दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Thursday, June 26, 2008

मेरी ब्लॉग का नाम है- "गदगद" उर्फ़ हाय राम! आर्ट ऑफ़ रीडिंग वाले मेरा कोई पोस्ट काहेला नहीं चढाते?


अचकचाए हुए चिरगिल्ली मुस्कान माथा पर सजाए पहुँच तो गए सितामढी की लल्लन टाकिज में,लेकिन देखे छोहडा सब परसाद की आस में खडा है. पता नहीं कहाँ से मिर्जापुर और नबाबगंज से आ गया था सब. भऊजी ने बोलीं कि हम पकाए हैं बथुआ का साग, लेकिन हम कहे कि हम तो बस गोभी पुलाओ खाएँगे. माथा से पसीना पोछे तो निरंजन भी लगा नकल उतारने. हमको गुस्सा आ गया लेकिन हमहूँ कहे ससुर तुम हिदीवाले कभी सुधरोगे नहीं.सत्तू का बास मुंह से छोडा नहीं रहा है और चले हो मैक्डोनल का पीजा खाने? बिछौना पर अलाय-बलाय रख के जब दुलरुआ राहुलजी अपना नयका मर्सीडीज पर चलने लगे तो हम बोले कि भाई एतना हिलकोरी मत दिखाइये सिपाही दू डंटा लगाएगा और भित्तर ढुका देगा काहेकि पंजाब केसरी पढने में बस घर का अंदर निम्मन लगता है "ऎंड हाऊ योर कॉंशस एल्लाउइंग टु सिट इन अ मर्सिडीज विथाउट वोग? नेभर रीड पंजाब केसरी इन अ लक्झोरी कार."
लल्लन टाकीज वाला सब बुडबकै है. कितना बार कहे कि आप लोग इज्बान आउस्माकी, हेजीन कोबोल और जियोवानी इताल्लो का पिच्चर सब मंगवाइये इससे परगती का निसानी होता है लेकिन बुझाता उसको नहीं है.झोला में झालमुडी भर के लाता है और उसी का नस्ता करता है. परतीकवा भी उन्हीं के साथ हें-हें करता है और बारिस में बतकुन्नी का चुन्नी उढाता है. तुम्हरे बापौ ससुर खाए थे!जो तुम खाओगे? जाओ! उहाँ ईंटा पे बैठो और बिलॉग मत लिखना. देख नहीं रहे हो हम सुबह झाडा फिर के आए तभी से हाथ नहीं धोए हैं. काहे कि समय लगता है और ई हिंदी समाज हाथ धोने में इतना समय गँवा दिया कि उरभुल्ले से गुलगुल्ली भी निकल गया. हम तो जामवंत को भी खून माफ कर दिये, बलवर्द्धन को गले लगाए, बसंती और डेजी ऐसन से भी हमारा राउंड टेबल बिछाया हुआ है. फस्ट नम्बर पर भी हमारा नम्बर चल्ते रहता है. चरण वर्मा-फरण वर्मा मंटो-मंटू-मुंटू और गुप्ता पान भंडार, नाम्ग्याल, रसख्याल, फौज, इंशाअल्ला और त्रिभुवन कुमार शुक्ल को छोडायत हमारा लेखनी को तअज्जो भी नहीं देता ई सब. हम तो टट्टी वाला हाथ से भी बोलॉग लिखते हैं फिर नाम भी हम "गदगद" रखे अपने बिलॉग का. पर हाय राम आर्ट ऑफ़ रीडिंग वाले हमारा पोस्ट काहेला नहीं चढाते?

10 comments:

डा. अमर कुमार said...

ऎहो इरफ़ान भाई, एतना काहे बलबल कर रहे हैं,
आप दिशा मेदान होके हाथ धोइए कि चाटीये .. मुला
हम बुड़बक पढ़वइआ सब कोन चिज करके बिलगवा
पढ़े, ई मंतरवा त लिखबे नहिं कीये

Anonymous said...

लेखक प्रमोद सिंह का नाम डालना आप भूल गये सर, डाल दीजिए...

azdak said...

हम तो कभी हंस और नया ज्ञानोदय के फंस में भी फाटर्ने नहीं गए.. फिर आर्ट ऑफ़ रीडिंग के पहाड़ के नीचे छूटने की ऐसी कराहन काहे ला कांखेंगे, लालमोहन चितगोबर प्रसाद? बकिया अपनी ऊंचाई सलेट से नाप-नापकर धन्‍य होते रहो..

Anonymous said...

पढ़ लिया भई.. बड़ी मस्त भाखा है.. और बात भी जायज़ है.. आप को जो मन हो वो चढ़ाओ.. वैसे आप ने गदगद जी का बहुत मटीरियल चढ़ाया तो है पहले.. नहीं? तब पर भी उन्हे शिकायत हो तो आप का खौरियाना तो बनता है..!

रवि रतलामी said...

ऊ तो हमरा भी ब्लॉगवा नहीं चढ़ाते. इंतजार कर रहे हैं. सौ दू सौ साल में तो लंबर लग ही जावेगा?

Rajesh Roshan said...

हिया कुछ आरे चल रहल हओ. दिशा, मैदान आर लेट्रींग के बात कर हथुन.... काजिन काहेले पढ़ लिख हथिन.

Ashok Pande said...

पहाड़ी आदमी हूं इरफ़ान बाबा. तुम लोगों की देसी हिन्दी कम समझ में आती है. अलबत्ता लालमोहन चितगोबर प्रसाद तुम्हारा नया नाम धरा गया, इसकी बधाई. बथुवे का साग भी गोभी के पिलाव के साथ खाया जा सकता है, मेरी बुआ कहती थीं.

विजय प्रताप said...

ऐ इरफान जी!
राउआं परमोद जी के एगो पोस्ट अपना ब्लॉग पर डालनी अउ हेतना भजपुरी बोले वाला लोग इकट्टा हो गइल. राउआं के धन्यबाद !
आ का कहल जा इ आरट आफ रीडिंग वालन के. उ जब ऐताना चाहताने त उनहन के चढा ना देबे के चाहीं.

दीपक said...

कभी हंसा कभी सोचा कभी समझ पाया कभी नही समझ पाया पर सत्य कहु तो आप की बाते दुर तलक जाती है ॥ मन गदगद हो गया है पढकर

सतीश पंचम said...

ई का ठेलमठेल लगल बा हो, सब कोई दिसा मैदाने से लोटल लगत बा :D