दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Friday, December 5, 2008

गंदे गाने: एक श्रृंखला...तोहके गोली नाही मरबई हो पियाराऊ...

शुद्धतावादियों से क्षमा सहित.
नोट: यहाँ लिखने के लिए गूगल के ट्रांसलिटरेशन टूल से काम ले रहा हूं। चूकें नज़र अंदाज़ करें।


Thursday, December 4, 2008

गंदे गाने: एक श्रृंखला... माल बाटे मोर चोखा

भोजपुरी गानों की एक पूरी दुनिया अब लुट चुकी है। उन गानों का स्थान अब अप्रिय गानों ने ले लिया है। एक दौर में एच एम वी और दूसरी बड़ी रिकार्ड कम्पनियों ने जिस संगीत से बहुत पैसा कमाया और जिस संगीत के बीच हमारे हमारे कान जवान हुए उनकी एक बानगी। भाई अफलातून से ध्यान देने के आग्रह के साथ।

पहले लड़का दिखाओ फिर शादी करूंगी...

कल बहुत जद्दो जहद के बाद भी मेरी समस्या हल न हो सकी। आखिरकार पुरानी तरकीब पर ही भरोसा करना पडा है। हालांकि अब भी अगर कोई सस्ता तरीका हो तो बताएं।




माहजबीं रंगीली कव्वाल और साथी

Wednesday, December 3, 2008

बेटा हो जा जवान तेरी शादी करूंगा...


आजकल शादियों का मौसम है और हम रोज़ ही इससे जन्मे जाम का मज़ा चख रहे हैं.आप न चख रख रहे हों तो आप सुन सकते हैं दूल्हे के बाप का संकल्प.
यह पोस्ट आप तक पहुंच रही है विकाश की मदद से. यह कव्वाली विकाश को ही समर्पित है.



कादर रंगीला कव्वाल और पार्टी

Tuesday, December 2, 2008

बताइये क्या करुँ?

बहुत दिनों बाद ब्लॉग जगत की सुध ली तो पता चला की लाइफलागर काम नहीं कर रहा है. अशोक जी से पूछा तो उन्होंने दिव्शेयर का रास्ता बताया.प्लेयर मुझे भी पसंद है लेकिन यह मुझे एम्बेड कोड नहीं दे रहा है. बताइये की कुछ गाना वाना यहाँ डालने के लिए सस्ता सुंदर और टिकाऊ रास्ता क्या है?

Saturday, November 15, 2008

टू इन वन: रामबाबू तैलंग की आवाज़ में सुनिए के एल सहगल और बेगम अख्तर की आवाज़

हम रामबाबू तैलंग को शायद ही कभी जान पायेंगे। कोई बारह साल पहले हमारे दोस्त सत्या शिवरामन जब अपने वतन सागर गए तो उन्हें अपने यार मुन्ना शुक्ला के ज़रिये इन महाशय के बारे में पता चला। रामबाबू तैलंग तब कोई नब्बे साल के थे और अगर अभी जीवित हैं तो हम उनकी लम्बी उम्र की कामना करते हैं। आकाशवाणी लखनऊ में केन्द्र निदेशक रहे रामबाबू शास्त्रीय संगीत में निपुण हैं और इस क्षेत्र में उनकी दीक्षा पंडित डी वी पलुस्कर के अधीन हुई है। सत्या का कहना है की इस तरह के विलक्षण लोग अपनी व्यक्तित्वगत समस्याओं, असुरक्षा आदि के कारण अपनी इन नैसर्गिक शक्तियों का विकास नहीं कर पाते। शुरू से ही रामबाबू गुज़रे ज़माने के महान गायक कुंदनलाल सैगल के गाये गीतों को हूबहू गानेवालों में गिने जाते रहे हैं. न सिर्फ़ सैगल बल्कि बेगम अख्तर की भी नक़ल वो बखूबी उतार लेते हैं,अपनी ख़ुद की चीज़ें तो वो बेहतरीन गाते ही हैं.
पेश है सागर की एक महफ़िल में गाई रामबाबू की यह ग़ज़ल. यहाँ रामबाबू की एक और खासियत का ज़िक्र करना बुरा न होगा. सत्या बताते हैं की सैगल की कई ऐसी रचनाएं जो की अधूरी थीं, उन्हें रामबाबू ने पूरा लिखा और फिर उन्हें गाया,


Tuesday, August 26, 2008

प्यास थी फिर भी तक़ाज़ा न किया...


2 मार्च 2007. नई दिल्ली का इंडिया इंटरनेशनल सेंटर. यहाँ 88 साल पूरे कर चुके मन्ना डे रुके हैं. दूरदर्शन के सेंट्रल आर्काइव्स की डायरेक्टर कमलिनी दत्त ने योजना बनाई है कि उनके साथ एक लंबा इंटरव्यू किया जाय. इंटरव्यू मुझे और जसलीन वोरा को करना है. दिल एक ज़िम्मेदारी और ख़ुशी में धडक रहा है. सुबह के नौ बजे हैं और हम सारे तामझाम के साथ आइआइसी के लॉन में मौजूद हैं. दो कैमरे और तमाम ज़रूरी तैयारियाँ. पता चलता है कि दादा को आज के अप्वॉयंटमेंट की याद भी नहीं है. पिछली रात नेहरू पार्क में एक पर्फ़ॉर्मेंस दे चुके हैं और खुले आसमान के नीचे देर रात तक गाने से तबीयत भी कुछ अच्छी नहीं है. ये जाती हुई सर्दियों की चटख़ धूप के दिन हैं और देर होने से धूप में शूटिंग बहुत अच्छे नतीजे नहीं देगी. दादा को यह परेशानी भी है कि टीवी वाले बडे ही सतही सवाल पूछते हैं जैसे कि "दादा आपने गाना कब शुरू किया?" या "आपके फ़ेवरिट सिंगर कौन हैं?" उन्हें भरोसा दिलाया गया है कि आपको बातचीत में मज़ा आएगा. दादा ने 20-25 मिनट का वक़्त दिया है.
अब देखिये कि बात शुरू होती है और दो घंटे चलती है. कोई हडबडी नहीं है दादा को और वो ख़ूब डूबकर गुज़रे ज़माने को याद करते हैं. साथ में उनकी पत्नी सुलोचना हैं जो बीच-बीच में कुछ एनेक्डोट्स भी शेयर करती हैं.
बातचीत तो आप कभी दूरदर्शन पर ज़रूर ही देख लेंगे...फ़िलहाल उसी वीडियो से ग्रैब की हुई कुछ तस्वीरें देखिये और सुनिये मन्ना डे का गाया बूट पॉलिश फ़िल्म का वो गीत जिसे आपने यूँ तो कई बार सुना होगा लेकिन ये वाला वर्ज़न अल्बम्स में कम ही मिलता है.
यहाँ मैं मन्ना डे के गुरू और सगे चाचा, फ़िल्म गायकी के पितामह, केसी डे की गाई एक दुर्लभ नात भी पेश कर रहे हैं क्योंकि केसी डे के ज़िक्र के बग़ैर मन्ना डे का ज़िक्र पूरा नहीं होता.

ऊपर के फ़ोटो में बाएं से वेद एम राव, कमलिनी दत्त, कुबेर दत्त, मन्ना डे और इरफ़ान
















लपक-झपक तू रे बदरवा...



केसी डे की गाई एक नात


अब चूँकि प्रत्यक्षा ने फ़रमाइश कर ही दी है तो लीजिये पेश है 1974 में आई फ़िल्म आलिंगन में मन्ना डे का गाया जाँनिसार अख़्तर का लिखा और सपन जगमोहन का संगीतबद्ध किया गीत.हालाँकि मुझे लगता है कि इस गीत को अबरप्टली ही काट दिया गया है लेकिन जितना भी है, यादगार है.

प्यास थी फिर भी तक़ाज़ा किया...

Sunday, August 24, 2008

सभी लोग और बाक़ी लोग

पेशे से चिकित्सक डॉ. संजय चतुर्वेदी हिंदी कविता में आए और जल्द ही चले गये. संक्षिप्त उपस्थिति में ही उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दिया. क्यों अब वे कविता की दुनिया में सक्रिय नहीं हैं, बहुत दिनों से उनसे मुलाक़ात नहीं हुई कि जान सकूँ. बहरहाल उनकी एक कविता पढिये-




सभी लोग बराबर हैं
सभी लोग स्वतंत्र हैं
सभी लोग हैं न्याय के हक़दार
सभी लोग इस धरती के हिस्सेदार हैं
बाक़ी लोग अपने घर जाएँ

सभी लोगों को आज़ादी है
दिन में, रात में आगे बढने की
ऐश में रहने की
तैश में आने की
सभी लोग रहते हैं सभी जगह
सभी लोग, सभी लोगों की मदद करते हैं
सभी लोगों को मिलता है सभी कुछ
सभी लोग अपने-अपने घरों में सुखी हैं
बाक़ी लोग दुखी हैं तो क्या सभी लोग मर जाएँ

ये देश सभी लोगों के लिये है
ये दुनिया सभी लोगों के लिये है
हम क्या करें अगर बाक़ी लोग हैं सभी लोगों से ज़्यादा
बाक़ी लोग अपने घर जाएँ.


संजय चतुर्वेदी
प्रकाशवर्ष संग्रह की पहली कविता

Monday, August 18, 2008

चमन में रहके वीराना मेरा दिल होता जाता है...

विष्णु खरे हिंदी कविता के जाने-माने नाम तो हैं ही, कुछ और चीज़ों में भी उनकी गहरी दिलचस्पी है. कोई दो साल पहले मैंने उनसे हिंदी फ़िल्मी गानों पर बात करने के लिये 15-20 मिनट का समय चाहा था. बात चली तो हम कोई दो घंटे इस विषय पर बतियाते रहे. तब मैं ब्लॉग नहीं लिखता था और बाद में उस बातचीत से समृद्ध मेरी यह टिप्पणी अविनाशजी ने अपने ब्लॉग पर जारी भी की थी.

बहरहाल आज उस संदर्भ की याद सिर्फ़ इसलिये ताज़ा हो आई कि यह गीत(नीचे सुनें) सुन रहा था तो विष्णु जी के शब्द कानों में गूँज उठे- "अ हा हा...चमन में रहके वीराना मेरा दिल होता जाता है...गर्मियों की किसी दोपहर में कभी इस गीत को सुनिये तो लगेगा कि एक वीरानी सी छाने लगी है"

शमशाद बेगम आज भी हमारे बीच हैं और अच्छा लगता है ये सोचकर कि आज रात जिस चाँद को उन्होंने नज़र उठाकर देखा होगा उसे हमने भी देखा.




चमन
में रहके वीराना मेरा दिल होता जाता है...


Thursday, August 14, 2008

ई का कईला हरकतिया सुताय के रतिया

ग़ैर फ़िल्मी गीतों का एक झरोखा यहाँ पहले भी खुलता रहा है. आज सुनिये नसीम बानो की आवाज़ में यासीन नज़म का लिखा ये गीत.

लगाय के छतिया...

Wednesday, August 13, 2008

क्यों खींचता है ये भजन बार-बार मुझे!


कोई साल भर पहले अपनी पसंद के संगीत की शृंखला में मैंने यह भजन आपसे शेयर किया था. पता नहीं क्यों आज फिर दिल कर रहा है कि इसे आपसे साझा करूँ. सुनिये-


Wednesday, August 6, 2008

राजीव सक्सेना पर केंद्रित एक विशेष कार्यक्रम

कल ऍफ़ एम गोल्ड ने राजीव सक्सेना पर केंद्रित एक विशेष कार्यक्रम सुबह ग्यारह से बारह बजे तक पेश किया । आकाशवाणी के लिए यह एक अहम फैसला माना जाएगा। सुनिए

Part-1(Approx 30 min)


Part-2 (Approx 30 min)


इस कार्यक्रम को Unedited सुनने के लिये यहाँ और यहाँ जाएँ.

Wednesday, July 30, 2008

अमिताभ कुमार से बातचीत की एक झलक

अमिताभ कुमार मशहूर अंग्रेजी लेखक और पत्रकार हैं. हमारे उनके रिश्ते घरेलू और राजनीतिक हैं. कोई बारह साल पहले जनमत के दफ्तर में उनसे लम्बी बातचीत की भाई चंद्रभूषण ने. सुनिए उस बातचीत की एक झलक. अगर इसमें कोई सब्सटांस पाएं तो कहें. फिर मैं पूरी बातचीत जारी करूंगा.

Thursday, July 24, 2008

लेनॉर्ड कोहेन का एक गीत और उसका मनमाना अनुवाद


लेनॉर्ड कोहेन: एक संक्षिप्त परिचय


हर कोई जानता है
कि फेंके जानेवाले पासे
नक़्क़ालों ने बनाए हैं

हर कोई चुप की ज़ंजीर में लिपटा डोलता है
हर कोई जानता है कि लडाई ख़त्म हो चुकी है
और भले लोग लडाई हार चुके हैं

हर कोई जानता है कि
लडाई फ़िक्सिंग का हिस्सा थी
जिसमें ग़रीब को और ग़रीब

और अमीर को और अमीर होना है
और ये सब इसी तरह चलना है

हर कोई जानता है कि नाव में छेद है
और ये भी कि नाविक झूट बोल रहा है
हर किसी के पास अपने पिता की मौत की यादें हैं
और उस कुत्ते की भी
जो अभी-अभी मारा गया

हर कोई अपने बैंक बैलेंस की बातें करता है
हर कोई चाहता है डिब्बाबंद चॉकलेट और एक गुलाब का फूल
हर कोई हमारे प्यार के बारे में जानता है
और ये भी कि
तुम कुछ छुपा रही हो

हर कोई जानता है कि प्लेग तेज़ी से फैल रहा है
फैलता ही जा रहा है

हर कोई दो नंगे जिस्मों की
तारीख़ी हैसियत से वाक़िफ़ है

लेकिन इस थके हुए नज़ारे की तडप
हर किसी को दीवाना बनाती है

मेरे
टूटे हुए दिल की किरचों को देखो
हर कोई जानता है मेरा दुख

अनुवाद: इरफ़ान


Everybody knows...





Everybody knows that the dice are loaded
Everybody rolls with their fingers crossed
Everybody knows that the war is over
Everybody knows the good guys lost
Everybody knows the fight was fixed
The poor stay poor, the rich get rich
Thats how it goes
Everybody knows

Everybody knows that the boat is leaking
Everybody knows that the captain lied
Everybody got this broken feeling
Like their father or their dog just died

Everybody talking to their pockets
Everybody wants a box of chocolates
And a long stem rose
Everybody knows

Everybody knows that you love me baby
Everybody knows that you really do
Everybody knows that youve been faithful
Ah give or take a night or two
Everybody knows youve been discreet
But there were so many people you just had to meet
Without your clothes
And everybody knows

Everybody knows, everybody knows
Thats how it goes
Everybody knows

Everybody knows, everybody knows
Thats how it goes
Everybody knows

And everybody knows that its now or never
Everybody knows that its me or you
And everybody knows that you live forever
Ah when youve done a line or two
Everybody knows the deal is rotten
Old black joes still pickin cotton
For your ribbons and bows
And everybody knows

And everybody knows that the plague is coming
Everybody knows that its moving fast
Everybody knows that the naked man and woman
Are just a shining artifact of the past
Everybody knows the scene is dead
But theres gonna be a meter on your bed
That will disclose
What everybody knows

And everybody knows that youre in trouble
Everybody knows what youve been through
From the bloody cross on top of calvary
To the beach of malibu
Everybody knows its coming apart
Take one last look at this sacred heart
Before it blows
And everybody knows

Everybody knows, everybody knows
Thats how it goes
Everybody knows

Oh everybody knows, everybody knows
Thats how it goes
Everybody knows

Everybody knows

Wednesday, July 23, 2008

यूट्यूब पर मेरा पहला वीडियो

आज सोचा की यूट्यूब के ज़रिये आप तक एक गीत पहुँचाऊँ। तो लीजिये मधुबाला की फ़िल्म से ये मजेदार गीत । फ़िल्म का नाम नहीं मालूम।



ये आवाज़ें किसकी हैं !


अमीर ख़ुसरो की यह रचना आपके साथ शेयर करने का मक़सद महज़ ये जानना है कि इस गीत में आवाज़ें किसकी हैं!



अच्छे बन्ने मेहँदी लावन दे रे...

Monday, July 21, 2008

असीमुन बीबी: आवाज़ की जादूगरनी


गाँव-गाँव तक गाने-बजानेवाले मौजूद हैं. जितना ज़्यादा अपनी धरती और अपने लोगों के बारे में जान पाता हूँ, मन में उतनी ही ज़्यादा सहानुभूति और करुणा उन गायकों के लिये उभरती है जो बाज़ार में आकर खडे हो गये लेकिन समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करें. मुज़फ़्फ़र अली, ज़िला ख़ान, कैलाश खेर, शुभा मुद्गल और कभी-कभी आबिदा परवीन भी जिस चमत्कार की नाकाम कोशिश करती हैं वो हिंदुस्तान की मिट्टी में खोया हुआ है.
कोई बीस साल पहले अपनी इसी खोजबीन में मुझे असीमुन बीबी हाथ लगी थीं जो उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ के किसी छोटे से गाँव में अपनी दो अन्य सहयोगी गायिकाओं के साथ उन दिनों घर-घर जाकर काज-परोजन में गाया करती थीं. बताया जाता है कि अवध की किसी रियासत से उनके तार जुडे हुए थे जहाँ वे महफ़िलों में गानेवाली ट्रेंड गायिका थीं. सादे से छोटे ढोलक और उतने ही छोटे अजीब दिखने वाले हारमोनियम गले में लटकाए वो पहुँच जाया करती थीं और आल्थी-पाल्थी मारकर गाने में जुट जाती थीं. वो घर के सदस्यों की तरह ही सम्मान और अपनेपन की हक़दार थीं. उनके कपडे और साज़ सभी हल्दी और लहसुन की ख़ुशबुओं से सने होते और उनकी आवाज़ में शास्त्रीयता और लोक की जटिल मिलावट पाई जाती. आपको सुनाता हूँ असीमुन बीबी के गाए दो छोटे टुकडे-

अरब में लाला हुए हैं...


सनन-नन-नन-नन-नन...


फ़ोटो: साभार रेशियोजूरिस

Tuesday, July 15, 2008

आइये आज मिलते हैं राजीव सक्सेना से!

आप अगर एफ़एम सुनते हैं तो राजीव सक्सेना का नाम आपके लिये बेहद जाना पहचाना नाम है. पुरानी दिल्ली के बाज़ार सीताराम में जन्मे राजीव आजकल एफ़एम गोल्ड पर प्रोग्राम करते हैं.वे क्रिकेट कमेंटरी, रेडियो स्पॉट्स, गणतंत्र दिवस के सीधे हाल-हवाल औए कई विशेष कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग करते हुए आपको सुनाई देते हैं. आइए सुनते हैं कि यह बोलती हुई आवाज़ क्या महज़ बोलने में यक़ीन रखती है, या सोचकर बोलती है! 1978 में आकाशवाणी पर युववाणी से शुरुआत करने वाले राजीव सक्सेना आज रेडियो के लोकप्रिय प्रेज़ेंटर हैं. एक ज़माने के धुरंधर ब्रॉडकास्टरों- देवकीनंदन पांडे, मेल्विल डी मेलो, जयनारायण शर्मा, मिस मेहरा , सीतांशु भादुडी, पुष्पा नटराजन,देवेंद्र सक्सेना, विपिन मित्तल और गुलशन मधुर का दौर देख चुके राजीव के साथ काम करना मेरे लिये सौभाग्य की बात है क्योंकि इस तरह आप नये और पुराने का सामंजस्य करना सीखते हैं. तो आइये शुरू करते हैं राजीव सक्सेना के पेश किये हुए एक कार्यक्रम की एक झलक से. यह विशेष कार्यक्रम विजयदीपक छिब्बर के साथ काम करते हुए राजीव ने अशोक कुमार की मृत्यु के तुरंत बाद एफ़एम गोल्ड पर पेश किया था. इसे तब विग्यान भवन में हुई एक श्रद्धांजलि सभा में भी सुनाया गया था. ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना... XXXXXXXXXX राजीव सक्सेना से बातचीत पार्ट-1 (approx 30 min) राजीव सक्सेना से बातचीत पार्ट-2(अंत तक) (approx 30 min)

Monday, June 30, 2008

छिब्बरजी अब बंबई में हैं!


विजय दीपक छिब्बर के साथ अभी पिछले हफ़्ते कोई सात बरसों से चला आ रहा लगभग रोज़ का सिलसिला टूट गया। वो अब ट्राँसफ़र होकर बंबई पहुँचे हैं और विविध भारती के साथ बतौर प्रोग्राम एग्ज़ीक्यूटिव काम करेंगे. इस तरह अब शायद हमारे आपके साथी ब्लॉगर यूनुस उनकी आगे की ख़बर हम तक पहुँचाएंगे. नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से प्रशिक्षित विजय दीपक छिब्बर फिल्मों-नाटकों और टीवी धारावाहिकों में काम करते हुए आख़िरकार जिस एक पायनियरिंग भूमिका के लिये याद किये जाएँगे, वो है नए एफ़एम रेडियो में प्रोग्रामिंग का सूत्रपात. उनके एक और सहयोगी दानिश इक़बाल इस काम में बराबर के हिस्सेदार हैं और इस तरह ये दो मूरतें तब तक जय और बीरू की तरह दिखती रहीं जब तक एफएम प्रसारण का नया मुहावरा गढ नहीं लिया गया. उसी नींव पर आज एफ़एम फल-फूल रहा है, ये अलग बात है कि प्रोग्रामिंग को बाज़ार ग़ैर-ज़रूरी मानता है.

कोई तीन साल पहले मैंने एक रिसर्च के सिलसिले में छिब्बरजी से एक लंबा इंटरव्यू किया था जिसे आज तक आपसे शेयर नहीं कर सका हूँ. कुछ तो शायद इसलिये कि इसे चापलूसी के ख़ाने में न रख दिया जाय और दूसरा इसलिये कि ब्लॉग और उसके ज़रिये शेयरिंग का मंच भी हाल ही की घटना है.
मैंने छिब्बरजी (यही हम उन्हें कहते आए हैं) के साथ काम करते हुए बहुत कुछ सीखा है और आगे भी ऐसे मौक़े हासिल करना चाहूँगा. ऐसा नहीं है कि उनसे हर बात पर सहमति ही रही हो, कई मौक़ों पर हम तीखी-बहसों में भी उलझे, जिनका मक़सद कभी प्रोग्राम तो कभी अपनी सोच में क्लैरिटी लाना रहा है.पिछले पुस्तक मेले में अशोक पांडे द्वारा अनूदित वैन गॉ की आत्मकथा से वो बडे प्रभावित हुए(अशोक ने अपनी मुलाक़ात के दौरान ये किताब उन्हें भेंट की थी) और अशोक तक अपनी बधाई भेजने को कहा, जो बधाई मैं इस पोस्ट के ज़रिये अशोक तक पहुँचाता हूँ. मुझे आज यह सोचते हुए अच्छा लगता है कि जब एफएम का दूसरा चैनेल देश में शुरू हुआ तो कई नये प्रोग्राम्स की सोच को अमली जामा पहनाने की ज़िम्मेदारी मुझे दी गई. मैं इस पोस्ट के ज़रिये छिब्बर जी की शख़्सियत और उनके निजी अनुभवों को सामने लाने के अलावा उनके उस विश्वास के प्रति सम्मान ज़ाहिर करना चाहता हूँ जो उन्होंने मुझ पर किया।




Part-1 12min


Part-2 7min


Part-3 18min


Part-4 7min


Part-5 4min


Part-6(Last) 27min

Sunday, June 29, 2008

आदमी का तीन बटा चार उर्फ़ तीन-चार आदमियों में मैं नहीं हूँ!


आदमी किसी आदमी की तरह नहीं था. उसे अपने आदमी होने पर शक से भी अधिक शक होता था. और जैसे-जैसे शक होता था, वह अपने थैले से गोबर निकाल कर फेंकता था. उत्तर में अक्सर दक्षिण से कभी फतुहावाली और कभी जगेसरी की भौजाई का आँचल सामने आ जाता था. का रे बउवा एही ठीं खरा है...खरे-खरे पिसाबौ नहीं किया? कुछ कर रे दइजरा! एतना सब छाँगुर, अछैबर और ननकू कुल अपन-अपना पतोहू के लेके चल गइलन...दू-दू गो, तिन-तिन गो छोहडा-छोहडी आँगन में टट्टी करता है....
...मन देखके जुडा जाता है.केतना निम्मन दिरिस्य देखाला.
आदमी हर बार इन बातों को हिंदी समाज के उडबुकाए-गबरचौथ का नाम देता और बदले में अपने बिग्यापोन से अपनी फोटो बदल देता. फोटो बदलकर जितना चैन उसे मिलता उतना ही चैन अनिस अंबानी को "सैस्वर्या राय की जाँघ" कहने में मिलता. कब-कहाँ और कैसे की तकलीफदेह पडताल में देह सबसे सार्थक ध्वनि थी जिसके आगे एक और फोटो था. फोटो का होना उसके न होने से बेहतर था/थी/थे और हिंदीवाले अपने नीम नशे में विभाग और पुरस्कार कर रहे थे. कभी-कभी कुछ कवि और विचारक अपने सुलझे विचारों को उलझाने में इतना प्राणायाम करते कि बथुआ का साग भी उन्हें उतना एनेर्जी नहीं देता था. गोभी-पोलाओ एक नई ईजाद था और उसे न खाने का अफ़सोस कभी गेलिसवाली पतलूनों और कभी सिगरेट जलाने की अदाओं से जुदा था.अब अदाकारी की कोई पप्पू ही सीमा तय कर सकता है और मैं भी पप्पू नहीं हूँ कि आप ही पप्पू नहीं हैं...इसे आप जाने न जानें...आदमी ज़रूर जानता है.

इस पोस्ट में गोभी पुलाओ का संदर्भ अज़दक से साभार है.

Thursday, June 26, 2008

मेरी ब्लॉग का नाम है- "गदगद" उर्फ़ हाय राम! आर्ट ऑफ़ रीडिंग वाले मेरा कोई पोस्ट काहेला नहीं चढाते?


अचकचाए हुए चिरगिल्ली मुस्कान माथा पर सजाए पहुँच तो गए सितामढी की लल्लन टाकिज में,लेकिन देखे छोहडा सब परसाद की आस में खडा है. पता नहीं कहाँ से मिर्जापुर और नबाबगंज से आ गया था सब. भऊजी ने बोलीं कि हम पकाए हैं बथुआ का साग, लेकिन हम कहे कि हम तो बस गोभी पुलाओ खाएँगे. माथा से पसीना पोछे तो निरंजन भी लगा नकल उतारने. हमको गुस्सा आ गया लेकिन हमहूँ कहे ससुर तुम हिदीवाले कभी सुधरोगे नहीं.सत्तू का बास मुंह से छोडा नहीं रहा है और चले हो मैक्डोनल का पीजा खाने? बिछौना पर अलाय-बलाय रख के जब दुलरुआ राहुलजी अपना नयका मर्सीडीज पर चलने लगे तो हम बोले कि भाई एतना हिलकोरी मत दिखाइये सिपाही दू डंटा लगाएगा और भित्तर ढुका देगा काहेकि पंजाब केसरी पढने में बस घर का अंदर निम्मन लगता है "ऎंड हाऊ योर कॉंशस एल्लाउइंग टु सिट इन अ मर्सिडीज विथाउट वोग? नेभर रीड पंजाब केसरी इन अ लक्झोरी कार."
लल्लन टाकीज वाला सब बुडबकै है. कितना बार कहे कि आप लोग इज्बान आउस्माकी, हेजीन कोबोल और जियोवानी इताल्लो का पिच्चर सब मंगवाइये इससे परगती का निसानी होता है लेकिन बुझाता उसको नहीं है.झोला में झालमुडी भर के लाता है और उसी का नस्ता करता है. परतीकवा भी उन्हीं के साथ हें-हें करता है और बारिस में बतकुन्नी का चुन्नी उढाता है. तुम्हरे बापौ ससुर खाए थे!जो तुम खाओगे? जाओ! उहाँ ईंटा पे बैठो और बिलॉग मत लिखना. देख नहीं रहे हो हम सुबह झाडा फिर के आए तभी से हाथ नहीं धोए हैं. काहे कि समय लगता है और ई हिंदी समाज हाथ धोने में इतना समय गँवा दिया कि उरभुल्ले से गुलगुल्ली भी निकल गया. हम तो जामवंत को भी खून माफ कर दिये, बलवर्द्धन को गले लगाए, बसंती और डेजी ऐसन से भी हमारा राउंड टेबल बिछाया हुआ है. फस्ट नम्बर पर भी हमारा नम्बर चल्ते रहता है. चरण वर्मा-फरण वर्मा मंटो-मंटू-मुंटू और गुप्ता पान भंडार, नाम्ग्याल, रसख्याल, फौज, इंशाअल्ला और त्रिभुवन कुमार शुक्ल को छोडायत हमारा लेखनी को तअज्जो भी नहीं देता ई सब. हम तो टट्टी वाला हाथ से भी बोलॉग लिखते हैं फिर नाम भी हम "गदगद" रखे अपने बिलॉग का. पर हाय राम आर्ट ऑफ़ रीडिंग वाले हमारा पोस्ट काहेला नहीं चढाते?

Thursday, June 19, 2008

कृपया मदद करें

मित्रो!
मैं एक कहानी की तलाश में हूँ। स्वयं प्रकाश की यह कहानी "क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा है?"
मेरे पास बरसों से है लेकिन जब ढूँढ रहा हूँ तो हाथ नहीं आ रही. आप में से अगर किसी के पास यह कहानी है तो कृपया ramrotiaaloo@gmail.com पर भेज दें। भेजने वाले को एक सरप्राइज़ अनुभव दिया जाएगा.
धन्यवाद

Tuesday, June 17, 2008

एक छात्र नेता, जो कि बाद में उत्तर प्रदेश में मंत्री बना, के मंत्रीत्व काल के भाषण से एक अंश


आदरणीय द्विवेदीजी, तिवारीजी, झाजी और परमादरणीय चौबेजी,

आज बहुत बडा कोस्चन खडा हो जाता है कि हमारे बीच आदर्स नहीं हैं. अतीत में हमारे आदर्स और उद्देस्य ससक्त थे. आदर्स थे बाबा-ए-कौम महात्मा गाँधी और उद्देस्य था देस की आजादी. गाँव से लगायत और दिल्ली की पंचायत तक. बहुत कम लोग होते हैं जिनके मन में दर्द,पीडा और बेदना होती है. मैं बनारस की धरती से आने का काम करता हूँ. गाँव में बडा अभाव है, अभाव दुनिया की सबसे खराब चीज है वह आदमी का स्वभाव बदल देता है. एक लाख से अधिक लोग आज सडक पर मरने का काम करते हैं. हमें सडक पर चलने की तमीज नहीं है.इसलिये यह जो सडक सुरक्षा सप्ताह मनाने का काम किया गया है, मैं तन, मन और धन से इसका समर्थन करता हूँ. धन्यवाद.

Wednesday, June 11, 2008

बीकानेर का एक संस्मरण

"अलाउद्दीन ख़िलजी मुसलमान था, परंतु दयालु था." बाक़ी सब तो ठीक लेकिन इस परंतु पर ग़ौर कीजिये. यह आठवीं कक्षा के इतिहास के पाठ्यक्रम में पढाया जा रहा है.

एक बार मैं ट्रेन में सफ़र कर रहा था. सुबह जब आँख खुली और साथी मुसाफ़िर दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर थोडे अनौपचारिक होने लगे तो मेरे एक साथी मुसाफ़िर ने मुझसे पूछा "आपका नाम?" मैंने जवाब दिया "मुशीरुल हसन" वो छूटते ही बोला "कोई शेर सुनाइये!"
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के स्वर्ण जयंती वर्ष में एक व्याख्यान के दौरान प्रख्यात इतिहासकार और विचारक प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने ये दो दृष्टांत सुनाए थे.
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ये वाक़या कोई आठ साल पुराना है जब मुझे बीकानेर की आर्मी लायज़ाँ यूनिट ने पूछताछ के लिये बैठा लिया था. आपका नाम आपको किस तरह के नफ़े-नुक़सान पहुँचाता है इसका लेखाजोखा रखने के लिये शोध संस्थानों को पृथक शोध-अध्ययन केंद्र चलाने चाहिये."शक के रेगिस्तान में" शीर्षक से इस वाक़ये को मैं जनसत्ता (26 नवंबर 2000)में लिख चुका हूँ.

अलीगढ के नाट्यकर्मी राजेश कुमार का पिछले हफ़्ते फ़ोन आया कि वह कतरन अगर मेरे पास हो तो मैं उन्हें भेज दूँ, वो शायद इस संदर्भ में कोई नाटक लिख रहे हैं. ख़ैर इस कतरन को उन्हें भेजा तो याद आया कि आपमें से जिनकी नज़र इस संस्मरण पर न पडी हो उनसे भी यह अनुभव साझा करूँ. तो पेश है. इमेज पर डबल क्लिक करने से वह पढने लायक़ हो जाएगी.

Tuesday, May 27, 2008

सुनिये कुबेर दत्त की दो कविताएं


दूरदर्शन के कुछ चुनिंदा प्रोड्यूसरों में अपनी मौलिक सूझबूझ, लेखन और गंभीर आवाज़ की वजह से कुबेर दत्त अलग से पहचाने जाते हैं. टेलीविज़न पर कई कार्यक्रमों की देसी आवश्यकताओं के अनुरूप प्रस्तुति ने उन्हें लोकप्रियता की ऊँचाइयों पर रखा है. आप और हम, जन अदालत, पत्रिका, फलक और कई विशेष आयोजनों में उन्होंने समय और उसके प्रश्नों को हमेशा ध्यान में रखा. कवि, कथाकार, पटकथा लेखक, फ़िल्मकार और अब चित्रकार कुबेर दत्त इन दिनों दूरदर्शन के मंडी हाउस में चीफ़ प्रोड्यूसर के पद पर कार्यरत हैं. पेश है कोई आठ साल पहले उनके घर पर रिकॉर्ड की हुई उनकी दो कविताएं "एशिया के नाम" और "समय जुलाहा" उनके ही स्वर में.

एशिया के नाम समय जुलाहा