एक शाम दो पुराने मित्र 'ज़मरूद्पुर में मिलना है' तय करके मिले. एक ऐसी चाय की दुकान खोजी, जहां देर तक बैठा जा सके और जहां चाय के साथ मट्ठी भी मिलती हो.
उनके बीच क्या बातचीत हुई ये तो हमें नहीं मालूम लेकिन जनता की भरपूर मांग की लाज रखते हुए यहां प्रस्तुत है उनके बीच हुई गुफ़्तगू का एक पूर्णतयाः परिकल्पित और बनावटी आख्यान.
निवेदन: युवा और संभावनाशील संवाद लेखक कृपया इसे न पढें क्योंकि इससे उनके रोज़गार पर असर पड सकता है.
रामपदारथ: आजकल आप ब्लॉग में बहुत समय देते हैं.
रामसनेही: यह मिलन केंद्र जो है?
रामपदारथ: मिलन केंद्र?
रामसनेही: अरे और क्या?
रामपदारथ: थोडा खोलकर बताइये.
रामसनेही: मतलब खुलासा?...हा..हा..हा..बात ये है कि ब्लॉग जनता का पक्ष छोड्कर भागनेवालों का मिलन केंद्र है.
रामपदारथ: अच्छा-अच्छा. आपको तो सही जगह मिल गई.
रामसनेही: अब यहां भी बुद्धिजीवी लोग बढ रहे हैं. अच्छा लगता है.
रामपदारथ: बुद्धिजीवी लोग? या आराम की ज़िंदगी बसर करने के प्रलोभनों को ठुकराने की शक्तियों का ह्रास हो रहा है?
रामसनेही: नहीं भाई!हमारा समय बडे-बडे कामों के लिये उपयुक्त नहीं है.
रामपदारथ: वैसे भाई!बुद्धिजीवी तो बार-बार अपने दायरे में लौट्ने का प्रयत्न करता है और उसकी कोशिश सिर्फ व्यक्ति की समस्याओं का समाधान खोजने की होती है, न कि समाज की समस्याओं का.
रामसनेही: यहां हर व्यक्ति 'मैं'पन को मनवाने की भयंकर ज्वाला में दहक रहा है.अपने पडोसी के संपर्क में आना हर बार ही एक असह्य यातना का कारण बन जाता है.आत्मपूर्णता का प्रयत्न एक प्रकार के नैतिक राक्षसपन में बदल गया है.
रामपदारथ: यह सब तो आपको हमेशा ही भाता रहा है?
रामसनेही: निःसंदेह!
रामपदारथ: तब तो एक नया नैतिक विधान लागू करने के लिये तत्पर ये बुद्धिजीवी एक दूसरे की बोटी-बोटी काटने को तत्पर होंगे?
रामसनेही: तो और क्या! अपने अहं की तीव्र चेतना इनमें से हरेक के अंदर तब एक उंन्मादी क्रोध जगा देती है जब वह किसी दूसरे में अहं भावना का अपने से अधिक प्रचंड रूप देखता है.
रामपदारथ: और आपस के रिश्ते?
रामसनेही: आपस के रिश्तों का तो ये हाल है कि हर आदमी अपने साथियों पर एक तेज़ और ईर्ष्या भरी नज़र रखता है. इन रिश्तों में एक बीमार संदेह भावना और मध्ययुगीन छ्ल-कपट है.
रामपदारथ: तो अब तक का आपका अनुभव क्या रहा?
रामसनेही: यही समझ लीजिये कि कुछ ही महीनों में स्वस्थ व्यक्ति तक आनंद से न रह सके.
रामपदारथ: वो तो होना ही था.
रामसनेही: और तो और...वे स्नायु रोगों से पीडित हो गये और एक खंडित आत्मा लेकर और अपने अब तक के साथियों के प्रति घृणा व्यक्त करते हुए इन बस्तियों को छोड्कर चले गये.
रामपदरथ: चलिये अब हम लोग भी चला जाए...ए...लड्का!..पैसा कितना हुआ रे?
5 comments:
कहीं सचमुच में तो ऐसा नहीं है इरफान भाई?
अगर एसा है तो ये नहीं होना चाहिये
इरफ़ान जी
तो आखिर संवाद फूटे.वाकई साथी सब बनावटी है ये तो मुझे भी लगता है... सब प्रह्सन की तरह है.और आप और हम भी अपनी भूमिका ही निभा रहे हैं. जो आपने लिखा वो सूर्य के समान सत्य है.
दो मित्रों के इस वार्तालाप में सच अपनी समूची छटा के साथ मौजूद है .
yar behtar hoga tum filmo aur music adi ki hi charcha kiya karo. vaise charcha me koi kharcha to hai nahi so agey tumhari marji.
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