टूटी हुई बिखरी हुई
क्योंकि वो बिखरकर भी बिखरता ही नहीं
दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।
Monday, June 11, 2007
अश्क का दश्क
उपन्यासकार ओपिन्द्रानाथ अश्क
हिन्दी उचार्नों की करते रहे मश्क
घूम आये दूर-दूर
देस लौटे थके चूर
ग़लत, हाय! गल्त रहा बीत गया दश्क !
2 comments:
Avinash Das
said...
khush-aamadeed...
June 12, 2007 at 8:54 AM
Divine India
said...
आमीन!!!
June 12, 2007 at 11:13 PM
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2 comments:
khush-aamadeed...
आमीन!!!
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