

फहमीदा रियाज़ की दो नज़्में और, साल को अलविदा


नज़्म- एक




नज़्म- दो

Saturday, December 29, 2007

एक ही जैसे दु:खद प्रसंग हैं...



...आइये सुनें मशहूर पाकिस्तानी शायरा फ़हमीदा रेयाज़ की एक और नज़्म.


नोट: साल के इन बचे हुए दिनों में टूटी हुई बिखरी हुई पर बस यही होगा.

वो लड़की

Thursday, December 27, 2007

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भाई गोकुल को उनके पसंदीदा गायक उस्ताद हुसैन बख़्श की गाई एक दिलचस्प ग़ज़ल सप्रेम


गोकुल की बेचैनी मुझसे उस दिन देखी न गयी. एक ग़ज़ल सिंगर के लिये इतनी बेचैनी! कमाल है. मैने तय किया कि किसी भी तरह हो, उनके उस कैसेट को रिट्रीव किया जाय जिससे अब वो निराश हो चुके हैं. तो भाइयो, मैंने कल देर रात तक इसमें हज़ार हिकमतें लगा कर ऐसा तो बना ही दिया कि अब आप भी इसे सुन सकते हैं. अशोक पांडे मानेंगे कि किसी क़द्र ये ग़ज़ल उन ग़ज़लों में से है जिन्हे गाने में थोडी मास्टरी चाहिये. हुसैन बख़्श, कहा जाता है कि उस्ताद फैयाज़ ख़ाँ साहब के शागिर्द हैं और ग़ुलाम अली उनके शागिर्द हैं. काफ़ी और ग़ज़ल के अलावा वो ख़याल के भी मास्टर बताए जाते हैं. मैंने उस दिन देखा कि राधिका को भी हुसैन बख़्श बहुत पसंद हैं.
तो दोनों भाई बहन को और आप भाई-बहनों को यह ग़ज़ल पहुँचती है, साथ ही यूट्यूब पर मिली उनकी गाई आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक भी.

मैं आम तौर पर यूट्यूब के वीडियो यहाँ लगाने से बचता हूँ क्योंकि यह मेरे ऐस्थेटिक्स को सूट नहीं करती, मतलब मेरे टेम्पलेट में वे एक भद्दा रंग भरते हैं. बहरहाल मैं आज यह वीडियो गोकुल और राधिका के लिये जारी करता हूँ.

उन बहारों पे गुलिस्ताँ पे हँसी आई...

Tuesday, December 25, 2007

एक लिस्नर से मुलाक़ात

एफ़एम लिस्नर्स के अनेक रूप हैं. इस बारे में एक पोस्ट यहाँ पहले से है और यहाँ भी एक लिस्नर का ज़िक्र है.
मेरे सहकर्मी , श्रोताओं के पत्रों के प्रति आम तौर पर एक ही रवैया रखते हैं कि उनको शामिल करके कार्यक्रम में पत्र या ईमेल शामिल करने की रस्म निभा दी जाये. फ़ोन-इन प्रोग्राम में भी श्रोता को महज़ एक संख्या मानना इसी का एक हिस्सा है.
अच्छे श्रोता मुझे समय-समय पर मिलते रहे हैं और मुझे हर बार उनसे कुछ नया सीखने और जानने को मिलता है.

बीते इतवार की शाम एक श्रोता रवि कुलभूषण कक्कड़ के साथ गुज़री. कक्कड़जी कई महीनों पहले मेरे श्रोताओं में शामिल हुए हैं और उन्हें रेडियो मैटनी का "दिल ने फिर याद किया" हिस्सा सराहने योग्य लगता है. बीते शनिवार जब स्टूडियो में उनका फोन आया तो एक बार फिर उन्होंने मेरे लम्बित वादे की याद दिलाई. मैंने वादा किया था कि मैं खुद उनसे मिलकर गुज़रे दौर के फिल्म म्यूज़िक और उनके पैशन पर बातें करना चाहता हूँ. बहरहाल फोन में एक अजीब सा अपनापन और अधिकार था कि मैँ इतवार को उनसे मिले बग़ैर नहीं रह सका.

नोएडा में वो अपने बेटे-बहू के साथ रहते हैं. फ़ोटो में बाएं से दूसरा कक्कड़जी का बेटा मुकुल और बिल्कुल दाएं बेटी राधिका. बेटा गोकुल अब उनके गार्मेन्ट्स का एक्स्पोर्ट व्यापार संभालता है. बेटी राधिका, इलाहाबाद के मशहूर कोशकार डॊ.हरदेव बाहरी की बहू है. इत्तेफ़ाक़ से वो इन दिनों यही है और उससे भी मुलाखात हुई. पूरा परिवार संगीत में आकंठ डूबा हुआ है. सबकी अपनी-अपनी रुचियां है‍ लेकिन इतनी भी भिन्न नहीं कि आप एक दूसरे को पहचान न सकें.
कक्कड़ साहब एक सादगी पसंद व्यक्ति हैं और जब से उन्होंने होश संभला तब से वो फ़िल्म संगीत और फ़िल्मों के दीवाने हैं. उनके पास दुर्लभ संगीत का ख़ज़ाना है. वे डीवीडी और वीसीडी पर पुरानी से पुरानी फ़िल्में आज भी लाते-सहेजतेऔर देखते हैं. उनके रहने के कमरे में अलमारियां कैसेट्स, सीडीज़ और डीवीडीज़ से भरी हैं. फिर ये भी नहीं कि अल्लम-ग़ल्लम कूड़ा उन्होने जुटाया है. उनके संग्रह और चयन में उनकी सौंदर्यप्रियता झलकती है. पुराने एलपी और ईपी उनके कानपुर वाले उस घर में ज़ब्त कर लिये गये जिसमे‍ मकानमालिक ने उन पर शरारतन मुक़दमा क़ायम करके उनका जीना मुश्किल कर दिया था. तब उसी घर में फ़िल्म इंडिया के पुराने अंकों की सैकड़ों प्रतियां भी ज़ब्त हो गयी थीं. कहते हैं कि मैने मकान मालिक के हाथ-पैर जोड़े लेकिन कुछ भी वापस नहीं मिला.
नोएडा के जिस मकान में आज वो रहते हैं उसकी मकान मालकिन थोड़ी सहृदय है और वो भी उस संगीत को पसंद करती है जो कक्कड़ जी की दीवारों से छनकर उसके बाथरूम मे पहुंचता है.
कक्कड़जी का ज़्यादातर समय पुरानी फ़िल्में देखने, एफ़एम गोल्ड पर पुराने गाने सुनने और बच्चों के बच्चों की संगत में गुज़रता है. एक संगीत प्रेमी परिवार कितना सहज और आत्मीय हो सकता है इसका अंदाज़ा आपको कक्कड़जी के परिवार से मिलकर होगा. ख़ुद कक्कड़जी का पूरा व्यक्तित्व बच्चों जैसा निश्छल और निर्दोष है. अपनी ही रौ में वो मुझे यह भी बता गये कि किस तरह गानों की तलाश में वो ठगे गये और इसका कोई मलाल भी उन्हें नहीं है. १९३५-४० से १९५० तक के गाने उनकी पसंद की सूची में सबसे ऊपर हैं. गोकुल को हुसेन बख्श, आबिदा परवीन और नुसरत फ़तेह अली खां बहुत पसंद हैं. एक ग़ज़ल सिंगर चेतन दास को वो बड़ी आत्मीयता से याद करते हैं जिसका फिर कोई अल्बम नहीं आया. ये सब ख़ज़ाना गोकुल को साकेत में किसी जॊर्ज के म्यूज़िक स्टोर से मिला करता था, जो कि अब बंद हो गया है.
कक्कड़ जी कहते हैं कि कुछ गाने ऐसे हैं जिन्हें सुनते हुए वो चुपके-चुपके रोते हैं.
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एक किताब, जिसका नाम फ़िल्मी सितारे है वह भी श्री भूषण कक्कड़ ने मुझे दी है. इसकी चर्चा मैं सुबह यहां कर चुका हूं. पेश है कक्कड़ जी से प्राप्त गानों की कुछ संकलित सीडीज़ में से सुरिंदर कौर का गाया फ़िल्म शहीद का गीत. फ़िल्म में कामिनी कौशल और दिलीप कुमार थे. संगीत ग़ुलाम हैदर का और गीत क़मर जलालाबादी का है. इसका वीडियो हाल ही में यहां पेश किया गया है.

बदनाम ना हो जाए मोहब्बत का फसाना...

Sunday, December 23, 2007

हिंदुस्तानी साज़ों के रंग- दो


अब इस बात पर बहस होने लगे तो कोई ताज्जुब नहीं होगा कि मोरचंग को हिंदुस्तानी साज़ कहें या न कहें. बहस चलती रहेगी और हम इसे हिंदुस्तानी कह कर इसका लुत्फ़ उठाते रहेंगे. अब देखिये कि पर्कशन साज़ों में मुँह का इस्तेमाल थोडा कम ही होता है, लेकिन इस साज़ से जो आवाज़ निकलती है उसमें इंसानी धडकनों का कितना हिसाब-किताब मौजूद है. मुझे हमेशा से मोरचंग एक अनप्रिडेक्टेबल मोडों और मंज़िलों का साज़ लगता है. अगर पीडा का कोई सच्चा वाद्य हो सकता है तो वो मोरचंग है. दक्षिण भारतीय शास्त्रीय और लोक दोनों प्रकार के संगीत में इसकी मौजूदगी कोई नयी बात नहीं है और दूसरा इलाक़ा राजस्थान है जहाँ के माँगनियार इसे कसरत से इस्तेमाल करते हैं. देखने में यह कैसा लगता है यह तो आप देख ही रहे हैं.

सुनिये कि यह सुनाई कैसा देता है-

ढोलक के साथ कम्मू ख़ाँ (राजस्थान) की मोरचंग पर बजाई एक धुन का टुक़डा

Thursday, December 20, 2007

"टूटी हुई बिख्ररी हुई" अब नये लुक में, उर्फ़ जय ब्लॉगबुद्धि


जिस दिन बंबइया ब्लॉगरों ने विकास को तलाशा उसी दिन मैंने विकास की ब्लॉगबुद्धि पर अपनी फरमाइश रख दी थी कि मैं अपने ब्लॉग का टेम्प्लेट इसी रंग विधान में कुछ बदलना चाहता हूँ. मैं असल में उस पेज के दोनों तरफ की पट्टियाँ हटाना चाह रहा था. विकास इस बीच अपनी ज़िंदगी की धुन में मगन हो गये शायद, हालाँकि उन्होंने मुझे एक नमूना अगले ही दिन दिखा दिया था...

रात उनका मेल मिला...":O मुझे लगा कि मैं आपको मेल कर चुका हूँ.

अभी थोड़ी देर में भेजता हूँ."


...और थोडी देर में उन्होंने जो भेजा उसी का नतीजा है- यह नया लुक. मुझे तो ठीक लग रहा है, बस बाईं पट्टी पर पहले से मौजूद फोटो थोडे दबने से बच जाएं और वह पट्टी एक स्थाई डिज़ाइन एलेमेंट की तरह अपना प्रभाव छोडती रहे तो मैं ख़ुश हूँ.

अब आप बताएँ यह बदलाव कैसा है. क्या अलग-अलग आकारों और रेज़ोल्यूशन के मॉनीटर इसका स्वागत कर रहे हैं?

Wednesday, December 19, 2007

हिंदुस्तानी साज़ों के रंग- एक

हिंदुस्तानी साज़ों के रंग निराले हैं. ये है नक्कारा, जो उत्तर भारतीय लोक संगीत का अभिन्न हिस्सा है. मांगलिक अवसरों के अलावा यह अनेक अनुष्ठानों में बजता सुनाई देता है. नौटंकी और पारंपरिक संगीत आयोजनों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है. मौसम की नज़ाकत और सटीक धुनों की तलाश में इसे आग जलाकर गर्म करते हुए आपने कभी ज़रूर देखा होगा.

सुनिये कि यह कैसा सुनाई देता है-




फ़ोटो: बीट ऑफ़ इंडिया से साभार

Tuesday, December 18, 2007

साधुवाद और साधुवादी गाना


अक्सर ब्लॉगरों को टिप्पणियों के रूप में साधुवाद मिलता है और अक्सर को नहीं मिलता. मैने नेट पर तलाश किया कि इस वाद के प्रवर्तक-महाशय यानी साधूबाबा का कोई फोटो और गाना है क्या! थोडी सी ही मशक्कत के बाद दोनों मिल गये. पेश हैं. अगर आपको ऐसी साधुवादी टिप्पणी मिले तो इन्हीं की मानियेगा और न मिले तो भी इन्हीं की मानियेगा.



फिल्म: प्रेमनगर (1940)
प्रमुख पात्र: रामानंद, बिमला कुमारी, हुस्न बानू, राय मोहन, नागेन्द्र, सालू और गुलज़ार
निर्देशक: एम भवनानी
संगीत: नौशाद

Sunday, December 16, 2007

आपने सुना होगा कि बेगम अख़्तर एक्टिंग करती थीं !


28 मई 1964 को जब वो मरे तो 16वी सदी की महान कश्मीरी कवियत्री हब्बा खातून पर फिल्म बनाने का उनका ख्वाब भी दफ्न हो गया. रमज़ान ख़ाँ कोई 16 साल की उमर में घर से भागे और बंबई पहुँचे. उन्होंने थोडा समय इंपीरियल फिल्म कंपनी में काम करते हुए गुज़ारा.अली बाबा और चालीस चोर में वो चालीस चोरों में से एक यानी फिल्म में एक्स्ट्रा थे और पीपे में छुपे हुए थे.सागर मूवीटोन में कुछ छोटी मोटी भूमिकाएँ करते रहे. तो भइया काफी पापड बेलने के बाद आखिरकार उन्होंने लाइन पकडी और फिल्म बनाने लगे. 1935 में उन्होंने अपनी पहली फिल जजमेंट ऑफ़ अल्लाह नाम से बनाई.यह फिल्म् सिसिल बी. डिमीली की फिल्म द साइन ऑफ द क्रॉस से प्रेरित थी.बात हो रही है महबूब ख़ाँ की.

मदर इंडिया को आने में अभी पंद्रह साल थे. इस बीच उन्होंने रोटी बनाई. हाँलाँकि रोटी बनाने तक वो जागीरदार, एक ही रास्ता,औरत और बहन बना चुके थे.उनकी सभी फिल्मों में गहरे सामाजिक सरोकार और ग़रीब-ग़ुरबा को लेकर हमदर्दी दिखती है और अमीरों के प्रति नफरत. महबूब ने फिल्म रोटी 1942 में बनाई. इसमें मशहूर ग़ज़ल सिंगर बेगम अख़्तर (जो तब अख़्तरी बाई फैज़ाबादी के नाम से जानी जाती थीं), मशहूर कथक नृत्यांगना सितारा देवी, अशरफ़ ख़ाँ, चंद्रमोहन और शेख़ मुख़्तार प्रमुख सितारे थे.
फिल्म का संगीत अनिल बिस्वास ने तैयार किया था, जो उस ज़माने में बेहद कलात्मक और आला दर्जे का इंक़लाबी संगीत था. अब अनिल बिस्वास की ज़िंदगी भी कम मरहलों से भरी नहीं थी. वो भी सोलह साल की उमर में बंग्लादेश के अपने बारीसाल वाले गाँव से भाग कर कलकत्ता आ गये थे और कलकत्ता भी आसानी से नहीं पहुच सके थे. उससे पहले वो आज़ादी के आंदोलन में जेल जा चुके थे और कलकत्ता पहुँचने के लिये किराये के पैसे नहीं थे. उन्होंने क़ुलीगीरी की और किसी किसी तरह पहुँचे. वहाँ भी गुज़ारा कैसे होता. वो एक होटल में बरतन माँजने लगे. आज़ादी की लडाई के दिन थे और पिछले केस में आखिरकार फिर पुलिस ने उन्हें पकड लिया.चार महीने जेल में रहे और पिटाई भी ख़ूब हुई. बहरहाल बेहद तकलीफों से भरा जीवन जीते हुए वो संगीत की डोर थामें रहे. जीवन की विसंगतियों और आम जन के जीवन में अपनी आस्था के बलपर अनिल बिस्वास ने अपने संगीत का सौंदर्य कमाया. क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के अलावा बीसियों ऐसे विलक्षण लोग उनके जीवन में आए जिनसे उन्हें अपने संगीत की विशेषता बरक़रार रखने का बल मिला. मेळडी के साथ काउंटर मेलडी का सुंदर सामंजस्य करते हुए उन्होंने अपने सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों को अपने संगीत में गुँजाया.

फिल्म रोटी के गाने आप शायद ही कभी सुन पाएँ, यह सोचकर मैं कुछ गाने आपके लिये पेश कर रहा हूं. दूसरा गाना ही बेगम अख़्तर का है. इन गानों को सुनना आपके लिए एक अद्भुत अनुभव होगा. तो लीजिये सुनिये.


भूख लगी है आ खा अंगारे खा


आ फिर फसले बहार आई


मेघराज आए बरखा लाए


आदिवासी गीत


भर-भर के पिला


ग़रीबों पर दया करके बडा अहसान करते हो, इन्हें बुज़दिल बना देने का तुम सामान करते हो


है मक्कार ज़माना है,मक्कर ज़माना, रहम न खाना

Saturday, December 15, 2007

घुरू घुरू उज्याव है गो

कौन थे गोपाल बाबू गोस्वामी
उत्तराखंड के अल्मोड़ा ज़िले के छोटे से गांव चांदीकोट में जन्मे गोपाल बाबू गोस्वामी का परिवार बेहद गरीब था. बचपन से ही गाने के शौकीन गोपाल बाबू के घरवालों को यह पसंद नहीं था क्योंकि रोटी ज़्यादा बड़ा मसला था. घरेलू नौकर के रूप में अपना करियर शुरू करने के बाद गोपाल बाबू ने ट्रक ड्राइवरी की. उसके बाद कई तरह के धंधे करने के बाद उन्हें जादू का तमाशा दिखाने का काम रास आ गया. पहाड़ के दूरस्थ गांवों में लगने वाले कौतिक - मेलों में इस तरह के जादू तमाशे दिखाते वक्त गोपाल बाबू गीत गाकर ग्राहकों को रिझाया करते थे.

एक बार अल्मोड़ा के विख्यात नन्दादेवी मेले में इसी तरह का करतब दिखा रहे गोपाल बाबू पर कुमाऊंनी संगीत के पारखी स्व. ब्रजेन्द्रलाल साह की नज़र पड़ी और उन्होंने नैनीताल में रहने वाले अपने शिष्य (अब प्रख्यात लोकगायक) गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' के पास भेजा कि इस लड़के को 'देख लें'. गिर्दा बताते हैं कि ऊंची पिच में गाने वाले गोपाल बाबू की आवाज़ की मिठास उन्हें पसंद आई और उनकी संस्तुति पर सांग एंड ड्रामा डिवीज़न की नैनीताल शाखा में बड़े पद पर कार्यरत ब्रजेन्द्रलाल साह जी ने गोपाल बाबू को बतौर कलाकार सरकारी नौकरी पर रख लिया.

यहां से शुरू हुआ गोपाल बाबू की प्रसिद्धि का सफ़र जो ब्रेन ट्यूमर से हुई उनकी आकस्मिक मौत तक उन्हें कुमाऊं का लोकप्रिय गायक बना गया था. जनवरी के महीने में हल्द्वानी में होने वाले उत्तरायणी मेले में निकलने वाले जुलूस में मैने खुद हज़ारों की भीड़ को उनके पीछे पीछे उनके सुर में सुर मिलाते देखा है. "कैले बाजै मुरूली", "घुरु घुरु उज्याव है गो", "घुघूती ना बासा" और "रुपसा रमोती" जैसे गाने आज भी खूब चाव से सुने जाते हैं और कुछेक के तो अब रीमिक्स तक निकलने लगे हैं.
यह परिचय और नीचे मौजूद घुरू घुरू उज्याव है गो का अनुवाद मेरे बेमुर्रौव्वत इसरार पर मुझे अशोक पांडे ने भेजा है. गोपाल बाबू गोस्वामी का एक गीत यहां पहले जारी किया जा चुका है.
तो लीजिये सुनिये गोपालदा का गाया गीत -
घुरू घुरू उज्याव है गो



हौले हौले सुबह की उजास हो गई है
जंगलों में सरसराहट है
बंसुरी के सुर बजने लगे हैं
हौले हौले सुबह की उजास हो गई है

ग्रह्स्वामिनी जागने लगी है
देवीदेवता और हिमशिखर जागने लगे हैं
शिव के डमरू की धमक
मेरे हिमालय में गूंजने लगी है
घंटियां भी टुनटुनाने लगी हैं
हौले हौले सुबह की उजास हो गई है

हाथों में तांबे की गगरियां लिये
सुघड़ नारियां पानी भर लाने को चल दी हैं
रस्ते-बाटों में घुंघरू छ्मकाती इन स्त्रियों की
गगरियों से पानी के छ्लकने की
मीठी आवाज़ निकल रही है
हौले हौले सुबह की उजास हो गई है

Friday, December 14, 2007

बाबा निमवा के पेड़ जिनि काटा

सुनिये, उर्मिला श्रीवास्तव का गाया यह गीत जिसे सुनते हुए रिहर्सल के कई दौरों में हम रोया किये. इसी अल्बम से एक और गाना यहां सुनिये.


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शेफ़ाली भूषण ने जब अपना इंटरप्राइज़ शुरू किया तो उसकी शुरुआत में जो कंम्पाइलेशन्स निकाले उनमें यह पहला अल्बम था. दस ख़ालिस देसी गानों वाली इस सीडी से शेफाली की चयन दृष्टि का बख़ूबी अंदाज़ा लगता है. उन्होंने किसी अंधे शहरी की तरह गाँव के अल्लम-ग़ल्लम संगीत को नहीं सँजोया बल्कि एक निश्चित समझ के साथ संग्रह किया.
श्याम लाल बेगाना, उर्मिला श्रीवास्तव, गोविंद सिंह, आनंदी देवी-संतराम, मनोज तिवारी, बबुनंदन, जवाहर लाल यादव, सुचरिता गुप्ता और मन्ना लाल यादव के अलावा राम कैलाश यादव को भी इसमें सहेजा गया है. पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के समृद्ध लोक गीतों की थाती से यह चयन आपको विविध फॉर्म्स की बानगी देता है. होरी, छपेली, निर्गुन, धोबिया के अलावा इसमें जँतसार का भी एक गीत है. "खाँटी रंग: लोक संगीत के" यही इसे कहा जाना चाहिये.
पैसे कमाने के तो हज़ार रास्ते हैं लेकिन अगर बीट ऑफ़ इंडिया के ज़रिये पैसे भी कमाए जा रहे हों तो मस्त काम है ये. शेफाली और उनके साथियों को शुभकामनाएं.

Thursday, December 13, 2007

घुघूती बासूती

हैरत है कि आधा दिसंबर बीतने को है और अभी तक स्वनामधन्य विश्लेशकों ने कैसा रहा ब्लॉगजगत का 2007 नाम की पोस्टें लिखनी शुरू नहीं कीं. प्रिंट की तमाम बुराइयों का आईना ब्लॉगजगत इससे कैसे अछूता रह सकता है?

उम्मीद कीजिये कि जल्द ही ऐसी हेडिंग्स आपको लुभाती हुई हिट्स बटोर रही होंगी और उनमें हमारा-आपका नाम नहीं होगा. वैसे भी हमें कल रात से किसी और अनुशंसा प्रशंसा की चाहना भी नहीं रह गयी है.
पिछले हफ्ते एक ब्लॉगर जल्दी -जल्दी कुछ ब्लॉग्स के नाम लेते हुए यह बता बता रहे थे कि छ: - सात ब्लॉग्स को छोड दें तो ब्लॉग की दुनिया में गंध मची हुई है. उन चुनिंदा नामों में उनका भी ब्लॉग था. तो यहाँ भी प्रमाणित करने का रोग कम नहीं है और हम इसकी परवाह क्यों करें. मैंने तो मज़े-मज़े में यह खेल शुरू किया है और वह किसी प्रमाणपत्र का मुँह नहीँ जोहता. इतने थोडे से समय में आपने टूटी हुई बिखरी हुई को जितना स्नेह दिया है उससे लगता है कि कुछ सार्थक लग ही रहा होगा. अगर ब्लॉगवाणी की आज तक की रिपोर्ट पर नज़र डालें तो ब्लॉगवाणी ने यहाँ 5,377 पाठक भेजे हैं और 167 लोगों ने इसे पसंद किया है.
बहरहाल कल रात जो प्यार हम सब के प्यारे कवि वीरेन डंगवाल ने मुझे भेजा है वो हज़ार रस्मी तारीफों पर भारी है. महीने भर पहले उदय प्रकाश जी ने त्रिलोचनजी की पोस्टों पर जो कमेंट भेजा था उससे भी हौसला बँधा था. कमेंट वहाँ देखा जा सकता है.

मन थोडा इठला रहा है और इसी इतराहट में लोकप्रिय कुमाऊंनी गायक गोपाल बाबू गोस्वामी का एक गीत आपको भेज रहा हूं. अशोक पांडे ने बताया कि कोई पचपन साल का जीवन गुज़ार कर जब गोपाल गोस्वामी मरे तब तक वो शोहरत का हर रंग देख चुके थे. बताते हैं कि वे कुमाऊं के पहले सुपरस्टार रहे, यह भी कि आगे-आगे गाते हुए जब वे चलते थे तो हज़ारों लोग पीछे-पीछे गाते हुए चला करते थे. तो ये गीत आपके लिये और घुघूती बासूती नामक ब्लॉगर के लिये भी. नीचे जो नोट और अनुवाद है वो अशोक पांडे का है.
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घुघूती कबूतर जैसी एक चिडिया होती है जो बौर आने के साथ ही आम के पेडों पर बैठ कर बहुत उदास तरीके से गुटरगूँ करती है. पहाडी प्रेमिकाएं इसी पाखी के माध्यम से परम्परागत प्रेम का एकालाप किया करती हैं.
बच्चों को सुलाने के लिये भी इस की घुरघुर का प्रयोग माताएं किया करती हैं. बच्चों को पैरों पर बिठा कर
घुघूती बासूती कहते हुए झुलाया जाता है. बच्चे थकने के साथ साथ मज़े भी बहुत लेते हैं.



घुघूती न बोल, घुघूती न बोल
आम की डाली में घुघूती न बोल

तेरी घुर्घुर सुन कर मैं उदास हो बैठी
मेरे स्वामी तो वहां बर्फ़ीले लद्दाख में हैं

भीनी भीनी गर्मियों वाला चैत का महीना आ गया
और मुझे अपने पति की बहुत याद आने लगी है

तुझ जैसी मैं भी होती तो उड के जाती
जी भर अपने स्वामी का चेहरा देख आती

उड जा ओ घुघूती लद्दाख चली जा
उन्हें मेरा हाल बता देना

Wednesday, December 12, 2007

सुनिये: झुलनी का रंग साँचा हमार पिया

बचपन से एक गाना सुनता चला आ रहा हूँ। " झुलनी के रंग साचा हमार पिया" । जब गाँव जाता था तो अक्सर ये गाना सड़क वाले बाज़ार में सुनने को मिल जाता था। या फिर जब हाट वगैरह लगती थी तो भी। कभी कभी ये गाना आकाशवाणी पर भी आता था। इस गाने को आजकल सुनने का बड़ा मन हो रहा है। इस गाने के बारे मे पता लगाया तो पता चला कि इसे इलाहाबाद के एक लोक गायक रमेश बैश्य ने गया है। गायक के नाम के बारे मे मैं सौ प्रतिशत श्योर नही हूँ लेकिन ये बात पक्की है कि उन्हें आँख से दिखाई नही देता था। बहरहाल, जब भी ये गाना सुनता हूँ या गुनगुनाता हूँ, मुझे अपने गाँव की बड़ी याद आती है। अगर गाँव मे होने वाली गन्दी राजनीति और लड़ाई झगडे से बाहर निकलकर खेतों मे अकेले टहला जाय, नहर किनारे जाकर बैठा जाय और गन्ना चूसा जाय तो इस गाने को सुनने और गाँव को महसूस करने का अपना ही आनंद है। मिटटी की वो सोंधी महक, किसी पानी भरे गढ्ढे के बगल से गर्मी की शाम मे गुजरते वक़्त भुने हुए आलू की महक... और फिर से यही गाना गुनगुनाना, झुलनी के रंग साचा , हमार पिया...झुलनी के रंग साचा ....
-wrote a blogger
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इस पोस्ट में मौजूद गाँव का अतिरंजित रूमानी वर्णन भले ही आपको असहमत करता हो लेकिन यह तो है कि जिस गाने को यहाँ याद किया है, उसकी गिनती फिल्मी गानों की बहुतायत के बीच उन थोडे से गानों में होती है जिन्हें फिल्म व्यवसाय की मार्केटिंग कसरतों से बाहर अपनी गुणवत्ता के कारण जनजीवन में जगह मिली. सारी भागदौड के बीच बीस ग्राम निर्गुणी रस हमारी भूख का हिस्सा है जिसे तब ये गाने पूरा किया करते थे और अब कैलाश खेर उसकी छाजन पर हाथ-पैर मारते हैं तो हम लहालोट होते हैं. राहुल ने यह तो ठीक याद किया कि गायक दृष्टिहीन है. लेकिन नाम उसका श्रीकांत है, साथ में महिला स्वर रीना टंडन का है. पॉलीडोर ने ये ईपी
रिकॉर्ड निर्गुन(यूपी फ़ोक) नाम से 1980 में जारी किया था. रिकॉर्ड नम्बर- 2221 947. इसके साइड 1 में गाना था- कहाँ बिताइयऊ गोरी और साइड 2 में झुलनी का रंग सांचा...संगीतकार का नाम हरबंस जैसवाल और गीतकार की जगह भैरव और चन्द्रशेखर था. झुलनी वाले गाने के गीतकारों में भैरव और चंद्र शेखर के साथ कबीर का नाम भी जुडा हुआ था. मैं यहाँ यह गीत जारी करते हुए राहुल और उन जैसे मित्रों को साधुवाद भेजना चाहता हूँ जिन्हें अपनी विरासत के अनमोल मोती अब भी बेचैन करते हैं. तो लीजिये सुनिये झुलनी का रंग साँचा हमार पिया... हालाँकि यह अभी डिजिटली क्लीन किया जाना है लेकिन इसके लिये आपके धैर्य का इम्तहान नहीं लूगा. क्लीन्ड वर्ज़न बाद में.


Tuesday, December 11, 2007

उमा देवी: काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाय...


सुबह जब यूं ही नेट पर भटक रहा था तो नज़र पडी- काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाय...
कहा जाता है कि फ़िल्मी गाने आधुनिक जीवन के लोक गीत ‍हैं. इस कथन को पुष्ट करती यह पोस्ट देखें. १९४८ में महबूब की फ़िल्म अनोखी अदा ने कामयाबी के झंडे गाडे. सुरेन्द्र, नसीम बानो, प्रेम अदीब, कुक्कू, अडवाणी और नवाब इसमें प्रमुख भूमिकाओं मे थे. यह एक प्रेम कहानी थी. नौशाद के संगीत से सजी इस फ़िल्म के गाने बहुत मक़बूल हुए. इतने कि आज किन्हीं ब्लॊगर फ़ुरसतिया के मुताबिक़ लोकगीत बन गये. इसी पोस्ट में उन्होंने काहे जिया डोले के बोल थोडी अशुद्धियों के साथ जारी भी किये हैं और रचनाकार अज्ञात बताया है.
आप जानते हैं कि शकील बदायूनी कोई अज्ञात शायर नहीं हैं लेकिन कई बार स्मृतियों में कोई चीज़ ऐसी जगह बना लेती है जिसे तथ्य के बजाय मिथक मानना अच्छा लगता है.
अनोखी अदा में कुल बारह गाने थे जिनमें से कुछ अंजुम पीलीभीती ने लिखे थे. सुरेंद्र, मुकेश और शमशाद बेगम के अलावा इस फ़िल्म में उस ज़माने की उभरती हुई गायिका उमा देवी ने गाने गाये थे. यह काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाय... गाना भी उमा देवी का गाया है जिन्होंने १९४७ की फ़िल्म वामक़-अज़रा से अपनी फ़िल्मी पारी शुरू की थी और बाद में आप उन्हें टुनटुन की शक्ल में हास्य भूमिकाएं करते हुए देखते हैं. यहां आप सुनेंगे उमा देवी का गाया वामक़ अज़रा का वह गीत, जिससे उन्होंने शुरुआत की. आप वह गाना भी सुनिये जिससे मुझे यह पोस्ट लिखने की ज़रूरत जान पडी.
एक और गीत जिसका ज़िक्र श्री फ़ुरसतिया ने किया है - यानी छापक पेड... उसे मैं यहां पहले जारी कर चुका हूं.

दुनिया से मिटाएं मुझे या दिल से भुलाएं...फ़िल्म: वामक़ अज़रा


काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाय...फ़िल्म : अनोखी अदा

Monday, December 10, 2007

ये हैं त्रिलोचनजी: मृत्यु से कोई दस घंटे पहले लिखने की कोशिश में


Trilochan, December 9,2007 Morning
Photo: Pankhuri Singh

जो नहीं सुन पाए त्रिलोचन की बातें


त्रिलोचन जी से मुलाक़ात का सचित्र विवरण और उनकी कुछ रचनाएँ आप पहले भी यहां पढ चुके हैं.
लीजिये सुनिये कोई बारह साल पुरानी रिकॉर्डिंग का एक हिस्सा. बातचीत कर रहे हैं समकालीन जनमत के संपादक रामजी राय और बीच में एक आध सवाल चन्द्रभूषण के हैं. यह जमावडा जनमत के बी-30, शकरपुर वाले ऑफ़िस में रोज़ कुछ नये गुल खिलाता था.
रिकॉर्डिंग की दयनीय अवस्था हमारी मुफ़लिसी और शानदार फ़क़ीरी का दस्तावेज़ है. सुनते समय क्लैरिटी का अभाव महसूस हो तो बूढ-पुरनियों की बात का स्मरण कीजियेगा कि 'घी का लड्डू टेढै भला.'


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Dur. 29Min 43Sec

वरिष्ठ कवि त्रिलोचन से बातचीत का शुरुआती हिस्सा आप सुन चुके हैं. अब सुनिये इस बातचीत का दूसरा हिस्सा. साउंड में क्लैरिटी का अभाव है, इसके लिये हमें खेद है.
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यह पोस्ट 29 और 30 नवंबर, 2007 को यहाँ जारी की जा चुकी ह. त्रिलोचन जी को श्रद्धांजलि स्वरूप पुनः उनकी स्मृति को समर्पित.