दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Friday, June 29, 2007

आज एक आदमी दिखाई दिया. उसका दाहिना हाथ नहीं था. वह अपनी कार में बैठा और ड्राइव करता हुआ चला गया. मैंने सुधीर से कहा "देखो! ये आदमी एक हाथ से कार चला रहा है!"
मुनीष बोला- "उसे ड्राइविंग लायसेंस कैसे मिला?"

दृश्य एक, सरोकार अलग अलग.

फ़राह मेरी छोटी बेटी का नाम है. सेकंड स्टैंडर्ड में है. जब वो प्ले ग्रुप में थी उसने एमएफ़ हुसेन से एक पार्टी में पूछा "आप नंगे पैर रहते हो आपके पैर कोई कुचलता नहीं है?"

आप तो जानते हैं कि हुसेन नंगे पैरों के लिये अलग से पहचाने जाते हैं.
आप यह भी जानते हैं कि स्कूल बसों की भीड में बच्चों के पैर एक दूसरे को कुचलते रहते हैं और वो अपने जूतों की वजह से तकलीफ़ कम मह्सूस करते हैं.
मैंने हुसेन के नंगे पैरों पर कई तरह की बातें और जिज्ञासाएं सुनी हैं लेकिन फ़राह की चिंता उन सब से अलग है.

बहरहाल छिब्बरजी ने बताया कि जब वो ड्राइविंग लायसेंस के लिये गये तो अफ़सर ने उनसे कहा- अपने दोनों हाथ ऊपर करो!
पता चला कुछ ऐसे लोगों को को भी ड्राइविंग लायसेंस इश्यू किये गये हैं जिनके दोनों हाथ नहीं हैं.

Monday, June 25, 2007

दिल ने फिर याद किया !

साइलेंट इरा से साउंड इरा में क़दम रखते ही फ़िल्मों में गाने बजाने की एक ज़बर्दस्त दुनिया अंगडाई लेने लगी.
आज हम आसानी से कुछ पुराने गायकों, संगीतकारों और गीतकारों के नाम लेकर समझते हैं कि हमने अपनी फ़िल्म संगीत की विरासत से अपना वास्ता जोड लिया. केएल सहगल, कानन बाला, तिमिर बरन, केसी डे, पंकज मलिक, देविका रानी, नूरजहां, शमशाद बेगम, सुरैया और गीता दत्त होते हुए शायद आप उमा देवी तक का नाम ले लें. रफी, मुकेश, किशोर, मन्ना डे और लता, आशा, तलत तो नए में ही गिने जाते हैं.

गायिका सुशीला 1938


अब मैं नेमड्रॉपिंग का खतरा उठाऊंगा क्योंकि ये कुछ ऐसे नाम हैं जिनके बग़ैर फिल्म म्यूज़िक का ज़िक्र अधूरा रहता है. इन्हीं लोगों की यादों को समर्पित है एफएम गोल्ड के रेडियो मैटिनी तीन से छः का यह 'दिल ने फिर याद किया' सेक्शन. संडे की शाम 5 से 6 बजे तक आप सुन सकते हैं हिंदी फिल्मों के प्रारंभिक दौर का दुर्लभ संगीत और अब काल के गाल में लुप्त हो चुके महारथियों का ज़िक्र.

कुछ बिसरे गायक-
1. सुरेश
2. गोविंदराव टेम्बे
3. बिब्बो
4. सुरेंद्र
5. अरुण कुमार
6. विष्णु पगणीस
7. सरदार अख़्तर
8. इला घोष
9. रामदुलारी
10.ख़ान मस्ताना
11.श्याम
12.एस डी बातिश
13.जीएम दुर्रानी
14.चितलकर
15.कल्याणी
16.पारुल घोष
17.धनंजय भट्टाचार्या
18.अणिमा दासगुप्ता
19.सुलोचना कदम
20.अमृत लाल
21.माया बनर्जी
22.ज़ीनत बेगम
23................सूची जारी है!


गुनगुना सकें तो गुनगुनाइये...
फिल्म्-सफर का ये गीत्त "कभी याद करके गली पार करके चली आना हमारे अंगना......"
आवाज़ें हैं बीणापाणि मुखर्जी और चितलकर की.
गीत लिखा है अपने गोपाल सिंह नेपाली ने और धुन ज़ाहिर है चितलकर ने ही बनाई है यानी सी.रामचंद्र ने.
काश कि पॉडभारती वाले देबाशीष मुझे ये बता देते कि इस गीत को उसी तरह कैसे यहां चढाऊं जैसे वो अपने पॉड्भारती के साउंड चढाते हैं. मुझे कोई और प्लेयर पसंद नहीं.

Sunday, June 24, 2007

रेडियो मैटनी 3 से 6


दिल्ली में अब दस से ज़्यादा एफएम चैनल्स हैं जो 24x7 प्रसारण करते हैं.मैं इनमें से एक पर रेडियो जॉकी हूं. इसका नाम है एफएम-गोल्ड. इसे आप 106.4 मैगाहर्ट्ज़ पर दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में सुन सकते है. जालंधर में ये आपको एफ़एम 107.2 मैगाहर्ट्ज़ पर सुनाई देता है जबकि हिन्दुस्तान के किसी भी कोने में आप इसे शॉर्टवेव 31 मीटर बैंड पर सुन पाते हैं. ये शॉर्टवेव पर कैसे पहुंचता है इसकी ख़बर प्रसारकों को भी नहीं है. श्रोताओं की चांदी है और टेक्निकल लोग इसका ये लीकेज रोक भी नहीं पा रहे हैं. कहा जाता है कि प्रायवेट चैनेल्स की तकनीकी प्रसारण गुणवत्ता के सामने यह कहीं नहीं ठहरता और यह भी उडती हुई ख़बरें सुनी जाती हैं कि इस चैनेल को सैबोटाज करने के लिये प्रशासनिक मशीनरी प्रायवेट ऑपरेटरों के साथ गहरी सांठगांठ में मुब्तिला है. सुदूर चीन और भारतीय उपमहाद्वीप से मिलनेवाली ईमेल्स और चिट्ठियां बताती हैं कि इस चैनेल की साख़ अच्छी है और वजह ये बताई जाती है कि इसकी पहचान अलग है क्योंकि बाक़ी सारे चैनेल एक जैसा ही संगीत बजाते हैं, एक को दूसरे से अलग कर पाना और पहचानना मुश्किल है. मुनाफ़े-टीआरपी के चक्कर में बेसिरपैर की प्रोग्रामिंग करते हैं. इसके उळट समाचारों और जानकारियों के साथ एक खास दौर का संगीत ही इस चैनेल पर सुनाई देता है. लोग नॉनस्टॉप-नॉनसेंस चैटिंग को एक सीमा तक ही झेलते हैं और वापस पुराने गानों और जानकारियों की दुनिया में लौट आते हैं.
इस परिचयात्मक नोट के लंबा खिंच जाने से मैं अभी तक अपनी बात शुरू नहीं कर पाया हूं जिस बात के लिये मैंने ये पोस्ट लिखने का मन बनाया इसलिए सीधे मुद्दे की बात पर आता हूं.
शनिवार और इतवार दोपहर तीन बजे से छः बजे तक का वक़्त एफएम पर जिस प्रोग्राम के लिये मुक़र्रर है उसका नाम है- 'रेडियो मैटिनी तीन से छः', इस प्रोग्राम में किसी फ़िल्म को लेकर उसके बारे में बात होती है और उस फ़िल्म का साउंडट्रैक बजाते हुए गाने और फ़िल्म की कहानी सुनाई जाती है. भारी संख्या में श्रोता इसमें फोन करके हिस्सा भी लेते हैं. इस प्रोग्राम का आखिरी घंटा पुराने और दुर्लभ गीतों को समर्पित है जिसका ज़िक्र जल्द ही करूंगा. तो रेडियो मटिनी में आम-तौर पर यह विवेच्य फिल्म पुरानी ही होती है. अब तक मैं इसमें प्रमुख रूप से 'अलबेला', 'आग', 'सूरज और चंदा', 'तीसरी क़सम', 'मंडी', 'दिले नादां', 'भूमिका' और 'कथा' फिल्में ले चुका हूं. आज मैने जो फ़िल्म उठाई थी वो थी 'सोने की चिडिया'.

"सोने की चिडिया" में मुझे कभी 'भूमिका' और कभी 'मेघे ढका तारा' की याद आती रही. हालांकि ये दोनों ही फ़िल्में 'सोने की चिडिया' के बाद बनीं हैं.
इसे लिखा और प्रोड्यूस किया है इस्मत चुग़ताई ने, निर्देशक शाहिद लतीफ़ हैं, संगीत ओपी नैयर का है, गीत साहिर लुधियानवी , मजरूह सुल्तानपुरी और कैफी आज़मी ने लिखे हैं. फ़िल्म 1958 में बनी थी. बॉक्स ऑफ़िस पर तब इसकी क्या रिपोर्ट रही,आप बताएंगे तभी हम जान पायेंगे. फ़िल्म में नूतन, तलत महमूद और बलराज साहनी प्रमुख कलाकार हैं. धूमल इसमें बन रही फ़िल्म के टिपिकल प्रोड्यूसर बने हैं जिन्हें बलराज साहनी एक प्रसंग में बेवक़ूफ़ बताते हैं.
गाने जिस क्रम में आते हैं वो इस प्रकार है---
1. बेकस की तबाही के सामान हज़ारों हैं/ आशा भोंसले
2. प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी/ तलत-आशा
3. छुक-4 रेल चले चुन्नू-मुन्नू आयें तो ये खेल चले/ आशा
4. सच बता तू मुझपे फ़िदा/ तलत-आशा
5. रात भर का है मेहमां अंधेरा किसके रोके रुका है सवेरा/ रफी
6. सइयां जब से लडी तोसे अंखियां/ आशा

इन गीतों के अलावा इसमें कैफ़ी आज़मी की मशहूर नज़्म भी है जिसका पार्श्व पाठ बलराज साहनी के लिये खुद कैफ़ी आज़मी ने किया है -

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुट्पाथ पे नींद आयेगी
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड्की इसी दीवार में खुल जायेगी.....

फिल्म में ये नज़्म पूरी रखी गई है, मैं इसके इतने अंश को जारी करते हुए उम्मीद करता हूं कि आगे तो आपको याद ही होगी. फिल्म में एक फिल्म का फ़ायनांसर-प्रोड्यूसर है जिसके सामने एक इंक़लाबी शायर श्रीकांत(बलराज साहनी) फिल्म के डायरेक़्टर की बात रखने के लिये ये नज़्म सुना रहा है. प्रोड्यूसर अपने बाल नोच रहा है और "कोई खिड्की इसी दीवार में खुल जायेगी" सुनने पर अपने कमरे की खिड्की को बडी चिंता के साथ देखता है.



'सोने की चिडिया' लछ्मी या लच्छो (नूतन) के जीवन की दुख भरी दास्तान है. लछ्मी एक युवती है जिसके मां-बाप मर चुके हैं और कोई भी उसे अपनाना नहीं चाहता. दूर की रिश्ते के मामा मामी उसे दूर के रिश्ते की काका-काकी के मत्थे मढ्कर चलते बनते हैं. काका कीमियागर है और सोना बनाने के प्रयोग में दिन-रात जुटा रहता है, आदमी वो दिल का अच्छा है. घर में कलह एक स्थाई भाव है. घर का बडा बेटा अपनी पत्नी के साथ घर छोड कर ससुराल जा बसता है. छोटा शराब और बदकारियों से घिरा क़र्ज़ में डूबता जाता है. जब क़र्ज़ चुकाने में वह अपने को बेबस पाता है तो एक रात लछ्मी को किसी बहाने से घर के बाहर भेजता है. दरअस्ल ये उसकी एक चाल होती है ताकि इस सौदे के एवज़ वह अपने क़र्ज़ से मुक्त हो जाये. जिन ग़ुंडों की सेवा में लछमी भेजी जाती है उनसे बचती-बचाती आखिरकार वो एक थियेटर में शरण पाती है जहां संयोग़ से उसे गीत गाता पडता है.

गाने और अभिनय से उसका चर्चा चारों तरफ चल निकलता है और जल्द ही वो फ़िल्मों में एक कामयाब हीरोइन बन जाती है. घर में अब लछ्मी कमाऊ 'सोने की चिडिया' साबित होती है. उसका निजी जीवन दासों जैसा ही है क्योंकि सारा हिसाब किताब उसका 'भाई' ही रखता है.

थॉडे समय के लिये उस्के जीवन में अमर(तलत महमूद) आता ज़रूर है लेकिन वह भी एक लोभी और मतलबपरस्त किरदार साबित होता है. प्यार में ठुकराई गयी लछ्मी एक मेंटल ट्रॉमा से गुज़रती है. हारकर वह आत्महत्या का फैसला करती है लेकिन "रात भर का है मेहमां अंधेरा किसके रोके रुका है सवेरा" सुनकर प्रेरित होती है और जीवन में वापस आ जाती है क्योंकि ये गीत और कोई नही, लछ्मी का पसंदीदा इंक़लाबी शायर श्रीकांत गा रहा होता है.

लछ्मी पहले अमर के साथ भी शादी करने के बाद बहुत सारे बच्चे पाने की तमन्ना रखती थी और वही इच्छा श्रीकांत के साम्ने भी ज़ाहिर करती है. श्रीकांत स्वाभिमानी और मूल्यों में विश्वास रख्नने वाला आदमी है और वह लछ्मी के कलाकार से सहमत नहीं है. तभी एक दिन उसे फ़िल्मों में काम करने वाले एक्स्ट्राओं के जीवन का भयावह अंधेरा दिखाई देता है. वह इन एक्स्ट्राओं के जीवन में थोडी खुशहाली लाने के लिये एक ऎसा समझौता करता है जिसे समझना मुश्किल है. क्या था वो समझौता? जानने के लिये देखिये सोने की चिडिया.
इस्मत चुग़ताई ने कहानी का ऐसा मार्मिक ताना बाना बुना है कि वह किसी फार्मूले की याद नहीं दिलाता. शाहिद लतीफ ने कुछ चालू डिवाइसेज़ का ऐसा इस्तेमाल किया है जिससे उनमें नयी ताक़त भर गयी है. फिल्म एक्स्ट्राओंवाले सीक्वेंस में तो आप भूल ही जाते हैं कि यह फीचर फिल्म है, यहां ये एक डॉक्युमेंट्री का काम करने लगती है. बलराज साहनी हमेशा की तरह एक अच्छे एक्टर नहीं बल्कि ज़िम्मेदार आदमी दिखाई दिये हैं.

Monday, June 18, 2007

फूल का कहना सुनो



चार साल पहले मैंने कहानियों की एक किताब ले तो ली पर उसकी समीक्षा लिखके आज तक न दे सका. ऎसा मेरी काहिली से हुआ,ये मैं नहीं मानता. शायद इस काम से मिलनेवाले पैसों की बनिस्बत ज़्यादा पैसोंवाले काम को मैने तरजीह दी.इसका कोई मलाल भी नहीं है कि मैने समीक्षा क्यों नहीं लिखी; और सच तो यह है कि पृथ्वी को चन्द्रमा की कहानियां मेरे सौन्दर्यबोध का हिस्सा नहीं थीं इसलिये एक पाठ्यक्रमीय दबाव के तहत पढ तो गया लेकिन एक कॉंस्टेंट रेज़िस्टेंस बना हुआ था. बहरहाल अब उस वाक़ये को याद करने का अभी क्या तुक है.
इस संग्रह में एक बच्ची के ऑब्ज़र्वेशंस फूल का कहना सुनो नाम से दर्ज हैं और नौ उपशीर्षकों में उन्हें बांटा गया है. मैने अब तक इस किताब को ज़रूर ही किसी पढाकू पाठक के हवाले कर दिया होता. इसी फूल का कहना सुनो के लिये ये मेरे सरमाए का अब भी हिस्सा है. मैं चाहता हूं कि इसका एक टुकडा आप भी पढें. तो लीजिये पेश है-


बाज़ार में गुम तो गुम

घर से थोडी दूर पर किराना दुकान है. पर हमारे घर का सामान वहां से नहीं आता. हमारे घर का बहुत सा सामान वहां नहीं मिलता. वह दुकान कच्चे घरों के लिये है. मेन रोड तक बाहर निकलो तो और दुकानें हैं...उनसे और आगे बढो तो और दुकानें हैं. आगे बढते-बढते गोल बाज़ार पहुंच जाओ तो इतनी दुकानें हैं...इतनी दुकानें हैं कि उनके बीच घूमते-घूमते थक जाओ.
गोल बाज़ार से बाएं जाओ तो नवीन बाज़ार है. गोल बाज़ार से दाएं जाओ तो शास्त्री बाज़ार है. बाज़ार में ज़मीन की ओर उतरो तो भी दुकानें हैं...आकाश की ऊपर उठो तो भी दुकानें हैं...ओह! कितनी दुकानें! मुझे बाज़ार घूमना अच्छा लगता है.
शास्त्री बाज़ार में एक 'सुपर मार्केट' है- हम वहां से सामान ख़रीदते हैं. वहान सब मिलता है. वहां जाना मुझे अच्छा लगता है. वहान जाना मां को भी अच्छा लगता है. हम एक ट्रॉली ले लेते हैं और उसे धकेलते सामान के बीच गुज़रते हैं. मेरे दोनों तरफ़- मेरे सिर से ऊपर तक सामान होते हैं. मैं सामान से बनी सुरंग में होती हूं...रंग-बिरंगी सुरंग...थोडी-थोडी देर में जिसकी ख़ुशबू बदल जाती है. मुझे सामान को देखने के लिये उचकना पडता है. कई बार वे अपने आप मेरे ऊपर गिरते हैं और मां हडबडा जाती हैं. वे ज़मीन से उठाकर उन्हें अपनी जगह जमाने लगाती हैं. दुकान का लड्का आसपास रहता है तो लपकता हुआ पास आता है. तब मां छोड देती हैं गिरे हुए सामान को और आगे बढ जाती हैं. पीछे दुकान का लड्का उन्हें तुरत-फुरत जमा देता है. ऎसा हर बार होता है कि 'सुपर मार्केट' में मेरे ऊपर सामान गिरते हैं. मां खीझती हैं, पर मैं क्या करूं? मैं उन्हें नहीं गिराती, वे अपने आप मेरे ऊपर गिरते हैं.

पापा मेरे साथ रहते हैं तो ऊपर के सामान को देखने के लिये मैं उनकी गोद में जा सकती हूं. मैं पापा की गोद में रहती हूं तो मेरा सिर उनके सिर से भी ऊपर आ जाता है. ऊपर से देखो तो सब बदल जाता है. नीचे से देखो - जैसा ऊपर से नहीं दिखता. पर ऊपर से देखो तो नीचे रखे सामान नहीं दिखते--साफ़-साफ़, इसीलिये मां को नीचे झुकना पडता है. वे जब झुकती हैं, शर्माते हुए झुकती हैं. वे सामान को हाथ से उठाकर ऊपर लाती हैं- अपनी ऊंचाई तक, फिर उसे देखती हैं ग़ौर से. क़ीमत देखती हैं...देखती हैं कि उसमें कोई इनाम-विनाम है या नहीं.
चाय-पत्ती हमने वह ली--जिसके पैकेट पर 'दिन दहाडे लूट' छपा था. दो साबुन ख़रीदने पर एक मुफ़्त नहाने का साबुन हमने खरीदा. बर्तन मांजने के 'बार' के भीतर 'कार' निकलने का 'चांस' था. पाउडर हमने वह लिया जो एक ख़रीदने पर एक मुफ़्त मिल गया. सभी चीज़ों के भीतर इनाम छिपे रहते हैं. मां कहती हैं--भाग्य है तो किसी दिन कार भी मिल सकती है...नहीं तो वाशिंग मशीन तो मिल ही सकती है. कभी-कभी जब कामवाली बाई नहीं आती है तो मां को कपडा धोना पडता है...कितनी परेशानी होती है!
'सुपर मार्केट' में पांच सौ का सामान ख़रीदने पर एक कूपन मिलता है. कूपन को स्क्रैच करो तो तुरंत इनाम निकलता है. हम इतना सामान हर महीने ख़रीदते हैं कि कम-से-कम तीन कूपन हमें मिल जाते हैं. कभी-कभी तीसरे कूपन के लिये मां को सौ-दो-सौ का सामान और ख़रीदना पडता है. टोकनी से दो कूपन मैं चुनती हूं...एक मां चुनती हैं. 'स्क्रेच' तीनों को मैं ही करती हूं. मुझे स्क्रेच करना अच्छा लगता है. इनाम में कभी पोहे का पैकेट, कभी पाउडर का छोटा डिब्बा, कभी नमक का पैकेट, कभी कोई क्रीम निकलती है. जो चीज़ इनाम में निकलती है वो हम पहले खरीदे रहते हैं तो मां दुखी होती हैं कि अरे अब इसका क्या करेंगे? 'सुपर मार्केट' में रखे इनामी टीवी और वाशिंग मशीन अब तक किसी कूपन से नहीं निकले हैं...पर किसी दिन निकल सकते हैं.
घर में वापस आते ही हम उन सब चीज़ों को खोल डालते हैं, जिनके भीतर इनाम छिपे होते हैं. चाय-पत्ती को जार में उलट डालते हैं कि एक कूपन दिख जाये, जिससे मां सोने की दुकान से अपनी पसंद के गहने, एक मिनट के भीतर, दौड-दौडकर उठा सके. मां सोचती हैं कि एक मिनट में वे इतने गहने उठा लेंगी कि गहनों से लद जाएंगी. हमारे यहां रखे साबुनों के रैपर खुले रहते हैं.


आनंद हर्षुल की इस किताब के प्रकाशक हैं मेधा बुक्स. पता है- एक्स-11, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110 032 और इनका फ़ोन नंबर है- 011-22116672
क़ीमत-125/ पृष्ठ-125 हार्डबाउंड

Sunday, June 17, 2007

लाल किताब, हाफ़ पैंट और खडी चुंडी !


आज शाम जब रामपदारथ ने रामसनेही को एसएमएस किया तो साफ़ था कि ख़बर रामपदारथ तक पहुंच चुकी है. रामसनेही ने एसएमएस दबा लिया. लेकिन एक के बाद दूसरी मिस्ड कॉल्स से साफ़ था कि फ़ोन करना पडेगा. रामसनेही ने पुराने अड्डे के पास अर्चना सिनेमा के सामनेवाली सिगरेट की दुकान से फ़ोन किया, रामपदारथ ने बताया कि चाय का ऑर्डर दिया जा चुका है आ जाओ. दोनों दोस्त वहीं ज़मरूद्पुर की दुकान पर बतियाने लगे जहां उन्होंने बनावटी बातों पर पिछली बार चर्चा की थी.


रामसनेही: बात तो चल ही रही थी लेकिन इस बार गारद ने राहुल को दबोच लिया. फ़ोटो भी है.


(रामपदारथ फ़ोटो देखता है और कुछ अटपटे सवाल फ़्रेम करने लगता है लेकिन पूछ्ता कुछ और है)

रामपदारथ: लेकिन अभी तक तो आप ब्लॉग की दुनिया में जनतंत्र की बडी बात करते थे. यहां भी हल्का लाठीचारज होता दिख रहा है?

रामसनेही: असल में यहां बडी अच्छी-अच्छी बातें हुआ करती थीं. सब सहमत भी थे. लोग यह देख कर भी खुश थे कि पुराने नक्सली टाइप के लोग अब हैंडपंप आदि लगवाने की बातें करने लगे हैं. ख़ुशी का एक कारण यह भी था कि सरयू तट पर जमा भीड को इन हैंडपंपों से पानी पीपीकर दर्शन आदि की सुविधा रहेगी. फ़ोटो भी है.


रामपदारथ: यहां तक तो बात समझ में आई, लेकिन ये राहुल को दबोचा क्यों गया?

रामसनेही: कोई बहुत बडा रहस्य नहीं है. आप तो जानते हैं कि इन मिलन केंद्रों पर आम सहमति ये रही है कि समाजवाद आदि की बात करना, लकीर के फ़्कीर बने रहने का दूसरा नाम है. वामपंथियों को पहचानते ही यहां कौआरोर मच जाता है. मतलब यहां के ट्रैफ़िक साइनों में से ये बडा लोकप्रिय है. फ़ोटो देखिये.



रामपदारथ: तो क्या कुछ लोग लाल किताब लेकर पहुंच गये?


रामसनेही: नहीं ऐसा तो नहीं कहा जा सकता. और फिर राहुल टाइप के लोग भी क्या करें? अब गीता प्रेस की किताबों से तो अंश पोस्ट करेंगे नहीं. एक कहानी थी-- गुजरात में मुसलमानों की दुर्दशा पर. बस उखड पडे, कह सकते हैं चुंडी खडी हो गयी सबकी. एक का तो फ़ोटो भी है.



रामपदारथ: वैसे भी मुसलमानों की बात करना तो तुष्टीकरण माना जाता है, ऊपर से कहानी भी मुसलमान जैसे नामवाले लेखक की थी शायद?
रामसनेही: शायद क्या! थी ही. लेकिन इसकी बहुत चरचा नहीं होती कि हिंदी फ़िल्मों के सबसे अच्छे भजन मुसलमानों की टीम ने बनाए हैं? ...उदाहरणस्वरूप.. मोहम्मद रफी- नौशाद- शकील बदायूनी- के.आसिफ़ या महबूब...
रामपदारथ: नहीं ये तो ठीक है लेकिन आप विषयांतर कर रहे हैं.
रामसनेही: चलिये विषय पर ही आता हूं. माना जाता है कि इस तरह के विषयों पर उतनी देर ही बात की जानी चाहिये जितनी देर तक प्वॉइंटर हिलता रहे, मतलब किसी की तरफ रुके नहीं, बल्कि अच्छा तो ये हो कि सब बातें कर लेने के बाद हंसा जाए. गंभीर होने या गंभीर चर्चा का मतलब है कि अब आप राजनीति करने लगे.
रामसनेही:...और राजनीति तो सब गंदी हैं तो कपडे क्यों न साफ़ पहनें...हा..हा..हा.
रामपदारथ: हा..हा..हा..
रामसनेही: चलिये इस हंसी से लगा कि कुछ अच्छी शुरुआत हो रही है.
रामपदरथ: एक तरह से अच्छी शुरुआत तो होगी लेकिन एक और तरह से देखें तो गारद्पंथी कुछ बहुत अच्छे लेखकों की रचनाओं और अनुभवों के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो जायेंगे जोकि बुरी बात होगी.
रामसनेही: हां ये तो है. अब क्या करेंगे हाफ़ पैंट पहनकर अच्छी रचनाएं हो ही नहीं पातीं.
रामपदारथ: हाफ़ पैंट पहन कर अच्छी बातें सुनने का, पढ्ने का अभ्यास पता नहीं कब शुरू होगा? रामसनेही: अब तो नया एग्रीगेटर बनाने के लिये गोलबंदी भी सुनने में आ रही है. फ़ोटो देखिये.


रामपदारथ: इसमें आपका हाथ नहीं दिख रहा?
रामसनेही: आपकी पारखी नज़र को मान गये. हमारा हाथ अभी चाय का गिलास थामे हुए है. इससे फ़ुरसत मिलते ही इस शुभकार्य में शामिल होऊंगा.
रामपदारथ:चलिये अब चला जाए...ए लड्का! पैसा कितना हुआ रे!

Friday, June 15, 2007

दुनिया एक संसार है और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है !


-शादी कर ली? बच्चे कितने हैं??
-और सुनाओ नयी-ताज़ी?
-यार तू तो बहुत बदल गया! आवाज़ बडी मैच्योर लग रही है.
-मिस्टर प्रसून सिन्हा एक इम्पॉर्टेंट मीटिंग में हैं, एनी मेसेज सर ?
-पापा आपका फोन!
-अब ज़िंदगी में कोई मज़ा नहीं रहा यार...बस नौकरी है...दस से पांच का चक्कर है...घर गिरस्ती बीवी-बच्चे बस!
-सॉरी यार आज शाम की गाडी से पूना जा रहा हूं.
-पेंटिंग! अब पेंटिंग कहां?? तुम्हें बताती हूं इनके साथ रहते हुए रंग-ब्रश-कैनवस आज तक नहीं देखे.
-दिस इज़ वॉएस मेल सर्विस फ़ॉर 9818483456.आय एम नॉट इन द टाउन ऎट द मोमेंट, प्लीज़ लीव योर नेम, नंबर ऑर मेसेज अफ़्टर यू हियर द बीप.
Song fade in..
ये वो आवाज़ें हैं जो मुझे पिछले साल देश-भर में फैले दोस्तों को फ़ोन करने पर सुनने को मिलीं.
साहित्यकारों की स्मृतियां रेकॉर्ड करने के लिये यात्राएं जारी थीं और हर महीने छोटे-बडे शहरों या क़स्बों में होने का मौक़ा होता था. अब ऐसे में उन पुराने दोस्तों की याद लाज़िमी थी जो इन शहरों-क़स्बों में आ बसे थे.
बचपन के दोस्त, स्कूल के दिनों के साथी, कॉलेज के सहपाठी और तमाम दूसरे लंगोटिया यार. बचपन की शरारतें, लडकपन की अटपटी बातें, होश-ओ-हवास में खाई गई क़समें, दोस्ती निभाने के वादे और न जाने क्या क्या...अपनी-अपनी ज़मीन पर वक़्त की धूल तले जस का तस दम साधे पडा है. यादों का सिलसिला शुरू होता है और एक हल्का सा स्पर्श पाते ही एक पूरा दौर जवान हो उठता है.
Song fade in
कोई इसे वक़्त का सितम कहता है, कोई कहता है हालात बदल गये; किसी का मानना है क़िस्मत की बात.कोई पैरों में चक्के कहता है, पेट का सवाल. जितने मुंह उतनी बातें. सच क्या है ये तो फ़लसफ़ी ही जानें.शायर कहता है-'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता.' फिर किसी ने फ़रमाया "जो तुम चाहते हो उसे पाने की कोशिश करो,वरना जो तुम्हें मिलेगा उसे तुम पसंद करने लग जाओगे." एक रिक्शे के पीछे लिखा है-'जो मिल जाता है वो दुख है, जो नहीं मिलता वो सुख है.'
Song fade in
आज के सब-इंस्पेक्टर मिस्टर चंद्रमोहन शर्मा बीस साल पहले चुन्नू थे--एक सुरीले बांसुरीवादक. इतवार का दिन, स्कूल की छुट्टी और हम लड्के नदी किनारे एक ख़ामोश छांव में जम जाते थे...इधर-उधर की आवारागर्दी को एक सुरीली लगाम सी लग जाती थी जैसे ही चुन्नू की बांसुरी गा उठ्ती थी.
अब ये अच्छा है या बुरा कैसे कहूं लेकिन मिस्टर चंद्रमोहन शर्मा के शांत घर की दीवार पर टंगी बांसुरी आज धूल का बोझ उठा रही है और चुन्नू की कमर में टंगी सर्विस रिवॉल्वर उसके परिवार का बोझ.
Song fade in
और ये सफर दो जिगरी दोस्तों को ज़िंदगी के एक मोड पर फिर मिलने का मौक़ा देता है.
इन दस-पंद्रह बरसों में गंगा-जमना में न जाने कितना पानी बह गया है.
ये वो दोस्त हैं जिनके लिये एक दूसरे के बग़ैर जीना बडा मुश्किल था.
कॉफ़ी हाउस की मेज़ के दोनों तरफ़ इतिहास की किताब के दो फटे वर्क़. कॉफ़ी ठंडी होने को आई....'और सुनाओ नयी ताज़ी'..फिर एक ख़ामोशी, कभी न ख़त्म होने वाला मौन.
कहा जाता है कि दोस्ती जब बहुत पुरानी हो जाती है तो गुफ़्तगू की चंदाज़रूरत बाक़ी नहीं रह जाती. खामोशी की भी अपनी ज़ुबान होती है.
शायद यही सोच-सोचकर तसल्ली कर ली.
Song fade in
"मैं कब का मर चुका हूं सदाएं मुझे न दो!"
पोस्टकार्ड पर बस इतना ही लिखा था. न नाम न पता.
लिखावट का भी अपना चेहरा होता है, और वो चेहरा धीरे-धीरे यादों की एल्बम के धुंधलके से उभरता है और उभरती हैं तोडी गयीं वो पंक्तियां भी--
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड खजूर,
देखन में छोटो लगे घाव करे गंभूर.
और इस छोटी सी बात ने और भी गंभूर घाव किया-
"मैं कब का मर चुका हूं सदायें मुझे न दो!"
संवाद के नये साधनों का बढता शोर एक तरफ़ है और एक पुराने दोस्त का घोषणा-पत्र एक पोस्टकार्ड पर.
Song fade in
(...जारी रहेगा)

Thursday, June 14, 2007

आईना दर आईना


अगर हम चीज़ों को उनके असली नाम से पुकार सकते होते तो देशप्रेम को हम युद्धोन्माद पुकारते, देश पर शहीद हो गये को हम कहते मासूम युवकों को बलि चढाया जा रहा है, अख़बार लिखता कि अमुक ने कथित रूप से हत्या की, तो हम पढते अमुक को बचाया जा रहा है

हमारी मुठभेड़


कितने अकेले तुम रह सकते हो
अपने जैसे कितनों को खोज सकते हो तुम
अपने जैसे कितनों को बना सकते हो
हम एक ग़रीब देश के रहनेवाले हैं इसलिये
हमारी मुठ्भेड हर वक़्त रहती है ताक़त से
देश के ग़रीब होने का मतलब है
अकड और अश्लीलता का हर वक़्त हमपर हमला.


रघुवीर सहाय

Wednesday, June 13, 2007

भरे प्यालों की ऊब



वे पेट पीट रहे हैं
तुम गोटें पीट रहे हो
वे कंद-मूल खोद रहे हैं
तुम भाषा की जडें खोद रहे हो !

उन की घुटन में राम को पुकारा जाता है
और तुम्हारी घुटन में
राम को, हुक्काम को, इस उस तमाम को
काग़ज़ी दंगल में पछाडा जाता है.

उन का हुलास
उन की सूखी फ़सल के साथ डूब गया है

तुम्हारा हुलास
तुम्हारे फिर-फिर भरते प्यालों के साथ ऊब गया है.

उन का दुख? वे छिपा सकते तो छिपा जाते
पर वह उन के चेहरे की झुर्रियों में अंका हुआ है.
तुम्हारा दुख? तुम छपा सको तो छ्पा लोगे
यों भी वह तुम्हारी आस्तीन पर टंका हुआ है.

वे जन हैं--जो अपने को नागरिक भी नहीं जानते,
तुम नागरिक, नागर, जो अपने को जनकवि हो मानते.

धर्म = शून्य


धरम का दिन है- छुट्टी करो. धरम का दिन है -आज कोई काम मत करो! धरम का दिन है- आज तो भगवान ने भी विश्राम किया था !
अर्थात ? धर्म = अकर्मण्यता !
इतना ही क्यों ? जब भगवान भी विश्राम करते हैं तो धर्म भी कहां रहा- उसका चक्र भी तो थमा हुआ है !
अतः धर्म = शून्य !!

Tuesday, June 12, 2007

नारद उवाच: नारद द्वारा कड़ी कार्यवाही

नारद उवाच: नारद द्वारा कड़ी कार्यवाही

सोहरावत हउवा ?


लोकप्रिय बिरहा गायक की याद में.

नीचे पढें.

नसुडी को चाहिये नई भवानी

कोई छै साल पहले नसुडी यादव की जब मौत हुई तब भी और आज तक मैं उनके प्रति श्रद्धांजलि के दो शब्द न पढ सका न लिख सका. बिरहा प्रेमियों ने आहत मन से इस सच्चाई को स्वीकार किया होगा. बिरहा गायकी की एक बिल्कुल अनूठी शख्सियत की अनुपस्थिति हमेशा महसूस की जायेगी. वो मिर्ज़ापुर की ग़ल्लामंडी पल्लेदारी करते थे और साथी गायकों की अवहेलना और दुष्प्रचार के जवाब में इस तथ्य को पेश करते हुए दूने आत्मसम्मान का अनुभव करते थे.
हालांकि खुद नसुडी जहां भी होंगे, मेरी उपरोक्त पंक्तियां पढ्कर ज़रूर ही चिढ जाएंगे और बेसाख़्ता बोल उठेंगे "सरऊ जीतेजी तोहके नहीं बुझाइल, अब मरले बाद सोहरावत हउवा?"
नसुडी अपनी विशिष्ट शैली और बेबाकी के लिये जितने लोकप्रिय हुए उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है. कहते हैं कि नसुडी के आयोजनों में भारी पुलिस बंदोबस्त और प्रशासनिक मुस्तैदी से काम लिया जाता था. हाल के बरसों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के इलाक़ों में बदलते जातीय समीकरण और दलितों-पिछडों में बढती राज्नीतिक-सामाजिक जागरूकता और नसुडी की लोकप्रियता में संबंध तलाशा जाना चाहिये. हर सामाजिक आंदोलन के गायक होते हैं, शायद नसुडी भी ऐसी ही उथल-पुथल भरी सामाजिक-राजनैतिक परिस्थिति में एक परिघटना की तरह उभरे. ब्राह्मणवाद-विरोध और वर्चस्वशाली जातियों-वर्गों पर तीखे हमले नसुडी के सांस्कृतिक अजेंडा का अभिन्न हिस्सा हैं.
यहां पेश है नसुडी के एक नाइट लॉंग परफ़ोर्मेंस का आंशिक ट्रांस्क्रिप्शन----



मंदिर बनावेवाला आप, महजिद बनावेवाला आप. मुर्ती बनावेवाला आप. चंदा लगा के मुर्ती लेआवेवाला आप. ओम्मे बइठवला तोहहीं. अउर तोहहीं ऊ मुर्ती के नाम रखला कि फलना बाबा. औ पूजा करबा, चढइबो करबा, परसादियो रखबा, फिर चढा-ओढा के अपना खाऊ जाबा. त के तोसे महान बा? सारी सक्ती तोहरे में बा. औ जाए लगबा त दरवाजा बंद कर देबा, कहबा अब तू एही में रहा. अब हम जात हई घरे.

(सह गायक पूछता है): अउर एकाध दिन भुला जाएं, न बंद करें तब ?

नसुडी: तब कुक्कुर मूती बे ! कवन उपाय बा ? दरवाजा खुलल रही त कुक्कुर मूती. त सोचा! जब ऊ कुकुरे से मुतवावत ह मुहें में त तोहार मदद करी ? ओके कहेके चाही--मत मूता रे एही में हम हई. जब ऊ आपन मुंह नाही बचावत हौ, त तोहार मदद करी ऊ ? हम कहीला बइठावे के बइठाय द हर घरे में लेकिन मुर्ति क बात बतावत हई कि मदद करी त मानव करी. ई कहना बा--

तोहसे हौ ना महान कोई अरे दुनिया में
बेहडा पार लागी मानव के सरनियां में

त भइया, संसार में सबसे बडा नाम होला. जेतना बडा नाम भगवान का ओतना बडा नाम घुरहू का. दुन्नो नाम बराबर होला. भगवान कतल करिहें त भगवान के फांसी होई अउर घुरहू कतल करिहें त घुरहू के फांसी होई. वल्दियत से काम चलेवाला नाहीं हौ, कि तू कहला हम राम क लडिका हईं त छमा कई द? ई छमा-वमा वाला बात न रही. जे गलती करी तेकर फांसी होई. 302 के मुल्जिम होई.

आया है सो गया नहीं
राजा रंक फकीर
ना कोई को बिवाय मिले
ना कोई को लगे जंजीर!

त भइया ! आप लोग के आसिर्वाद के हमको भरोसा बा. आप लोग आसिर्वाद दे देइहैं त ई काया अगर रोड पर मर जाई तब्बौ एक गज कफन मिल जाई. अउर कवनो मंदिली में जाके मर जाईं त हम्मे कफन न मिली. औ भगवान-भगवान करी तब्बौ न मिली. तहार सब के संगत रही त हम्मे कुल चीज मिल जाई. एह से हमार मानव से जादा प्रेम रहेला. औ हम्मे भगवान-ओगवान के फेर नाहीं रहत कि हम्में भगवान मिल जइहें त खियइहें. तू मिलबा त खिया देबा, ऊ पट्ठा न खियाई. ऊ त दांत चियरले हौ मंदिर में. ऊ त खुदै हमार खात हौ, ऊ का खियाई ? जे चहिबा ओके तू खियइबा, महानता तोहरे में हौ के ओकरे में?

Monday, June 11, 2007

अश्क का दश्क


उपन्यासकार ओपिन्द्रानाथ अश्क
हिन्दी उचार्नों की करते रहे मश्क
घूम आये दूर-दूर
देस लौटे थके चूर
ग़लत, हाय! गल्त रहा बीत गया दश्क !

सलमा सुल्तान


उन्होंने दस साल पहले वॉलंटरी रिटायरमेंट ले लिया. चालीस साल पहले वो दूरदर्शन का पर्याय हुआ करती थीं. वो भोपाल की रहनेवाली हैं. इन दिनों दिल्ली में रहती हैं और अपना प्रोड्क्शन हाउस चलाती हैं. कुछ दिनों पहले उन्होंने डीडी न्यूज़ के लिये 'जलता सवाल' नाम की सीरीज़ बनाई थी. 'पंचतन्त्र से', 'सुनो कहानी' और 'स्वर मेरे तुम्हारे' जैसे प्रोग्रामों के अलावा कई डॉक्यूमेंट्रीज़ भी वो बना चुकी हैं। उनके पिता मोहम्मद असग़र अंसारी मप्र के कृषि मंत्रालय मे सेक्रेटरी रह चुके हैं, उनसे 18 साल बडी उनकी बहन मैमूना सुल्तान को मप्र की पहली महिला एमपी बनने का गौरव हासिल है. बडी बहन और पिता ने उन्हें बहुत सहारा दिया. उनका रुझान देखते हुए उन्हें डांस और ड्रामा की दुनिया में विचरने का मौक़ा दिया. 1966-67 में उन्होंने दिल्ली विवि से अंग्रेज़ी में मास्टर डिग्री ली. तभी से वो 'नमस्कार! ये दिल्ली दूरदर्शन है' कहती हुई टीवी पर दिखाई देने लगीं। 1968 में वो मिस यूनाइटॆड नेशंस चुनी गईं. 1969 में उनकी शादी आमिर क़िदवई से हुई. आमिर का ताल्लुक़ रफ़ी अहमद क़िदवई खानदान से है. दो बच्चे हैं. शाद बडा बेटा है, जो इन्कम टैक्स डिपार्टमेंट में ज्वॉइंट कमिश्नर है और सना छोटी बेटी है जो कुशल नृत्यांगना है और अमरीका में डांस सिखाती है।

डीडी आर्क, सी.एल.ह्क्कू के लिखे पर आधारित.

Sunday, June 10, 2007

Humpty dumpty हिंदी में




डीवार पर बोइठा ठा हम्प्टी-डम्प्टी,


गिरा अउर टूट गिया, इडर जास्टी उडर कम्प्टी,


राजा बोला: "मुर्डे को माफ़ क्रो


बट रास्टा जल्डी साफ़ क्रो--


मेक श्योर हाइवे पर ट्राफ़िक नेई ठम्प्टी !

स्त्री और कामुकता

यह तो सभी जानते हैं कि धर्म यानी मज़हब और कला का पुराना रिश्ता है. चाहे वो इटली के पुनर्जागरण के समय की कला हो, अजंता के भित्तिचित्र हों या फिर मंदिरों की मूर्तिकला. इन सभी का स्रोत धर्म रहा है. धर्म की छत्र छाया में ही ये सभी पली हैं.लेकिन ये भी मानना होगा कि कम से कम शुरुआती दौर में धर्म को भी कला की उतनी ही आवश्यकता थी जितनी कला को धर्म की.प्रोफेसर एएन वाइटहेड के अनुसार जब धर्म मानव इतिहास में अवतरित होता हैतो उसके चार रूप नज़र आते हैं--रीति-संस्कार, भावना, विश्वास, और औचित्य स्थापन. साधरणतयाः ये माना ही जाता है कि सृष्टि के कम से कम दो रूप तो हैं-दृश्य और अदृश्य.जो दृश्य है वो भले ही हम समझ न पायें, लेकिन कम से कम उसे देख सकते हैं.अदृश्य को सभ्यता के शुरुआती दौर में न देखा जा सकता था और न ही समझा.जिसे हम समझ नहीं पाते, लेकिन किसी तरह मह्सूस कर सकते हैं उससे या तो भय की उत्पत्ति होती है या आश्चर्य की. आदि मानव की यही दो प्रधान भावनाएं थीं. भय से धर्म का जन्म हुआ और आश्चर्य से कला का.

अपने भय पर क़ाबू पाने के लिये और उन शक्तियों का संरक्षण पाने के लिये,जिससे वह डरता था, उसने रीति या रिचुअल का सहारा लिया, इस आशा से कि इनके द्वारा वे शक्तियां उससे प्रसन्न रहेंगी और उनकी कृपा मनुष्य पर बनी रहेगी. लेकिन रीति के लिये प्रतीक और संगीत की आवश्यकता थी और इनके लिये धर्म को संगीतकार और कलाकार की ज़रूरत पडी.रीति पालन करते-करते एक नई बात पैदा हुई. कला के जोड के कारण मनुष्य को इसमें आनंद का अनुभव होने लगा.अब रीति पालन दैवीय शक्तियों को अनुकूल बनाने के लिये आवश्यक नहीं रह गया, आनंद प्राप्ति का एक ज़रिया भी बन गया.शायद इसी आनंद भावना के कारण नृत्य, नाटक, मूर्तिकला और चित्रकला की शुरुआत स्वतंत्र कलाओं के रूप में हुई जो अब धर्म के ऊपर पूर्णतः निर्भर नहीं थीं. इस तरह से यह कहा जा सकता है कि शुरुआत में मनुष्य रीति के कारण ही कलाकार बना,लेकिन बाद में कला की स्वतंत्र स्थापना हुई.
जैसे जैसे धर्म संगठित होता गया और उसकी जकड समाज पर बढती गयी वैसे-वैसे मनुष्य का निजी जीवन और सामाजिक आचरण दोंनों धर्म की गिरफ़्त में आते चले गये.व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में कोइ फ़र्क़ नहीं रहा. दरअस्ल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की धारणा प्रजातंत्र के आने के बाद ही दोबारा उभर कर आई.तब भी बहुत अर्से तक इंसान का व्यक्तिगत जीवन धर्म के बताए हुए रास्ते पर ही चलता रहा. हमारे समय की स्थिति अब बिल्कुल अलग है.सभी धर्म ईमानदारी, सौहार्द्र और अछे इंसान बनने की यानी दूसरे लोगों का भला करने के सीख देते हैं.लेकिन अब हमारे जीवन में इन चीज़ों की कोई जगह बाक़ी नहीं रही है.पूंजीवाद की शिक्षा कुछ अलग है-व्यापार बढाओ, धन कमाओ और अगर इसके लिये औरों का शोषण करना हो तो इससे बिल्कुल मत हिचको. सबसे आगे बढ्कर चलो चाहे इसके लिये तुम्हें औरों को कुचल कर आगे बढना पडे.दूसरों के साथ अपना धन बांटने में कोइ अच्छाई नहीं है, तुम जितना ज़्यादा धन का व्यय अपने ऊपर करोगे, तुम उतने ही बडे आदमी बनोगे.जगजीवन राम ने भी जब अपना बडप्पन साबित करना चाहा था तो अपनी ही बस्ती में एक बहुत बडा मकान बनाया था, कोई सार्वजनिक स्कूल या धर्मशाला नहीं.मतलब यह कि धर्म और रोज़मर्रा के जीवन में अब कोई खास रिश्ता बाक़ी नहीं रहा है.
एक संकीर्ण तबक़े के लिये धर्म अब जातीय चिन्ह बन कर रह गया है,जो हमें एक दूसरे से अलग करता है और जिसके झंडे के नीचे एकत्रित होकर हम दूसरों पर हमला कर सकते हैं.इसमें दूसरों से बचाव की भावना कम है, आक्रमण की भावना अधिक. विडंबना ये है कि धर्म के झंडे के नीचे इकट्ठा होने के लिये हर इंसान को अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता छोड्कर एक ही तरह का व्यवहार करना अनिवार्य है. इसलिये धर्म के ठेकेदारों को कलाकार की स्वतंत्रता नामंज़ूर है क्योंकि कलाकार वैयक्तिक स्वतंत्रता का प्रतीक है.वह धर्म के प्रतीकों को अपनी ऐतिहासिक धरोहरों के बतौर स्वीकार तो करता है,लेकिन उन प्रतीकों से कलात्मक ढंग से खेलने का अधिकार छोड्ना नहीं चाहता. और छोडे भी क्यों, आख़िर ये प्रतीक उसी के पूर्वजों ने तो बनाये हैं? और हिन्दू धर्म में तो इन प्रतीकों के कितने रूप हैं. चाहे शिव हो या हनुमान या फिर गणेश हो या विष्णु, इनके अनेक रूप हैं तो इनका एक और रूप क्यों नहीं हो सकता?
यही बात उन प्रतीक चिन्हों पर भी लागू होती है जो धार्मिक तो नहीं हैं लेकिन लगभग धार्मिक है जैसे भारत माता... जब हम भारत को भारत माता के रूप में श्रद्धेय मानते हैं तो उसका चित्रण स्त्री के आकार में करना क्या गुनाह है!(हुसेन के संदर्भ में)मान लिया, स्त्री का आकार इस चित्र में निर्वस्त्र है, लेकिन उसमें कहीं कामुकता या अश्लीलता तो नज़र नहीं आती. एक और दृष्टि से देखें तो हम सब ने बचपन में अपनी मां को कमोबेश निर्वस्त्र रूप में देखा ही है. स्त्री का हर निर्वस्त्र रूप कमुकता का द्योतक नहीं है और न ही निरादर का.
के.बिक्रम सिंह के लेख मज़हब का शिकंजा, जनसत्ता 13 मई 2007 से साभार

रामदेवरा का मेला

रामदेवरा का मेला एक विशाल मेला है. लाखों की संख्या में लोग यहां जुटते हैं. यहां पहुंचने वालों में ज़्यादातर वो लोग होते हैं जिन्हें नीची जात का कहा जाता है. इनमें मेघवाल, चमार, भांभी, भील, भाट, बंजारे और कामद होते हैं. ये मेला जैसलमेर के पास कहीं लगता है. रेलों में भीड देखने लायक़ होती है.
सितंबर के पहले पखवाडे में राजस्थान का हर रास्ता रामदेवरा को जा रहा होता है. रामदेवरा के बारे में लोककला मंडल उदयपुर से पता चलता है कि 'वे तंवर राजपूत थे, उनका समय 1404 से 1458 है. उन्हें रामदेव बाबा, राम सा पीर, रुणेजा रो धणी और धोती धजा रो धणी भी कहा जाता है. यह मेला जैसलमेर के रुणेजा / रामदेवरा में लगता है.राजस्थान के अलावा गुजरात और मध्य प्रदेश से भी लोग यहां पहुंचते हैं.' रमेश थानवी के मुताबिक़ ये रामसा पीर कोई मुस्लिम संत है, रामदेवरा में उसकी मज़ार है.
लोकमान्यता है कि रामदेवरा जाने के लिये ट्रेन के दो टिकट लेने चाहिये, यानी एक अपना और एक रामदेव बाबा का. कुछ लोग रामदेव के घोडे का भी टिकट लेकर चलते हैं.जैसलमेर के पास किसी छोटे से गांव में रामदेव के घोडे की रुई या कपडे की नन्हीं प्रतिकृतियां बनती हैं और लोग एक नन्हां घोडा खरीद कर रामदेव या रामसापीर की मज़ार पर चढाते हैं.

यहां रामदेवरा जानेवाली एक ट्रेन का फोटो है जिस पर दो बार चट-चट करने से ये ठीक से देखा जा सकेगा.फोटो सात साल पहले सितंबर में राजस्थान के एक स्थानीय अख़बार में छपा था.

Saturday, June 9, 2007

एक ख़ानाबदोश की याद में

नयी दिल्ली, 28 जून 2000. न्यू रोहतक रोड पर लिबर्टी सिनेमा के सामनेवाली गली में वयोवृद्ध साहित्यकार देवेंद्र सत्यार्थी का घर.एक बडी सी खुली-खुली रोशन और हवादार बैठक में एक बडी सी लकडी की कुर्सी पर सत्यार्थीजी बैठे अख़बार पढने की कोशिश कर रहे हैं.दीवार से लगी शीशे की अलमारी में किताबें भरी हैं--उर्दू, हिन्दी, अंग्रेज़ी और पंजाबी की-जिन्हें अर्से से किसी ने न पढा होगा. देश भर की पत्र पत्रिकाएं संपादक लोग सौजन्यवश भेज देते हैं.कुछ खुली और कुछ अब भी डाक के रैपर में बन्द पडी हैं.सामने एक छोटी सी मेज़ है, जिस पर तरह तरह के निमंत्रण पत्र और किताबें रखी हैं.यहीं एक रजिस्टर रखा है जिस पर सत्यार्थीजी आजकल कुछ लिखते हैं.
लाहौर का ज़िक्र करते करते पल भर में वो कलकत्ते पहुंच गये हैं, जहां उनकी मुलाक़ात रवींद्रनाथ टैगोर से होती है."हमें तब तक ये अक़ल नहीं आई थी कि हमारी मातृभाषा पंजाबी है.पंजाबी तो बस बोलने तक सीमित थी. गुरुदेव रवींन्द्र ने कहा क्या तुम अपनी ज़बान में लिख सकते हो?"...फिर लंबी चुप्पी. ऐसी चुप्पियों के बाद जब कुछ बोलने की याद आती है तो सिर्फ एक लंबी सांस भरते हुए कहते हैं--"संसार है." यहां वो 'सा' और 'है' को लंबा खींच देते हैं.



ऐसी ही जब कोई लंबी चुप्पी आती है तो मैं मेज़ पर पडा रजिस्टर उलटने-पुलटने लगता हूं--'फिर अमृतयान ने बापू से कहा कि'... पूरे रजिस्टर में मुश्किल से दस पन्ने हैं, लेकिन वह बाक़ायदा मोटा और भारी दिखता है.कुर्सी की बग़ल में एक छोटे से स्टूल पर एक कटोरी में तीन दिन पुरानी आटे की लेई रखी है और छोटी बडी दो क़ैंचियां भी.लिखने के लिये सत्यार्थीजी फाउंटेन पेन इस्तेमाल करते हैं, जिसे वहीं खुली रखी कैमेल की नीली रोशनाई में डुबोते हैं.लिखते हुए अगर कहीं ग़लत हो जाये तो काटते नहीं बल्कि उतनी ही लंबी काग़ज़ की पट्टी काटकर ग़लत पंक्ति पर चिपका देते हैं.ऐसा करते हुए कई जगहों पर बार-बार काग़ज़ चिपकाने से रजिस्टर मोटा और भारी हो गया है.
"मेरा बचपन
गुरुदेव की एक किताब, बुढापे में बचपन की याद. बात से बात चली, बचपन का जादू. शायद कुछ याद आया. अमृतयान गुनगुनाता रहा. 'देशकाल की वही पुरानी चाल. सुनी सुनाई कहता रहा, चेपी-चेपी काट-काटकर लिखता रहा, चेपी-चेपी नयी लिखावट काग़ज़ बन गया गत्ता. रचना ता अनुभव की बात, ना वेतन ना भत्ता. अपना अनुभव अपनी बात कनरस है अलबत्ता.नीलयक्षिणी बोल उठी ज़िंदा हाथी लाख का मरा हुआ सवा लाख का. गुरुदेव का जन्मस्थान कलकत्ता. अब चाहें तो लोग शांतिनिकेतन हो आयें-हाथ में हाथ सफ़र की तैयारी. जगाने से हौसला, ये क़हक़हे ये लतीफ़े."
सत्यार्थीजी की कमर झुक गयी है और सुनाई भी अब ऊंचा देता है.ज़्यादातर सवाल लिखकर पूछने पड रहे हैं.लंबी सफ़ेद दाढी के नीचे लग माइक खर-खर की आवाज़ हेडफ़ोन तक पहुंचाता है.बार -बार माइक की जगह बदलनी पड्ती है...बातें...बार-बार क्रमभंग का शिकार होती हैं....सं..साआआअ....र...हैऍऍऍऍऍ....
एक और टुकडे पर नज़र पडती है-
"मां का देव, देव गंधार.आजकल अमृतयान. बुढापे की शान. अहमद शाह बुख़ारी 'पितरस' ने बतौर डायरेक्टर जनरल ऑल इंडिया रेडियो, उससे कहा-"चुन चुन कर अलग-अलग भाषाओं के एक गीत् हज़ार हमें दे दीजिये. याद रहे रॉयल्टी मिलती रहेगी." रॉयल्टी ठुकराते हुए अमृतयान ने कहा "कॉपीराइट भारतमाता का." अब तो अम्रृतयान की आयु है नब्बे से तीन साल ऊपर.अब अमृतयान की नयी किताब होगी 'सत्यम,शिवम,सुंदरम'. आज से बहुत पहले छपी थी लाहौर से अमृतयान की एक किताब-मैं हूं खानाबदोश; हमसफ़र बीवी और बिटिया कविता.
एक अध्याय लंका देश है कोलंबो."

28 मई 1908 को पंजाब के संगरूर में पैदा हुए देवेन्द्र सत्यार्थी का नई दिल्ली में 12 फ़रवरी 2003 को निधन हो गया.माना जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप की ओरल हिस्ट्री से जुडा उन्होंने बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया है. भारत सरकार ने लोकगीतों के संकलन के उनके भागीरथ प्रयत्नों के लिये 1976 में पद्मश्री से उन्हें सम्मानित किया. एक यायावर का जीवन जीते हुए उन्होंने भारी क़ुर्बानियां दीं. बताते हैं कि थोडा समय वे प्रकाशन विभाग की पत्रिका आजकल के संपादक भी रहे.उस समय आजकल उर्दू के संपादक जोश मलीहाबादी हुआ करते थे.

Thursday, June 7, 2007

कहां से आती है चतुराई उर्फ़ टाइटल सुझाओ ना !

कल मैंने रघुवीर सहाय की कविता यहां जारी की. यह मेरी कुछ प्रिय कविताओं में से एक है. जब कविता डाल चुका तो सोचा आइज़ेंस्टाइन की वो दुर्लभ तस्वीर भी आपके सामने रखूं और अपने वर्षों के संजोये हुए सरमाए में आपको साझीदार बनाने का सिलसिला बनाए रखूं. जब आइज़ेंस्टाइन की ये तस्वीर लगा चुका तो पोस्टिंग पेज का टाइटल वाला कॉलम कहने लगा कि यहां कुछ लिखो. मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था तो लिख दिया टाइटल सुझाओ न! अब इस संदर्भ को समझने के बाद आप समझ ही गये होंगे/गी कि इस आइज़ेंस्टाइनवाली पोस्ट का मुख्य उद्देश्य आपसे फोटो का टाइटल आमंत्रित करना कम पोस्ट का टाइटल आमंत्रित करना अधिक था. बाज़ारवाला इसमें कोइ चतुराई सूंघ रहे हैं और सशंकित हैं कि मुझे कमेंट क्यों मिलने लगे. क्या ये एक हमपेशा भिखारी की ईर्ष्या है जो कलीग को मिलने वाली भीख देखकर बेचैन हो जाता है? ये सवाल मैं सिर्फ बाज़ारवाला से पूछ्ना चाहता हूं.
बहरहाल हुआ भले ही एक गैप के कारण हो, लेकिन है दिलचस्प इत्तेफ़ाक़. वो सब साथी जो इस ग़ैरइरादी शीर्षक सुझाओ प्रतियोगिता में बिना ये सुने शामिल हो गये कि "इसमें जीतने पर मिलेगा आपको कोइ गिफ़्ट हैम्पर, इनामी कूपन या गोआ मे तीन दिन और चार रातें बिताने का मौक़ा" मैं आप सभी का आभारी हूं और यहीं मुझे इस बात से बल मिलता है कि इस क्रम को आगे बढाया जाए. क्या हर्ज है! गुज़रे ज़माने में कई नामी-बेनामी छोटी-बडी पत्रिकाएं और अखबार इस काम को करते रहे हैं और हममें से कई इस या उस रूप में इस तरह की शीर्षक सुझाओ प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते रहे हैं. क्या इसमें कोइ बुराई है,भाई बाज़ारवाला?
तो पेश है ये तस्वीर. इसका शीर्षक सुझाइये. इस बार मैं सचमुच फोटो का ही शीर्षक आमंत्रित कर रहा हूं.

गा मेरे मन गा !

अंतरा चौधरी





जाएं तो जाएं कहां





जागृति





जीना यहां





जीना इसी का नाम है





ज्वेल थीफ़




ममता





मैं तुम्हारी हूं-एक





मैं तुम्हारी हूं-दो





मान अपमान





मीनू





मुनीमजी





मुक्ति

Wednesday, June 6, 2007

टाइटल सुझाओ ना !

आइज़ेंस्टाइन 1928

किताब पढकर रोना

रोया हूं मैं भी किताब पढकर के
पर अब याद नहीं कौन-सी
शायद वह कोई वृत्तांत था
पात्र जिसके अनेक
बनते थे चारों तरफ से मंडराते हुए आते थे
पढता जाता और रोता जाता था मैं
क्षण भर में सहसा पहचाना
यह पढ्ता कुछ और हूं
रोता कुछ और हूं
दोनों जुड गये हैं पढना किताब का
और रोना मेरे व्यक्ति का

लेकिन मैने जो पढा था
उसे नहीं रोया था
पढने ने तो मुझमें रोने का बल दिया
दुख मैने पाया था बाहर किताब के जीवन से

पढ्ता जाता और रोता जाता था मैं
जो पढ्ता हूं उस पर मैं नही रोता हूं
बाहर किताब के जीवन से पाता हूं
रोने का कारण मैं
पर किताब रोना संभव बनाती है.





रघुवीर सहाय

Sunday, June 3, 2007

चिट्ठाकारों का महाधिवेशन: प्रेस विज्ञप्ति

नई दिल्ली.3जून 2007. अगले महीने राजधानी में होने वाला ब्लागरों का महाधिवेशन फिलहाल अनिश्चित काल के लिये स्थगित कर दिया गया है.ब्लॉगरों को एक संगठित शक्ति में बदलने और सार्थक सामाजिक गतिविधियों में उतारने के लिये यह पहल राज्धानी की एक ग़ैरसरकारी संस्था मायामोहिनी ने की है.मायामोहिनी की एग्ज़ीक्युटिव डायरेक्टर अचानक विदेश दौरे पर चली गयीं इसलिये उनका पक्ष नहीं मिल सका लेकिन आयोजन की तैय्यारी समिति की एक आपातकालीन बैठक आज शाम यहां सम्पन्न हुई.
बैठक मे तैय्यारी समिति के अध्यक्ष स्वामी धकधकानंद की अनुपस्थिति संभावित थी और वही हुआ.उनका कहना था कि बार-बार अपने चिट्ठे पर जिस विशेष शैली का लेखन वे जारी कर रहे हैं उसे एक शैली के बतौर मान्यता मिलना तो दूर लोग उसका सौंदर्यबोधात्मक संज्ञान तक नहीं ले रहे हैं.तैयारी समिति में कई नामी और बेनाम सदस्य हैं लेकिन स्वामी जी पर सबका विश्वास गहरा है.मीटिंग में एक ऎडहॉक कमेटी बना दी गयी है और लगता है जल्द ही संकट पर क़ाबू पा लिया जाएगा.तय किया गया कि है अधिवेशन में "ब्लॉगिंग:समस्याऎ और समाधान" केंद्रीय विषय होगा.इसके अलावा "मेरा चुंतन" जैसे ब्लॉगनामावली को बढावा देने के लिये एक कोर कमेटी बनाई जाएगी.एक दूसरे के प्रति गाली गलौच के रवैय्ये पर चिंता तो व्यक्त की गयी लेकिन माना गया कि इससे स्वाभाविक और बिंदास माहौल बना रहता है. उन लोगों के प्रति उदासीन और अवहेलनात्मक रवैया बनाने पर सर्व सम्मति व्यक्त हुई जो 'यहां भी' अपने बासी और नक्सलाइट टाइप के विचार व्यक्त करते हैं.ब्लॉगलेखन एक नया क्षेत्र है और यद्यपि इसमें मर्यादाएं और नीति सुपरिभाषित नहीं हैं(हडबडी में की भी नहीं जानी चाहिये)फिर भी एक अव्यक्त सहमति इस बात पर है कि ब्लॉग लेखन को गंभीर कार्यवाही नहीं बनाना चाहिये.एक युवा ब्लॉगर इस विषय पर अपने साथ एक परचा भी लाये थे.परचा यहां अविकल प्रस्तुत है--
"लेखन कोई ऐसा कौशल नहीं है जिसके लिये व्यक्ति को जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों का ज्ञान हासिल होना ज़रूरी हो, बल्कि कई बार तो जीवन के किसी भी क्षेत्र में कोई अनुभव न होने पर भी आप लेखक के तौर पर विकसित हो सकते हैं. क्या यह आवश्यक है कि लेखक व्यापक अनुभव का संग्रह करे और सत्य की खोजों में भाग ले? क्या लेखन के लिये बहुत कुछ पचाने, बहुत ज़्यादा जुड्ने,दुख सहने-झेलने की ज़रूरत है? मेरा विचार है कि लिखने के लिये आपको लिखना आना चाहिये बस."

घूम-घूम के नाचो आज






पिछले महीने 'कतरनें भी कुछ कहती हैं' में अपने वर्षों से संचित कबाड के लिये एक व्यवस्थित रैक बनाते हुए कुछ EPs और LPs के कवर्स हाथ आए थे. यारों ने उन्हें देखकर ज़रा कुतूहल में फ़ोटो खिंचाया तो हम भी इतराने लगे.
यहां सब EPs(Extended Play Records)के कवर्स ही हैं आज. इनकी वर्गाकृति 7" X 7.1" होती थी.रिकॉर्ड का व्यास 17 सेमी होता था. इनमें आम तौर पर दो-दो गाने दोनों तरफ़ होते थे यानी चार गाने.कभी-कभी एक ही गाना पहली तरफ़ ख़त्म होकर दूसरी तरफ शुरू हो जाता था. रख रखाव में ये रिकॉर्ड्स थोडी सावधानी की मांग ज़रूर करते हैं लेकिन बडे थेथर होते हैं. 80 के दशक में इनकी क़ीमत 10 रुपये से लेकर 16 रुपये तक होती थी. ईएमआई-एचएमवी, पॉलिडोर, कॉंकॉर्ड, फ़िलिप्स और हिन्दुस्तान रिकॉर्ड्स इस क्षेत्र के प्रमुख खिलाडी थे.90 के पूर्वार्द्ध तक भी ये चलन में बने हुए थे.मैने फिल्म याराना का एक रिकॉर्ड कनॉट प्लेस की ब्लू बर्ड दुकान से नब्बे रुपये का खरीदा था.बाद में और अब भी ये हमें दिल्ली के मशहूर कबाडी अड्डों से कौडियों के मोल मिलते रहे हैं.सुधी श्रोता और संग्राहक, भी अब धीरे-धीरे शायद ये मानते जा रहे हैं कि मैं इन रिकॉर्ड्स के लिये उपयुक्त पात्र हूं क्योंकि इनमें से कई मुझे फ़ोन करते हैं कि मै उनके संग्रह से अपने काम की चीज़ें ले जाऊं.जहां तक इनके कवर्स का सवाल है, तो आप ये देख ही रहे हैं कि इनमें डिज़ाइन की एक निजी शैली की छाप है.तब इतने विकसित डिज़ाइन सॉफ्ट्वेयर्स नहीं थे लेकिन हर डिज़ाइन की अपनी एटमॉस्फ़ेरिक फ़ील है.इनके डिज़ाइनर्स में मोहन मुरली और बानीब्रत के अलावा भाषा आर्ट प्रोमोशन के नाम खूब दिखाई देते हैं.मैं चाहता हूं कि अगर आप मोहनमुरली और बानीब्रत के बारे में ज़्यादा कुछ जानते हों तो हमें लिखें.


काला पानी






काग़ज़ के फूल






लव इन शिमला





कोई जीता कोई हारा





जोगन





जनता हवलदार





जलन






लुबना




लडाकू





लाखन






क़ुदरत




ख़ून पसीना





कटी पतंग




करवा चौथ