दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Wednesday, November 23, 2011

धूमिल की पटकथा

"पटकथा" से सुनिये एक हिस्सा
वाचक:इरफ़ान


पटकथा
-धूमिल

जब मैं बाहर आया
मेरे हाथों में
एक कविता थी
और दिमाग में
आँतों का एक्स-रे।
वह काला धब्बा
कल तक एक शब्द था;
खून के अँधेर में
दवा का ट्रेडमार्क
बन गया था।
औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद
अपनी ऊब का
दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।
मैंने सोचा !

क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।
मैंने सोचा और संस्कार के
वर्जित इलाकों में
अपनी आदतों का शिकार
होने के पहले ही बाहर चला आया।
बाहर हवा थी
धूप थी
घास थी
मैंने कहा आजादी…
मुझे अच्छी तरह याद है-
मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली
दौड़ रही थी
उत्साह में
खुद मेरा स्वर
मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा-आ-जा-दी
और दौड़ता हुआ खेतों की ओर
गया। वहाँ कतार के कतार
अनाज के अँकुए फूट रहे थे
मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये
बच्चे। तारों पर
चिडि़याँ चहचहा रही थीं
मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…
खेत की मेड़ पार करते हुये
मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी
सड़क पर जाते हुये आदमी से
उसका नाम पूछा
और कहा- बधाई…

घर लौटकर
मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं
पुरानी तस्वीरों को दीवार से
उतारकर
उन्हें साफ किया
और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)
पोंछकर टाँग दिया।
मैंने दरवाजे के बाहर
एक पौधा लगाया और कहा–
वन महोत्सव…
और देर तक
हवा में गरदन उचका-उचकाकर
लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा
देर तक महसूस करता रहा–
कि मेरे भीतर
वक्त का सामना करने के लिये
औसतन ,जवान खून है
मगर ,मुझे शान्ति चाहिये
इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’
और चहकते हुये कहा
यही मेरी आस्था है
यही मेरा कानून है।

इस तरह जो था उसे मैंने
जी भरकर प्यार किया
और जो नहीं था
उसका इंतज़ार किया।
मैंने इंतज़ार किया–
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा

अब यह ज़मीन अपनी है
आसमान अपना है
जैसा पहले हुआ करता था…
सूर्य,हमारा सपना है
मैं इन्तजा़र करता रहा..
इन्तजा़र करता रहा…
इन्तजा़र करता रहा…
जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
खुशफ़हम इरादे थे

सुन्दर थे
मौलिक थे
मुखर थे
मैं सुनता रहा…
सुनता रहा…
सुनता रहा…
मतदान होते रहे
मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
यानी कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा। मैं खुद को
समझाता रहा-’जो मैं चाहता हूँ-
वही होगा। होगा-आज नहीं तो कल
मगर सब कुछ सही होगा।

मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था

यानी कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब की भीड़ बढ़ती रही।
चौराहे चौड़े होते रहे।
लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज
खाकर-निरापद भाव से
बच्चे जनते रहे।
योजनायेँ चलती रहीं
बन्दूकों के कारखानों में
जूते बनते रहे।
और जब कभी मौसम
उतार पर होता था।
हमारा संशय
हमें कोंचता था।
हम उत्तेजित होकर
पूछते थे
यह क्या है?
ऐसा क्यों है?
फिर बहसें होतीं थीं
शब्दों के जंगल में
हम एक-दूसरे को काटते थे
भाषा की खाई को
जुबान से कम जूतों से
ज्यादा पाटते थे

कभी वह हारता रहा…
कभी हम जीतते रहे…
इसी तरह नोक-झोंक चलती रही
दिन बीतते रहे…
मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।
मेरा सारा धीरज
युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में
बह गया।
मैंने देखा कि मैदानों में
नदियों की जगह
मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं
पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग-
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
सधवायें मंगल गा रहीं हैं
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-
‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना
सख्त मना है।’

क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।

फिर भी उस उजाड़ में
कहीं-कहीं घास का हरा कोना
कितना डरावना है
मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध- मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अखबार के मटमैले हासिये पर
लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद ,नाम है
यह मेरा देश है…
यह मेरा देश है…
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब-
नफ़रत है।
साज़िश है।
अन्धेर है।
यह मेरा देश है
और यह मेरे देश की जनता है
जनता क्या है?
एक शब्द…सिर्फ एक शब्द है:
कुहरा,कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है।

जनता क्या है?
एक शब्द…
सिर्फ एक शब्द है
कुहरा,कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है
एक पेड़ है
जो ढलान पर
हर आती-जाती हवा की जुबान में
हाँऽऽ..हाँऽऽ करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है।
गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर
शहर के शिवालों तक फैली हुई
‘कथाकलि’ की अंमूर्त मुद्रा है
यह जनता…
उसकी श्रद्धा अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।

दरअसल,
अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।

हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अन्धकार में सुरक्षित होने का
नाम है- तटस्थता। ...

यहाँ कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त हैं।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है...

हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ,सिर्फ ,वह आदमी,देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है...

मैं सोचता रहा
और घूमता रहा-
टूटे हुये पुलों के नीचे
वीरान सड़कों पर आँखों के
अंधे रेगिस्तानों में
फटे हुये पालों की
अधूरी जल-यात्राओं में
टूटी हुई चीज़ों के ढेर में
मैं खोयी हुई आजादी का अर्थ
ढूँढता रहा।

अपनी पसलियों के नीचे /अस्पतालों के
बिस्तरों में/ नुमाइशों में
बाजारों में /गाँवों में
जंगलों में /पहाडों पर
देश के इस छोर से उस छोर तक
उसी लोक-चेतना को
बार-बार टेरता रहा
जो मुझे दोबारा जी सके
जो मुझे शान्ति दे और
मेरे भीतर-बाहर का ज़हर
खुद पी सके।
–और तभी सुलग उठा पश्चिमी सीमान्त
…ध्वस्त…ध्वस्त…ध्वान्त…ध्वान्त…
मैं दोबार चौंककर खड़ा हो गया
जो चेहरा आत्महीनता की स्वीकृति में
कन्धों पर लुढ़क रहा था,
किसी झनझनाते चाकू की तरह
खुलकर,कड़ा हो गया…
अचानक अपने-आपमें जिन्दा होने की
यह घटना
इस देश की परम्परा की -
एक बेमिशाल कड़ी थी
लेकिन इसे साहस मत कहो
दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई
गाय की घृणा थी...

मगर उसके तुरन्त बाद
मुझे झेलनी पड़ी थी-सबसे बड़ी ट्रैजेडी
अपने इतिहास की
जब दुनिया के स्याह और सफेद चेहरों ने
विस्मय से देखा कि ताशकन्द में
समझौते की सफेद चादर के नीचे
एक शान्तियात्री की लाश थी
और अब यह किसी पौराणिक कथा के
उपसंहार की तरह है कि इसे देश में
रोशनी उन पहाड़ों से आई थी
जहाँ मेरे पडो़सी ने
मात खायी थी।
मगर मैं फिर वहीं चला गया
अपने जुनून के अँधेरे में
फूहड़ इरादों के हाथों
छला गया।
वहाँ बंजर मैदान
कंकालों की नुमाइश कर रहे थे
गोदाम अनाजों से भरे थे और लोग
भूखों मर रहे थे
मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के
एक शर्मनाक दौर से गुजर रहा हूँ
अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई
किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है
अब न तो कोई किसी का खाली पेट
देखता है, न थरथराती हुई टाँगें
और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है
हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है
सबने भाईचारा भुला दिया है
आत्मा की सरलता को भुलाकर
मतलब के अँधेरे में
सुला दिया है।
सहानुभूति और प्यार
अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये
एक आदमी दूसरे को,अकेले –
अँधेरे में ले जाता है और
उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है
ठीक उस मोची की तरह जो चौक से
गुजरते हुये देहाती को
प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर
रबर के तल्ले में
लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ
ठोंक देता है और उसके नहीं -नहीं के बावजूद
डपटकर पैसा वसूलता है
गरज़ यह है कि अपराध
अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
जो आत्मीयता की खाद पर
लाल-भड़क फूलता है

अपराध
अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
जो आत्मीयता की खाद पर
लाल-भड़क फूलता है
मैंने देखा कि
इस जनतांत्रिक जंगल में
हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है
हरे-हरे हाथ
और पेड़ों पर
पत्तों की जुबान बनकर
लटक जाते हैं
वे ऐसी भाषा बोलते हैं
जिसे सुनकर
नागरिकता की गोधूलि में
घर लौटते मुसाफिर
अपना रास्ता भटक जाते हैं।

उन्होंने किसी चीज को
सही जगह नहीं रहने दिया
न संज्ञा
न विशेषण
न सर्वनाम
एक समूचा और सही वाक्य
टूटकर
‘बि ख र’ गया है
उनका व्याकरण इस देश की
शिराओं में छिपे हुये कारकों का
हत्यारा है
उनकी सख्त पकड़ के नीचे
भूख से मरा हुआ आदमी
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय
सबसे सटीक नारा है
वे खेतों मेंभूख और शहरों में
अफवाहों के पुलिंदे फेंकते हैं

भूख से मरा हुआ आदमी/
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है
और गाय
सबसे सटीक नारा है
देश और धर्म और नैतिकता की
दुहाई देकर
कुछ लोगों की सुविधा
दूसरों की ‘हाय’पर सेंकते हैं
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
वे मुस्कराते हैं और
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
करवट बदलकर सो जाती है
मैं देखता रहा…
देखता रहा…
हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफरत थी
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
असहाय था। उसमें
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी ,रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
आग और आँसू और हाय का।
इस तरह एक दिन-
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
मेरे खून में एक काली आँधी-
दौड़ लगा रही थी
मेरी असफलताओं में सोये हुये
वहसी इरादों को
झकझोरकर जगा रही थी
अचानक ,नींद की असंख्य पर्तों में
डूबते हुये मैंने देखा
मेरी उलझनों के अँधेरे में
एक हमशक्ल खड़ा है
मैंने उससे पूछा-’तुम कौन हो?
यहाँ क्यों आये हो?
तुम्हें क्या हुआ है?’
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
हाँ -मैं हिंदुस्तान हूँ’,
वह हँसता है-ऐसी हँसी कि दिल
दहल जाता है
कलेजा मुँह को आता है
और मैं हैरान हूँ
‘यहाँ आओ
मेरे पास आओ
मुझे छुओ।
मुझे जियो। मेरे साथ चलो
मेरा यकीन करो। इस दलदल से
बाहर निकलो!
सुनो!
तुम चाहे जिसे चुनो
मगर इसे नहीं। इसे बदलो।
मुझे लगा-आवाज़
जैसे किसी जलते हुये कुएँ से
आ रही है।
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
जैसे कोई मादा भेड़िया
अपने छौने को दूध पिला रही है
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है...

मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था
उसकी आवाज में
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था। मगर उसकी आँख
गुस्से में भी हरी थी
वह कह रहा था-
‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
तुम एक ऐसी जिन्दगी से गुज़र रहे हो
जिसमें न कोई तुक है
न सुख है
तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
रास्ते में रुक गये हो
तुम जो हर चीज़
अपने दाँतों के नीचे
खाने के आदी हो
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
अचानक ,इस तरह,क्यों चुक गये हो
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने अदब से
रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
या कि शर्म
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
नहीं-सरलता की तरह इस तरह
मत दौड़ो
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का
आधार है
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
दुनिया में
आसानी से समझ में आने वाली चीज़
सिर्फ दीवार है।
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
हिस्सा बन गयी है
इसे झटककर अलग करो
अपनी आदतों में
फूलों की जगह पत्थर भरो
मासूमियत के हर तकाज़े को
ठोकर मार दो
अब वक्त आ गया है तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।

आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जिसके आगे हर सचाई
छोटी है। इस दुनिया में
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
रोटी है।

मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
यदि सही दूरी नहीं है
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
क्योंकि पशुता -
सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है
वह आदमी को वहीं ले जाती है
जहाँ भूख
सबसे पहले भाषा को खाती है
वक्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है
जो अपने चेहरे की राख
दूसरों की रूमाल से झाड़ता है
जो अपना हाथ
मैला होने से डरता है
वह एक नहीं ग्यारह कायरों की
मौत मरता है

और सुनो! नफ़रत और रोशनी
सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं
जिसे जंगल के हाशिये पर
जीने की तमीज है
इसलिये उठो और अपने भीतर
सोये हुए जंगल को
आवाज़ दो
उसे जगाओ और देखो-
कि तुम अकेले नहीं हो
और न किसी के मुहताज हो
लाखों हैं जो तुम्हारे इन्तज़ार में खडे़ हैं
वहाँ चलो।उनका साथ दो
और इस तिलस्म का जादू उतारने में
उनकी मदद करो और साबित करो
कि वे सारी चीज़ें अन्धी हो गयीं हैं
जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’

मैं पूरी तत्परता से
उसे सुन रहा था
एक के बाद दूसरा
दूसरे के बाद तीसरा
तीसरे के बाद चौथा
चौथे के बाद पाँचवाँ…
यानी कि एक के बाद दूसरा विकल्प
चुन रहा था
मगर मैं हिचक रहा था
क्योंकि मेरे पास
कुल जमा थोड़ी सुविधायें थीं
जो मेरी सीमाएँ थीं
यद्यपि यह सही है कि मैं
कोई ठण्डा आदमी नहीं है
मुझमें भी आग है-
मगर वह
भभककर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ
एक ‘पूँजीवादी’दिमाग है
जो परिवर्तन तो चाहता है
मगर आहिस्ता-आहिस्ता
कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता
बनी रहे।
कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे
और विरोध में उठे हुये हाथ की
मुट्ठी भी तनी रहे…और यही है कि बात
फैलने की हद तक
आते-आते रुक जाती है
क्योंकि हर बार
चन्द सुविधाओं के लालच के सामने
अभियोग की भाषा चुक जाती है।
मैं खुद को कुरेद रहा था
अपने बहाने
उन तमाम लोगों की
असफलताओं को
सोच रहा था
जो मेरे नजदीक थे।
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
जमी हुई काई और उगी हुई घास को
खरोंच रहा था,नोंच रहा था
पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुये
मैंने आदमी के भीतर की मैल
देख ली थी। मेरा सिर
भिन्ना रहा था
मेरा हृदय भारी था
मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं
अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से
थोड़ी देर के लिये
बचना चाह रहा था
जो अपनी पैनी आँखों से
मेरी बेबसी और मेरा उथलापन
थाह रहा था
प्रस्तावित भीड़ में
शरीक होने के लिये
अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था
अचानक ,उसने मेरा हाथ पकड़कर
खींच लिया और मैं
जेब में जूतों का टोकन और दिमाग में
ताजे़ अखबार की कतरन लिये हुये
धड़ाम से-
चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर
मत-पेटियों के
गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा
नींद के भीतर यह दूसरी नींद है
और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है
सिर्फ एक शोर है
जिसमें कानों के पर्दे फटे जा रहे हैं
शासन सुरक्षा रोज़गार शिक्षा …
राष्ट्रधर्म देशहित हिंसा अहिंसा…
सैन्यशक्ति देशभक्ति आजा़दी वीसा…
वाद बिरादरी भूख भीख भाषा…
शान्ति क्रान्ति शीतयुद्ध एटमबम सीमा…
एकता सीढ़ियाँ साहित्यिक पीढ़ियाँ निराशा…
झाँय-झाँय,खाँय-खाँय,हाय-हाय,साँय-साँय…
मैंने कानों में ठूँस ली हैं अँगुलियाँ
और अँधेरे में गाड़ दी है
आंखों की रोशनी।
सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है
मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में
मैंने देखा हर तरफ
रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं
गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये
गुट से गुट टकरा रहे हैं
वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं
एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं
हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं
श्रीमान्‌ किन्तु हैं
मिस्टर परन्तु हैं
कुछ रोगी हैं
कुछ भोगी हैं
कुछ हिंजड़े हैं
कुछ रोगी हैं
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं
आँखों के अन्धे हैं
घर के कंगाल हैं
गूँगे हैं
बहरे हैं
उथले हैं,गहरे हैं।
गिरते हुये लोग हैं
अकड़ते हुये लोग हैं
भागते हुये लोग हैं
पकड़ते हुये लोग हैं
गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं
एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे
इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में
असंख्य रोग हैं
और उनका एकमात्र इलाज-
चुनाव है।

लेकिन मुझे लगा कि
एक विशाल दलदल के किनारे
बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है
उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है
जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद
बह रहा है
उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और
पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े
किलबिला रहे हैं और अन्धकार में
डूबी हुई पृथ्वी
(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
इस भीषण सड़ाँव को चुपचाप सह रही है
मगर आपस में नफरत करते हुये वे लोग
इस बात पर सहमत हैं कि
‘चुनाव’ ही सही इलाज है
क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुये
न उन्हें मलाल है,न भय है
न लाज है
दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है
और इसी बहाने
वे अपने पडो़सी को पराजित कर रहे हैं
मैंने देखा कि हर तरफ
मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
जिसे कुछ जंगली पशु
खूँद रहे हैं
लीद रहे हैं
चर रहे है
मैंने ऊब और गुस्से को
गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा
मैंने अहिंसा को
एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा
मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें
भरते हुये देखा
मैंने विवेक को
चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा…

मैं यह सब देख ही रहा था
कि एक नया रेला आया
उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस।
वे किसी आदमी को
हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे
उसे एक दूसरे से छीन रहे थे।उसे घसीट रहे थे।
चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे।
गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत
गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे।
उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द
थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।’मूर्खों!
यह क्या कर रहे हो?’ मैं चिल्लाया। और तभी किसी ने
उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?
मैं हतप्रभ सा खड़ा था
और मेरा हमशक्ल
मेरे पैरों के पास
मूर्च्छित- सा
पड़ा था-
दुख और भय से झुरझुरी लेकर
मैं उस पर झुक गया
किन्तु बीच में ही रुक गया
उसका हाथ ऊपर उठा था
खून और आँसू से तर चेहरा
मुस्कराया था। उसकी आँखों का हरापन
उसकी आवाज में उतर आया था-
‘दुखी मत हो। यह मेरी नियति है।
मैं हिन्दुस्तान हूँ। जब भी मैंने
उन्हें उजाले से जोड़ा है
उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है
इसी तरह तोड़ा है
मगर समय गवाह है
कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।’

सुना। वह आहिस्ता-आहिस्ता कह रहा है
जैसे किसी जले हुये जंगल में
पानी का एक ठण्डा सोता बह रहा है
घास की की ताजगी- भरी
ऐसी आवाज़ है
जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।
‘भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है
फिर भी वे अपने हैं…
अपने हैं…
अपने हैं…
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं
नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय
नहीं है।अपने लोगों की घृणा के
इस महोत्सव में
मैं शापित निश्चय हूँ

किसी का भय नहीं है।
‘तुम मेरी चिंता न करो। उनके साथ
चलो। इससे पहले कि वे
गलत हाथों के हथियार हों
इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से
काले बाजा़र हों
उनसे मिलो।उन्हें बदलो।
नहीं-भीड़ के खिलाफ रुकना
एक खूनी विचार है
क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी
इस हिंसक भीड़ का
अन्धा शिकार है।
तुम मेरी चिन्ता मत करो।
मैं हर वक्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ
जहाँ वर्तमान
अपने शिकारी कुत्ते उतारता है
अक्सर में मिट्टी की हरक़त करता हुआ
वह टुकड़ा हूँ
जो आदमी की शिराओं में
बहते हुये खू़न को
उसके सही नाम से पुकारता हूँ
इसलिये मैं कहता हूँ,जाओ ,और
देखो कि लोग…

मैं कुछ कहना चाहता था कि एक धक्के ने
मुझे दूर फेंक दिया। इससे पहले कि मैं गिरता
किन्हीं मजबूत हाथों ने मुझे टेक लिया।
अचानक भीड़ में से निकलकर एक प्रशिक्षित दलाल
मेरी देह में समा गया। दूसरा मेरे हाथों में
एक पर्ची थमा गया। तीसरे ने एक मुहर देकर
पर्दे के पीछे ढकेल दिया।
भय और अनिश्चय के दुहरे दबाव में
पता नहीं कब और कैसे और कहाँ–
कितने नामों से और चिन्हों और शब्दों को
काटते हुये मैं चीख पड़ा-
‘हत्यारा!हत्यारा!!हत्यारा!!!’
मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।मैंने यह
किसको कहा था। शायद अपने-आपको
शायद उस हमशक्ल को(जिसने खुद को
हिन्दुस्तान कहा था) शायद उस दलाल को
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है

मेरी नींद टूट चुकी थी
मेरा पूरा जिस्म पसीने में
सराबोर था। मेरे आसपास से
तरह-तरह के लोग गुजर रहे थे।
हर तरफ हलचल थी,शोर था।
और मैं चुपचाप सुनता हूँ
हाँ शायद -
मैंने भी अपने भीतर
(कहीं बहुत गहरे)
‘कुछ जलता हुआ सा ‘ छुआ है
लेकिन मैं जानता हूँ कि जो कुछ हुआ है
नींद में हुआ है
और तब से आजतक
नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजा़र दीं हैं
हफ्तों पर हफ्ते तह किये हैं
अपनी परेशानी के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
और हर बार मुझे लगा है कि कहीं
कोई खास फ़र्क़ नहीं है
ज़िन्दगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है
जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है

हाँ ,यह सही है कि इन दिनों
कुछ अर्जियाँ मँजूर हुई हैं
कुछ तबादले हुये हैं
कल तक जो थे नहले
आज
दहले हुये हैं

हाँ यह सही है कि
मन्त्री जब प्रजा के सामने आता है
तो पहले से ज्यादा मुस्कराता है
नये-नये वादे करता है
और यह सिर्फ़ घास के
सामने होने की मजबूरी है
वर्ना उस भले मानुस को
यह भी पता नहीं कि विधानसभा भवन
और अपने निजी बिस्तर के बीच
कितने जूतों की दूरी है।


हाँ यह सही है कि इन दिनों -चीजों के
भाव कुछ चढ़ गये हैं।अखबारों के
शीर्षक दिलचस्प हैं,नये हैं।
मन्दी की मार से
पट पड़ी हुई चीज़ें ,बाज़ार में
सहसा उछल गयीं हैं
हाँ यह सही है कि कुर्सियाँ वही हैं
सिर्फ टोपियाँ बदल गयी हैं और-
सच्चे मतभेद के अभाव में
लोग उछल-उछलकर
अपनी जगहें बदल रहे हैं
चढ़ी हुई नदी में
भरी हुई नाव में
हर तरफ ,विरोधी विचारों का
दलदल है
सतहों पर हलचल है
नये-नये नारे हैं
भाषण में जोश है
पानी ही पानी है
पर
की

ड़
खामोश है

मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
एक पुर्जा़ गरम होकर
अलग छिटक गया है और
ठण्डा होते ही
फिर कुर्सी से चिपक गया है
उसमें न हया है
न दया है

नहीं-अपना कोई हमदर्द
यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को
परख लिया है।
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ
उठायी है उसको मादा
पाया है।...

वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।

भूख और भूख की आड़ में
चबायी गयी चीजों का अक्स
उनके दाँतों पर ढूँढना
बेकार है। समाजवाद
उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का
एक आधुनिक मुहावरा है।
मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है।

मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है
जिस पर ‘आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है...

यहाँ जनता एक गाड़ी है
एक ही संविधान के नीचे
भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम
‘दया’ है
और भूख में
तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है।...

मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?

मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल
करता हूँ जिसका मेरे पास
कोई उत्तर नहीं है
और आज तक –
नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजार दी हैं
हफ्ते पर हफ्ते तह किये हैं। ऊब के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं
हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूँथता हुआ। घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है।
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Sunday, November 13, 2011

शोहरत एक क़िस्म का मर्ज़ भी है...


मोईन अख़्तर: आपने इंडस्ट्री को जहां अपनी अदाकारी के बेहतरीन नमूने पेश किये, वहां आपने सबसे उम्दा बात ये बताई कि इंसान को महज़ एक्टर ही नहीं रहना चाहिये बल्कि उम्दा और मुकम्मल इंसान होते हुए इंसानियत की ख़िदमत करना चाहिए...तो मैं ये पूछना चाहूंगा कि इस तरफ़ आपका ध्यान कैसे आया कि आप इतने डेडिकेटेड हो गये हैं कि चैरिटी शोज़ के लिये पूरी दुनिया में वक़्त निकालते जाते हैं.

दिलीप कुमार :आपके सवाल में ही आपके सवाल का जवाब छुपा हुआ है.
फ़िल्म में नाम और शोहरत जो मिलती है... और ख़ास तौर से कमउमर लोगों को, उमररसीदा लोगों को भी मिल जाय...तो वो भी अपने हवास खो बैठते हैं.
शोहरत एक क़िस्म का मर्ज़ भी है. फ़िल्म फ़ेम, फ़िल्म ग्लैमर...ये देखने में तो बहुत चमकता-दमकता सिलसिला है जिससे आंखें चौंध जाती हैं लोगों की लेकिन इसके पीछे कुछ ऐसे अमराज़ हैं जो इंसान के दिमाग़ में उसकी सेहत में नश्र-ओ-नुमा होती हैं. आपने देखा होगा मर्लिन मनरो इतनी शोहरत पाने के बावजूद ज़हर खाके उसने अपनी जान ले ली. हमारे साथी थे हमारे अज़ीज़ दोस्त गुरुदत्त साहब ने भी...मेरे दोस्त थे लेकिन आम तौर पर वो अपनी शोहरत से ही इस क़दर ख़ाएफ़ और मुतास्सिर थे...उन्हों ने भी ज़हर खाके जान दी. ज़मीन से पांव उठ जाते हैं आपने देखा होगा फ़िल्मों में अक्सर लोग जब शोहरत पाते हैं, आते जाते ऐसा लगता है कि ये ज़मीन की सतह से ज़रा ऊपर हवा-हवा में चल रहे हैं और उसके साथ उनका ज़ेहन और उनका दमाग़...(उन्हें) चाहिये कि ज़मीन के ऊपर उनका पांव जमा रहे और ज़मीन से लगा रहे. इंसानियत के मरकज़ से और उन क़द्रों से इंसान हटे नहीं, अपनी शोहरत से ख़ुद ही मुतास्सिर न हो जाये."
इसलिये मैंने तो अपने तो अपने मर्ज़ के इलाज में मदावा किया उसका कि मैं जो हूं जाके अंधों की एसोसिएशन जो है उनकी इम्दाद की या मेंटली रिटार्डेड जो बच्चे हैं उनकी इम्दाद के लिये मैं उसमें शामिल हो गया. अंधों को देखकर आपको ये एहसास होगा जब अंधा बच्चा आपको देखता है, आपकी बातें सुनता है. आप सोचते हैं कि अल्लाहमियां ने मुझको आंखें दी हैं...कोई धड़ कटा हुआ है किसी बच्चे का, वो टोकरी में बैठा हुआ है, हंस-हंस के बात कर रहा है...इंसान को ख़ुदा का ख़ौफ़ दिल में पैदा होता है और इस बात का एहसास होता है कि नहीं...इंसानी जज़्बा बरक़रार रहे...ये इब्तेदा थी, धीरे-धीरे बात का बतंगड़ बनता गया और जहां इस तरह का कोई सिलसिला हो, मैं चला जाता था, मेरा यहां भी आना उसी से वाबस्ता है.

Tuesday, August 9, 2011

एम.एफ़ हुसेन:कुछ यादें


एमएफ़ हुसेन से मेरी पहली मुलाक़ात 23 फ़रवरी 2003 को दिल्ली में हुई। कुछ महीनों पहले उनकी आत्मकथा ‘एमएफ़ हुसेन की कहानी अपनी ज़ुबानी’ हिन्दी में छपकर आयी थी। कहीं इस किताब के कुछ टुकड़े मैंने पढे थे। दिल्ली मे एफ़एम गोल्ड तब नया-नया था और मैं इस पर तस्वीर नाम का प्रोग्राम किया करता था। प्रोग्राम तस्वीर की परिकल्पना के अनुसार हम सब इसमें हिन्दुस्तान की नामी गिरामी हस्तियों की शोकेसिंग किया करते थे और बीच-बीच में गॊल्डेन इरा के फ़िल्मी गाने बजाया करते थे। मैं तब तक मुंशी नवलकिशोर, आग़ा हश्र कश्मीरी, भिखारी ठाकुर, गुलाब बाई, पंडिता रमाबाई और सालिम अली जैसे उन लोगों को प्रोग्राम में शामिल कर चुका था जो बीती सदी के बहुत अनॊखे लोग थे।

हुसेन साहब अपनी शॊहरत के उरूज पर थे और शायद मैं यॆ सॊचकर उनपर देर से प्रॊग्राम करता कि उन्हें कौन नहीं जानता लॆकिन आत्मकथा कॆ कुछ हिस्सॊं को पढ़कर मैंने पाया कि हुसेन साहब में छिपे लॆखक को मैं पहली बार दॆख पाया हूं। एक करिश्माई चित्रकार एक अद्भुत लेखक भी है ये मैं सुनने वालों को बताने के लिये मौक़ा तलाशने लगा। अगले ही प्रॊग्राम में हुसेन साहब पर तस्वीर प्रॊग्राम के बीच मैंने “नालेवाला मकान” (पॄष्ठ 59) से ये लाइनें पढीं “छावनी इंदौर, मेम नालेवाला मकान, जहां मक़बूल ने कई ख़ास तरीक़ों, सोच और काम की बुनियाद डाली, जो उसकी आगे की ज़िंदगी के बहुत ज़रूरी हिस्सॆ बने। मिसाल के तौर पर यहीं फ़ॊटोग्राफ़ी शुरू की, फ़िल्म का ऎनीमॆशन किया, काग़ज़ के लम्बे रॊल पर एक किसान – एक बैलगाडी के कई ड्राइंग बनाकर, एक गत्तॆ का प्रोजॆक्टर बाक्स बनाया, उसमें उस ड्राइंग के रॊल कॊ घुमाया। बाक्स के बीच एक रुपये जितना सूराख़ किया। एक आंख सॆ बाक्स के अंदर दॆखो तो वहां किसान और बैलगाडी को हरकत करता दॆखो। हाथ से बनी फ़िल्मस्ट्रिप बिल्कुल उसी ‘पीप शॊ’ की तरह जिसमें ‘दिल्ली का दरबार दॆखो’, ‘बारह हाथ की धोबन देखो’, ‘गोरे कर्ज़न की लाट दॆखो’।“
इस टॆक्स्ट को आनएयर पढने के बाद दॊ बातों की तरफ़ मॆरा ध्यान गया- एक तो ये कि यह टेक्स्ट रेडियो फ़्रेंडली है, बॆहद बॊलचाल की चित्रमय शैली में और दूसरी बात मुझे सुनने वालों की फ़ीडबैक से पता चली कि एमएफ़ हुसेन की ज़िंदगी के इस पहलू को उन्होंने पहली बार जाना। मेरे कवि और संपादक मित्र आर चेतनक्रांति ने जिस शाम मुझे ये किताब दी, मैं इसे बोल-बोलकर ही पढता रहा। देर रात ये इरादा पक्का हो चुका था कि इस किताब की आडियो बुक इसके प्रभाव को दोगुना कर देगी। चार फ़रवरी 2003. सुबह मैंने अपने दोस्त मुनीश को फ़ोन किया और अपनी यॊजना बतायी, वो राज़ी थे। मुनीश इन दिनों जापान में हैं और उनकॆ पुस्तक-पाठ का अंदाज़ वैसा ही है जैसा मुझे चाहिये था। साउंड स्टूडियो में हमनें इस आत्मकथा ‘एमएफ़ हुसेन की कहानी अपनी ज़ुबानी’ सॆ चार क़िस्सॆ- ‘प्रायमरी स्कूल’, ‘दादा की अचकन’, ‘बाप की शादी में बेटा दीवाना’ और ‘मां’ रिकार्ड किये। मुनीश के पाठ ने टॆक्स्ट की गरिमा को बनाये रखा था, मैंने म्यूज़िक और साउंड एफ़ेक्ट्स लगाते हुए टेक्स्ट को सर्वॊपरि रखा था। अगले दिन मैं इन चार क़िस्सों को एक सीडी में डालकर हुसेन साहब के लिये छॊड आया। मुझे बताया गया कि अगले हफ़्ते उनके दिल्ली आने की उम्मीद है। अगले हफ़्ते मैं अपने सबसे छोटे भाई इरशाद की शादी में सुल्तानपुर चला गया। इस बीच हुसेन साहब दिल्ली आये और उन्होनें वो सीडी सुनी, जो मैं उनके लिये छॊड आया था। उन्होने घर पर मॆरॆ लियॆ यॆ मॆसॆज छुडवा दिया था कि वो मुझसॆ मिलना चाहते हैं। हैरानी की बात, तीन दिन बाद 16 फ़रवरी को वो लखनऊ में थे और मुझे फ़ॊन कर रहे थे कि मैं उनसॆ लखनऊ में ही मिल लूं। इसी दिन शादी थी और सुल्तानपुर में मॆरॆ रॊमिंग फॊन तक उनकी काल नहीं पहुंच सकी। यह बात उस पहली मुलाक़ात में हुसॆन साहब ने मुझे बताई जिसका ऊपर ज़िक्र कर चुका हूं।
तयशुदा वक़्त के मुताबिक़ मैं चार बजे उनसे मिलने पहुंच गया था। मुझे यह जानने की व्यग्रता थी कि सीडी सुनने के बाद हुसेन साहब की क्या राय बनी है। हुसेन साहब थोडी ही देर में सामने से सीढियां उतरते हुए आए। वॊ क्रीम कलर का कुर्ता पहने हुए थे और काला पतलून, ऊपर से एक काला ढीला बॆतरतीब ढीला गाउन पहने थे, हाथ मॆं एक लम्बा ब्रश था। मैं खडा हो गया राशिदा साहबा ने मॆरा परिचय कराया, हुसेन साहब ने हाथ मिलाते हुए कहा ‘एमएफ़ हुसेन’। बैठते ही बॊले कि उन्हें वॊ सीडी बहुत पसन्द आई है जॊ मैं छॊड गया था और वॊ मुझसे इसीलिये मिलना चाहते थे। बॊले योरप और बाहर के मुल्कों में यह फ़ार्म बहुत पापुलर है। उन्होंने किसी हालीवुड ऐक्टर का नाम लिया और बताया कि उसके रेसाइट कियॆ हुए कुछ एलपी बरसों पहले उन्होंने सुने थे और वो बहुत अच्छे थे। जो चार क़िस्से मैंने बतौर सैम्पल उनको दिये थे उनमें से सिर्फ़ ‘बाप की शादी में बेटा दीवाना’ में लगे एक साउंडएफ़ेक्ट से उन्होने असहमति जताई जबकि बाक़ी तीन से बहुत ख़ुश थे। प्रोडक्शन अभी शुरू नहीं हुआ था लेकिन हुसेन साहब बहुत एक्साइटेड थे। मैंने उनसे कहा कि यह तो बस नमूने के लिये तैयार किया गया था और आपको पसंद आया है तो फिर हम इसे पूरी प्लानिंग के साथ ढंग से करेंगे और चाहेंगे कि चीज़ें सीधे आपकी निगरानी और मश्वरे से हों। उन्होंने इस पर रज़ामंदी जताई हालांकि यह भी कहा कि ये तभी हॊ सकेगा जब वो दिल्ली में होंगे। वो बोले आप इसे शुरू कर दीजिये और जब म्यूज़िक करवाइयेगा तो वो “आब्वियस न हो, जैसे कि कॊई दुख की बात हॊ तॊ दुख का म्यूज़िक जैसा कि फ़िल्मों में हॊता है, या खुशी की बात पर खुशी का…ऐसा ठीक नहीं लगेगा बल्कि उल्टा करना भी अच्छा लगता है…” सीडी के अलावा उन्होंने कहा कि कैसेट भी बनाइयेगा क्यॊंकि वो थॊडा सस्ता भी हॊगा और लॊग खरीद सकेंगे। शुरुआती पांच-सात मिनट की बातचीत के बाद मुझे लग ही नहीं रहा था कि हुसॆन साब से पहली बार मिल रहा हूं। उन्होंने कहा कि ये अब आपका प्रोडक्ट है और इसे आप जैसे करना चाहें, पूरी आज़ादी से कीजिये। लगभग आधे घंटे की इस मुलाक़ात में कई ऐसे मौक़ॆ आये जब हम ठहाके लगा उठते और तब हर बार वह अपनी लम्बी उंगलियॊं सॆ अपने काले गाउन को घुटनों पर वापस समेट लाते। उन्होंने मेरे घर-परिवार, बच्चों और निजी ज़िंदगी के बारे में भी बडे कन्सर्न और अपनॆपन के साथ पूछा और बहुत सहॄदयता से सुना। उन दिनों वो अपनी फ़िल्म “Meenaxi: A tale of three cities” में लगे थे तो कुछ बातें उस बारॆ में हॊने लगीं फिर वॊ अचानक उठ खडॆ हुए और बॊले मिलते हैं, अभी ज़रा जा रहा हूं सिरी फ़ॊर्ट वहां अदनान सामी का थोडी देर में कन्सर्ट है।
अगले महीने से काम पूरी रफ़्तार से शुरू हो गया। मैंने उनकी इस आत्मकथा ‘एमएफ़ हुसेन की कहानी अपनी ज़ुबानी’ सहित उस सारे उपलब्ध साहित्य को पढने-दॆखनॆ की कॊशिश की जिससॆ हुसेन के बारे में मॆरी अंतर्दॄष्टि समॄद्ध हॊ सके। इस प्रॊडक्शन के दौरान लिये गये फ़ैसलों में हुसेन संबन्धित साहित्य के अलावा भी बहुत कुछ पढे-कढॆ हॊने की ज़रूरत थी। ये एक लगातार चलते रहनॆवाले इंसान की कहानी को उसकी गतिशीलता में पेश करने की चुनौती थी। ये कोई रेडियो ड्रामा नहीं हॊने वाला था, ये एक छपी हुई किताब महज़ पढ देना भर नहीं था। ये एक बिल्कुल नया फ़ार्म ईजाद करने की मांग थी जो विषय के भीतर से उठ रही थी।
दूसरी या तीसरी किसी मुलाक़ात में मैंने उनसॆ आग्रह किया कि वो इस आडियो बुक का एक इंट्रोडक्शन लिख दें और उसे अपनी ही आवाज़ में उसे रिकार्ड भी करवा दें। गजगामिनी में मैंने उनकी आवाज़ में उनकी लिखी कविताओं के हिस्से सुने थे और वो बहुत प्रभावशाली रॆसाइटॆशन था। हुसेन साहब खुशी-खुशी राज़ी हो गये थे। बॊले मैं अभी लिख लूंगा आज शाम रिकार्ड कर लेते हैं। रात 8 का तय हुआ। वो रात बॆहद कश-म-कश से भरी थी। स्टूडियो स्टैंडबाई था और मेरे पास वहां से फ़ोन पर फ़ोन आते रहे क्योंकि 8 के बाद 9 फिर 10 और फिर 11 भी बज गये। सब लॊग उनकी आस छोड चुके थे और मेरे लिये यॆ सब्र का इम्तॆहान था। मैं उनकी राह दॆखता बैठा रहा। फ़ोन भी रीचॆबल नहीं था। 11.30 बजे के आसपास वो आये और बिना कुछ कहे सीधे ऊपर चले गये। मॆरा खयाल है उन दिनों क्रिकेट का वर्ड कप चल रहा था। थॊडी दॆर में नौकर मुझे ऊपर बुलाने आया। मैं जब पहुंचा तॊ पाया टीवी चल रहा था और हुसेन साहब कुछ लिखने में डूबे थे। उन्होंने एक नज़र मुझे दॆखा और बोले बस हो गया। वो बीच-बीच में टीवी भी दॆख लॆतॆ। नीचे से खाने का बुलावा आ गया था। बॊले चलिये। जल्दी-जल्दी खाना खाया उठ गये। मैं अभी हाथ धॊता हुआ सॊच ही रहा था कि गये कहां। नौकर ने आकर बताया कि वॊ गाडी में बैठे हैं और मॆरा इंतज़ार कर रहे हैं। रात एक के आसपास जब हम स्टूडियो पहुंचे तॊ वहां एक नयी ऊर्जा आ गयी। चाय जब तक आती उन्होंने आखिरी चन्द लाइनें लिखीं और मुझे सुनाईं। इंट्रोडक्शन तैयार था-
“किसी ने कहा- ‘अपनी कहानी लिखो’।
पूछा ‘क्यों?’
कहा ‘तुम पर फ़िल्म बनाई जाए।’
‘फ़िल्म! ज़रा मेरा हुलिया तो देखिये! क्या कामेडी बनाने का इरादा है?’
‘हां, ऐसी कामेडी कि आप हंसते-हंसते रॊ पडॆं।’
पिछली सदी के आखिरी दहेके में बस यूं ही कागज़ के एक टुकडे पर लिखना शुरू कर दिया- ‘दादा की उंगली पकडे एक लडका।’ इस पुर्ज़े को पढकर न कोई हंसा न कोई रोया। हां लदन में एक साहबे फ़हम माजिद अली अह्ले सुख़न की नज़र इस पुर्ज़ॆ पर लिखी इबारत पर पडी। एमएफ़ से कहा ‘आप ये फ़िल्म स्क्रिप्ट छोडें और अपनी कहानी को किताब की शक्ल दें तो बॆहतर है।’ इस बात पर हिम्मत बंधी, और कहीं नहीं बैठा बस चलते-फिरते लिखता ही गया। चार-पांच साल के बाद पुर्ज़ों का एक ज़ख़ीम पुलिंदा बग़ल में दबाये प्रेस की तरफ़ छपवाने चला कि अचानक रास्ते में किसी ने पूछा ‘हम आपके हैं कौन?’ तो एमएफ़ की बग़ल से वो पुलिंदा फिसल पडा।’
उसे बीच रास्ता छॊड सात साल तक ग़ायब।
हम आपके हैं कौन सवाल पर जवाबन गजगामिनी फ़िल्म बना डाली। लौटे तो वो पुलिंदा उसी रास्ते पर पडा मिला। किताब छप गयी। लॊगों ने हिंदी में पढी, अंगरेज़ी में पढी और अब बंग्ला और गुजराती में पढी जायेगी।
लेकिन फिर किसी ने कहा कि कहानी पढने से ज़्यादा सुनने में अच्छी लगती है। याद हैं वो दादी अम्मा-नानी अम्मा की कहानियां! जिन्हें सुनते-सुनते बचपन मीठी नींद सॊ जाया करता।
आख़िर में मिलते हैं इरफ़ान साहब, जो मेरी कहानी को ज़बान देते हैं, जिसे आप चलते-फिरते कहीं भी सुन सकते हैं।
तो, आइये और सुनिये एमएफ़ हुसेन की कहानी।”


स्टूडियो में इसे रिकार्ड कराते हुए वो बडॆ ही स्पॊर्टिंग अंदाज़ में टेक-रीटॆक दॆतॆ रहे। बस ये ज़रूर बॊले कि लिपसाउंड और न्वाएज़ वग़ैरह एडिट कर लेना।
आटोग्राफ़, फ़ोटो, पैर छूना और हाथ मिलाना… हर कोई हुसेन साहब को इतने नज़दीक पाकर खुश था। एक साहब बोले ‘मेरे लडके के सिर पर हाथ रख दीजिये’ ‘सिर पर हाथ रखूंगा तॊ ये गन्जा हो जायेगा’ हंसते हुए उन्होंने उसे गले लगा लिया।
घर लौटते-लौटतॆ रात के ढाई पौने तीन बज गये होंगे। बाहर ही खडे-खडॆ कुछ और बातें हॊती रहीं अचानक उन्हें याद आया कि सुबह की फ़्लाइट है। ड्राइवर से कार की हेडलाइट जलवाई और टिकट में टाइम दॆखने लगे। फ़्लाइट 5.30 बजे की थी। बोले आप कैसे जायेंगे। ‘बाइक से’ मैंने कहा और इजाज़त ली। बॊले रात का वक़्त है अगर बाइक पंचर हॊ जाये तो! बडी मासूमियत से उन्होंने पूछा ‘इसमें स्टेपनी नहीं हॊती!’ हम दोनों ठहाका लगा उठे। ये कन्सर्न और ये प्यार मैंने हुसॆन साहब के दिल में हमेशा पाया।
हुसेन साहब एक ज़मीनी इंसान थे। इंसानों से मिलने और उनके बारे में राय बनाने का उनका लंबा तजर्बा था। सितम्बर 2005 तक उनसे हुई लगभग सौ मुलाक़ातों के सौ रंग हैं और हर रंग उनमॆं छिपे बडप्पन की निशानदॆही करता है। मैंने उन्हें कभी उकताते हुए या तैश में आते हुए नहीं देखा। जीवन उनके लिये एक उत्सव था। एक शाम इंडिया इंटरनॆशनल सेंटर के कैफ़्टॆरिया में मिलना तय हुआ। वो दूर सामने की टॆबल पर कुछ दॊस्तों कॆ साथ बैठे थॆ जब मैं पहुंचा। मुझे आता दॆख वो खडॆ हॊ गये। शायद वो सबके साथ इसी तरह से पॆश आने के आदी थे। मॆरा परिचय सबसॆ कराया और जब तक हम साथ रहे उन्होंने मुझे अकेला महसूस नहीं हॊने दिया। लॊग कहते हैं कि वो वक़्त के पाबंद नहीं थे जबकि मॆरा अनुभव अलग ही रहा। मुझे हमेशा ये हैरानी हॊती रही कि बिना किसी अप्वाइंटमेंट डायरी, बिना किसी पीए के वो अपने इतने सारे अप्वाइंटमेंट्स कैसे याद रखते थे। नवासी-नब्बे साल की उम्र और क्या ग़ज़ब की याददाश्त! एक सुबह 10 बजे कुमार आर्ट गैलरी में मिलना तय हुआ था। एक दिन पहले ही वो दिल्ली आये थॆ। सुबह नौ बजे उनका फ़ोन आ गया- “हा हा हा कैसे हैं जनाब सैयद मॊहम्मद इरफ़ान साहब!” फिर बॊले “वो जो दस बजे मिलना था वो नहीं हो पायेगा। ऒबॆराय में मिलते हैं 1- 1.30 तक लंच पर।” मैं समझता हूं ज़्यादातर लोग शॊहरत और दौलत के हल्के फुल्के मक़ाम पर भी पहुंचकर उतने इंसान नहीं रह जाते। और ये बात भी हुसॆन साहब को शॊहरतआफ़्ता-दौलतमंद लॊगों से अलग करती है। वो क्या है जो हुसेन को भीड से अलग करता है इसका एक अच्छा अंदाज़ा एमएफ़ हुसेन की आत्मकथा को पढने से लग जाएगा बल्कि मैं तो कहूंगा इस आत्मकथा के आडियो वर्ज़न “सुनो एमएफ़ हुसेन की कहानी” को सुननॆ से कुछ और भी बातें पता चलेंगी। क्योंकि उन्होंने इंट्रॊडक्शन के अलावा चार चैप्टर ख़ास तौरपर इसी आडियो बुक के लिये लिखे थे। जब मैंने कहा कि आपने अपनी कहानी में ये कहीं नहीं बताया कि आप नंगे पैर क्यों चलते हैं! लॊग ये जानना चाहते हैं। तो वो इस पर लिखने को तैयार हॊ गये बल्कि बॊले “मैं सॊचता हूं दो-एक बातें मुझे और कहनी थीं वो भी अभी लिख दूं…किताब का अगला एडीशन जब आयेगा तब आयेगा, फ़िलहाल आप इन्हें इस आडियो वर्ज़न मॆं शामिल कर लीजिये क्योंकि ये तॊ अभी बन ही रही है।”
दूसरे तीसरे दिन फ़ॊन आया – “आ जाइयॆ टाइटिल मिल गया है।” ये उस पीस के टाइटिल की बात थी जो उन्होंने नंगेपांव चलने के संदर्भ मॆं लिखा था। पिछले ही महीने मैं उनके लिये हिंदी बुक सेंटर से कविताओं की कुछ किताबें छोड आया था। मैंने देखा उनके हाथ में उन्हीं में से एक किताब मुक्तिबॊध की प्रतिनिधि रचनाएं है। वढॆरा आर्ट गैलरी में उन्होंने मुझे अपनी उर्दू में लिखी वो कहानी बॊल-बॊल कर लिखवाई- बॊले शीर्षक इसी किताब से लिया है--
“मुझे क़दम-क़दम पर चौराहे मिलते हैं”

आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ़ मेडिकल साइंसॆज़, दिल्ली। यहां मुक्तिबॊध महीनों ख़ामॊश कोमा में लेटे रहे। एक दिन उनकी सांस चलते-चलते थककर बैठ गयी। लॊग जमा हुए और उनके शव को कांधा दिया। उनमें से एक कांधा एमएफ़ का था। ज़िंदगी में तो मिल नहीं सके, उनकॆ आख़िरी सफ़र में घाट तक पहुंचाने अपने क़दम उठाये। कहा जाता है कि किसी भी इंसानी शव के साथ कम-अज़-कम चालीस क़दम ज़रूर चलना चाहिये। क़दम तो उठाया मगर न मालूम क्या सूझी कि अपने जूते उतार फेंके और आज चालीस साल सॆ ये पैरों का नंगापन जारी है।
जूते न पहनना कॊई ऐब नहीं। हिंदुस्तानी तहज़ीब में जूते बाहर उतारकर घर में दाखिल हॊते हैं और ख़ासतौर पर खाने बैठें तॊ जूते उतारकर।
ये भी कोई बात हुई कि अपनी धरती के सीने पे पैरों में न मालूम किस जानवर की खाल लपेटे चलते फिरते रहें। इस धरती की सुनहरी मिट्टी की गरमी और मखमली घास की ठंडक को ज़रा अपने नंगे पैरों से छूकर तॊ दॆखिये, आपका हर क़दम ज़मीन को चूमने लगेगा। ज़मीन का नशेब-ओ-फ़राज़ यानी उतार चढाव आपके पैरों में ज़िंदगी का रक़्स भर दॆगा। फिर सफ़र चाहे कितना ही लम्बा हो आपके क़दम थक नहीं पायेंगे।
हम हिंदुस्तानियॊं ने सदियों से अपने पैरों को बिना किसी रोकटोक के खुला छॊड रखा था कि अचानक ही अंग्रॆज़ हमारे मुल्क में बूट-सूट लॆकर घुस पडॆ और बर्तानवी टोप की धौंस ने हमारे गले में टाई कस दी और पैरों को जूतों में जकड दिया। ये अंग्रॆज़ी जूतों का राज कोई डॆढ सौ साल चला और जब निकाले गये तो आज भी कहा जाता है कि अंग्रेज़ तो गये मगर अपनी औलादें काफ़ी छोड गयॆ। और ये हमारॆ दॆसी अंग्रेज़ ही हैं जिन्होंनॆं एमएफ़ को बम्बई वेलिंगटन क्लब से डिनर के बीच ही बाहर निकाल दिया। वजह! नंगेपैर ।
ये नंगेपैर जो पार्लियामेंट जा सके, राष्ट्रपति भवन कॆ ग़ालीचों पर चल सके और बाग़ात की सैर की। मगर अपने ही मुल्क के किसी क्लब में नंगेपैर का दाख़ला मना।
ये एमएफ़ के नंगेपैर पर कई क़िस्सॆ कहानियां लिखी गयीं। किसी ने एमएफ़ को चलते फिरतॆ दॆखकर टोका- ‘जूते कहां छोड आये?’
जवाब दिया- ‘जूते हों तो कहीं छॊडूं! क्या करूं मेरी क़िस्मत में जूते ही नहीं लिखे।’
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हुसेन साहब समय-समय पर फॊन करते और काम की प्रगति का हाल हवाल लेते। मुझे कोई बात पूछनी हॊती तो मैं फ़ॊन कर लॆता। प्रॊग्राम लगभग पांच घंटे का बन रहा था। म्यूज़िक के लिये हुसेन साहब बहुत पर्टीकुलर थे। बॊले गजगामिनी के कुछ म्यूज़िकल हिस्से भी इस्तॆमाल कीजिये। उन्हॊंने एक दिन ऐलान किया कि म्यूज़िक डायरॆक्टर समेत प्रॊडक्शन टीम के सभी सदस्यों को गजगामिनी दिखाएंगे। रात दस बजे के आसपास हम सभी ने साउंड स्टूडियो में हुसेन साहब के साथ गजगामिनी देखनी शुरू की। वो बीच-बीच में फ़िल्म को रुकवा दॆतॆ और फ़िल्म रिवाइंड करवाते। ऐसा लग रहा था कि वो सारी रात इस फ़िल्म कॆ हिस्सों पर बात करते रहेंगे। उन्होंने इस फ़िल्म को बनाने के बीच हुए कई तजुर्बे शॆयर किये और कई ऐसे एनेक्डोट्स बताए जो अब तक कहीं प्रकाशित नहीं हुए हैं।
हुसेन साहब ने जो क्रियेटिव फ़्रीडम मुझे दी उससे मुझे आउट आफ़ द बाक्स सॊचने का हौसला बंधा। जब मैंनें उनको पैकेजिंग की डमी डिज़ाइन दिखाई और कहा कि ये तो बस नमूने के लिये है, फ़ाइनल डिज़ाइन आपको ही बनानी है। इस पर वो डिज़ाइन दॆखकर बहुत खुश हुए और बोले आपने अच्छी बनाई है इसी को फ़ाइनल कीजिये। मैंने बार-बार चाहा कि डिज़ाइन में वो कोई फॆरबदल करॆं पर वो अपने फ़ैसले पर अटल रहे। यहां तक कि जो ड्राइंग्स मैंने चुनी थीं, वो भी वही रहीं और कलरथीम जो मैंने ब्लैक ऐंड व्हाइट सजेस्ट की थी उसे भी उन्होंने जस का तस रखने दिया।
आज जब स्मॄतियों को खंगालने बैठा हूं तो बस ऐसी ही मन को अच्छी लगने वाली बातें एक दूसरे सॆ आगे निकलने की कोशिश कर रही हैं। यादों की शॄंखला टूटने का नाम नही लॆ रही है।
बहरहाल हुसेन साहब इस आडियो वर्ज़न की पॆशकश से बहुत खुश हुए।

मा-अधूरी, दादा की अचकन और महमूदा बीबी जैसी कहानियां सुनते हुए उनकी आंखें भर आई थी।
फिर तो अपने दॊस्तो और चाहनेवालों को उन्होंने दॆश सॆ लॆकर विदॆश तक इस आडियो वर्ज़न के तॊहफ़े दिये, महफ़िलों और यारों के जमघट के बीच बस यही धूम रही।
उस दिन फ़िल्म ऐक्ट्रेस तब्बू आ गयीं। हुसेन साहब उनको भी “सुनो एमएफ़ हुसेन की कहानी” का एक सेट देना चाहते थे। मुझसे बॊले है क्या? नहीं था। बोले- “आज ही घर में बोरिया न हुआ।” सब लोग हंस पडॆ। वो हॊटल ताज में रुकी थीं जहां सुबह मैंने एक सेट पहुंचवाया।
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बाद की मुलाक़ातों में वॊ अपनी कामेडी फ़िल्म की बातें किया करते थे जिसे वो बस्टर कीटन कामॆडी स्टाइल में बनाना चाहते थे। फ़िल्म पूना, पटियाला और पटना से मुम्बई आई तीन कामकाजी लडकियों के जीवन के इर्द गिर्द बुनना चाहते थे। वॊ मुझे इस फ़िल्म की टीम का हिस्सा मानते थे और स्क्रिप्ट की कई बारीकियां डिस्कस किया करतॆ थॆ। ये तीनों लडकियां एक वर्किंग वीमेन्स होस्टल में रहती हैं जिसकी वार्डन के रोल के लिये वो नादिरा बब्बर को कास्ट करना चाहते थॆ।
हमारी आखिरी मुलाक़ात ऒबराय हॊटल में हुई। लौटते हुए वॊ फ़िल्म इक़बाल की बहुत तारीफ़ करते रहे। अपनी कामेडी फ़िल्म के शुरू न कर पाने की वजह नया प्रोजेक्ट बताते रहे। वो अपने खिलाफ़ दायर तमाम बॆसिरपैर के मुक़दमों की तफ़्सील बताते रहे। उन्होंने बताया कि दॆश भर मॆं बिखरे हुए तमाम मुक़दमों के चक्करों में उनका बहुत सा पैसा और वक़्त बर्बाद हॊता है। उन्होंने यह भी बताया कि उनके वकील सारे मुक़दमों को दिल्ली लाने की कॊशिश कर रहे हैं और यह भी कि उन्हें लगता है जैसे उनपर जज़िया लगाया जाता है। यह कहते हुए मैने उनके चॆहरे पर पहली बार खीझ देखी।
इसके बाद वो चले गये थे।
1964. नफ़रत के झंडाबरदारों के बारे में उन्होंने अपनी कहानी में कहा-
“…खुली हवा में उनका दम घुटने लगता है। ये तंगनज़र अपनी चालबाज़ अक़ल से, इंसान की हासिल की हुई बुलंदियों को मिटाने में लगे रहते हैं। ये बुराईपसंद लोग, कुंवारेपन के मासूम माथे पर लगी बिंदिया को भी कलंक का टीका ठहराने से बाज़ नहीं आते। ये रीतिरिवाजों के ठेकेदार अक़ल और समझ के पहरेदार, संस्कॄति और सभ्यता के चौकीदार लट्ठ लिये बस्ती की गलियों में फिरते रहते हैं। अंधेरी रातों में खुली खिडकियों में बंद आंखें तलाश करते रहते हैं। बंद मुट्ठी में जलन और नफ़रत की आग से उनकी उंगलियां झुलस रही हैं…।” (सुनो एमएफ़ हुसेन की कहानी, वाल्यूम-3, ट्रैक-6)
हुसेन साहब को पेंटिग बनाते हुए देखना भी एक नया अनुभव था। वढेरा आर्ट गैलेरी में ऊपर वो कोई बहुत बडा स्पेस नहीं था पर रॊशनी पर्याप्त थी। मुझसे बोले Meenaxi का म्यूज़िक बन कर आ गया है आपको सुनाता हूं। फिर लडके को कुछ रंग बाज़ार से लाने को कहा। म्यूज़िक चलता रहा और बीच-बीच में वो उन गानों के बनने की प्रक्रिया और अपनी सोच डिस्कस करते रहे। कैनवस 2” x 2.30” आकार के थे। हुसेन साहब ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ गये थे। उन्होंने वो कुर्ता पहना था जिसका दामन आगे से काटकर उन्होंने हटा दिया था। घंटों काम करते हुए रमे रहने वाले हुसेन साहब काम कर चुकने के बाद अपने ब्रश खुद साफ़ करते, खुद सारे रंगों के डिब्बे बन्द करते और सारी इस्तेमाल हो चुकी चीज़ों को उनको उनकी जगह पर रखते।
ज़िंदगी के लम्बे इम्तेहानों ने हुसेन साहब को मानवीय मूल्यों में गहरी आस्थावाला चित्रकार ही नहीं इंसान भी बनाया। एक बडा आदमी हर मामले में बडा होता है और छोटों को भी बडप्पन के एहसास से भरता है। हुसेन साहब को समझने और समाज में उनके अवदान के आकलन में समय लगेगा। अगर यॆ थॊडा सा समय मैंने उनके साथ न बिताया हॊता तॊ सच मानिये मॆरॆ लिये इस बात पर यक़ीन करना नामुमकिन होता।
समयांतर अगस्त 2011 में प्रकाशित

Saturday, June 11, 2011

हुसेन साहब आप अक्सर याद आयेंगे !

मार्च २००३ की एक रात १.३० बजे का वक़्त। हुसेन साहब दिल्ली के एक साउंड स्टूडियो में इतने तारो ताज़ा कि जैसे दिन का वक्त हो । वो लाइनें रिहर्स कर रहे थे टेक पर टेक दे रहे थे ...ये उस आडियो बुक के प्रोडक्शन के दौर की बात है जिसे बनते हुए देखने और सुनने के लिए उनकी बेताबी हैरान कर देने वाली थी। "सुनो एमएफ़ हुसेन कि कहानी" नाम उन्होंने ही रखा ...पहले वो रखना चाहते थे "सुनो सुनो एमएफ़ हुसेन की कहानी" फिर खुद ही बोले इसमे मुनादी वाला सेन्स आ रहा है। ये उनकी लिखी आत्मकथा "एमएफ़ हुसेन की कहानी अपनी जुबानी" की अविकल प्रस्तुति है। इसमें और क्या क्या है ये बातें यहाँ इसी ब्लॉग पर मैं आपसे साझा करता रहा हूँ जो कि थोड़ी कोशिश के बाद आपको यहाँ मिल ही जायेंगी।




फिलहाल बस ये है कि दो दिनों से मन कुछ उचाट सा है ...ये जैसे किसी अपने को खोने जैसा है।



इस ऑडियो बुक को बनाने में जो क्रिएटिव फ्रीडम उन्हों ने मुझे दी और जो कदम ब कदम साथ चलने का जज्बा उन्होंने दिखाया वो सिर्फ वही कर सकते थे । "दादा की अचकन" इस पेशकश के उन हिस्सों में से एक है जिसे सुनते हुए उनकी आँखों में आंसू हमने देखे।



आज सुबह फिर उनके साथ रेकॉर्डिंग sessions के कुछ hisse सुने...



Bana bana ke ye duniya mitayi jati hai,
Zaroor koii kami hai jo payi jati hai.

इस शेर के कई टेक वो बिना मेरे कहे ही देते रहे जैसे इस बात की भीतरी परतें खोलना चाहते हों।





आइये सुनाते हैं आपको हुसेन साहब की आवाज़ः


Saturday, May 14, 2011

कल मेरी सालगिरह पर आपने मुझे बधाइयाँ भेजीं शुक्रिया !


शुक्रिया अदा करते हुए आपको एक क़व्वाली सुनवाता हूँ। यह मेरे उस खजाने से है जिसके मोती आप गुज़रे बरसों में मेरे इस ब्लॉग पर गाहे बगाहे चुनते रहे हैं। ये बस एक बहाना है आपका दो घड़ी का साथ पाने का ।


Monday, May 9, 2011

सुनिए अबान से कहानी!


ये इस साल फर्स्ट में गया है। इसका नाम अबान है। हम इसे प्यार से गागू या गग्गू कहते हैं। ये सभी बच्चों की तरह सवाल बहुत पूछता है जैसे कि "क्या हमारी दुनिया की भी ज़मीन है?"
यहाँ आप उसकी बनायी हुई कहानी उसी से सुन सकते हैं। संगीत के साथ पेश मैं कर रहा हूँ.








Abaan with his father

Sunday, May 8, 2011

सुनिए टीना सानी को !

पिछले हफ्ते मेरे एक लिसनर सरदार लखविंदर सिंह ने मुझे घर बुलाया। वादा यही था कि मैं पूरा दिन उनके साथ रहूँगा जो मैंने निभाया भी। लखविंदर ग़ज़लों के बड़े शौकीन हैं। बंटवारे से पहले उनका परिवार पाकिस्तान में था। उनकी आत्मा अब भी पाकिस्तान में बसती है इसलिए अक्सर वो वहां जाते रहते हैं। बोले "मेरी दादी बड़ी भोली थीं, जब लोग घरों से बेघर होने लगे तो जो भी सोना चांदी उन्होंने ज़मीन के नीचे गाड़ा हुआ था उसे वहीं छोड़ गयी , बोली क्या होगा... कुछ दिनों में वापस आ जायेंगे ... ऐसा कभी हुआ है...कोई अपना घर छोड़ के कहीं जाता है? हम सैकड़ों साल से यहीं हैं यहीं रहेंगे"
बच्चों कि शादियाँ कर चुके हैं और अपने फैब्रिकेशन के मौजूदा कारोबार से घर गृहस्थी की बची हुई जिम्मेदारियां निभाते हैं। दिल्ली के पश्चिम विहार में रहते हैं। खुद गज़लें कहते भी हैं और श्रोता वो ग़ज़ब के हैं।
जगह जगह से इकठ्ठा किये हुए संगीत के नायाब मोती उन्हों ने मुझे सुनाये।
नूरजहाँ और मेहदी हसन के वो बहुत बड़े फैन हैं।
लखविंदर ek कोमल और बड़े दिलवाले हैं । उनके साथ गुज़रा वक्त संजो कर रखने लायक है।
जो संगीत मैंने लखविंदर जी के साथ सुना उसमें मुझे टीना सानी का गाया ये गीत बहुत अनोखा लगा जिसे मैं घर वापस होते ही भी गुनगुनाता रहा।
लीजिये आप को भी सुनाता हूँ .



अनोखा लाडला खेलन को मांगे चाँद रे ...





Tina Sani
Tina Sani was born in Dhaka, at the time East Pakistan. She studied in Kabul before moving to Karachi, where she earned a diploma in design. She was trained in classical music by Ustad Nizamuddin Khan and then by Ustad Amrohvi.
Tina Sani began working for an advertising agency in 1977. She was involved in all the creative aspects of advertising business, including listening to and evaluating the music that is an integral part of advertising.
She entered the professional world of singing in 1980, when producer Ishrat Ansari introduced her on TV in a youth programme hosted by Alamgir.
She was influenced by the great ghazal singers of like Malika Pukhraj, Begum Akhtar, Mukhtar Begum and Farida Khanum but has created her own style of singing. She gained much acclaim in Pakistan by singing the poetry of Faiz Ahmed Faiz including such poems as 'Bahaar ki ek shaam' and 'Bol' composed by Arshad Mehmood. She renders poetry of contemporary poets with ease and is equally comfortable singing works of Zauq, Ghalib and Mir Taqi Mir; the immortals of Urdu poetry.

(from Wikipedia)