दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Wednesday, June 11, 2008

बीकानेर का एक संस्मरण

"अलाउद्दीन ख़िलजी मुसलमान था, परंतु दयालु था." बाक़ी सब तो ठीक लेकिन इस परंतु पर ग़ौर कीजिये. यह आठवीं कक्षा के इतिहास के पाठ्यक्रम में पढाया जा रहा है.

एक बार मैं ट्रेन में सफ़र कर रहा था. सुबह जब आँख खुली और साथी मुसाफ़िर दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर थोडे अनौपचारिक होने लगे तो मेरे एक साथी मुसाफ़िर ने मुझसे पूछा "आपका नाम?" मैंने जवाब दिया "मुशीरुल हसन" वो छूटते ही बोला "कोई शेर सुनाइये!"
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के स्वर्ण जयंती वर्ष में एक व्याख्यान के दौरान प्रख्यात इतिहासकार और विचारक प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने ये दो दृष्टांत सुनाए थे.
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ये वाक़या कोई आठ साल पुराना है जब मुझे बीकानेर की आर्मी लायज़ाँ यूनिट ने पूछताछ के लिये बैठा लिया था. आपका नाम आपको किस तरह के नफ़े-नुक़सान पहुँचाता है इसका लेखाजोखा रखने के लिये शोध संस्थानों को पृथक शोध-अध्ययन केंद्र चलाने चाहिये."शक के रेगिस्तान में" शीर्षक से इस वाक़ये को मैं जनसत्ता (26 नवंबर 2000)में लिख चुका हूँ.

अलीगढ के नाट्यकर्मी राजेश कुमार का पिछले हफ़्ते फ़ोन आया कि वह कतरन अगर मेरे पास हो तो मैं उन्हें भेज दूँ, वो शायद इस संदर्भ में कोई नाटक लिख रहे हैं. ख़ैर इस कतरन को उन्हें भेजा तो याद आया कि आपमें से जिनकी नज़र इस संस्मरण पर न पडी हो उनसे भी यह अनुभव साझा करूँ. तो पेश है. इमेज पर डबल क्लिक करने से वह पढने लायक़ हो जाएगी.

7 comments:

Unknown said...

आपका संस्मरण भी पढ़ा और अखबार की कतरन भी पढ़ी. आपने काफ़ी कुछ सही कहा है. इस डर और अविश्वास के माहौल में इस तरह की घटनाएं होती हैं. कुछ बातें किसी धर्म विशेष से जुड़ जाती हैं. पर यह सब क्यों होता है? क्यों हम पूरी कौम को किसी घटना से जोड़ देते हैं?

आज भी मुझे वह दिन याद आतें हैं जब मेरे मुसलमान दोस्त हमारे घर में ऐसे आते जाते थे जैसे हम ख़ुद. यह सब बाबजूद इस के कि हमारे शहर में हिंदू-मुस्लिम दंगे खूब होते थे. पर फ़िर इस्लाम के नाम पर आतंकी हमले होने शुरू हुए और हमारे शहर के अधिकांश मुसलमानों ने चुप्पी साध ली. हम जब भी इन हमलों की बात करते हमारे मुसलमान दोस्त चुप रह कर बात को टालने की कोशिश करते. फ़िर घर में क्या उन्होंने मोहल्ले में भी आना बंद कर दिया. बाहर भी मुलाकातें कम होती गईं, हमें भी उनके मोहल्ले में जाने से डर लगने लगा.

अब इस के लिए किसे दोषी ठहरायेंगे आप? आतंकवाद के साथ भारत के हर मुसलमान को किसने जोड़ा है? क्या हम जैसे हिन्दुओं ने? क्या हिन्दुओं की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी ने? या फ़िर कांग्रेस ने जो आज देश में सरकार चला रही है? अब तो अफ़ज़ल भी यही कह रहा है. भारत के मुसलमान क्यों नहीं कहते कि अफ़ज़ल के आतंकवादी होने से उन का कोई सम्बन्ध नहीं है? वह यह क्यों नहीं कहते कि कांग्रेस भारत के मुसलमानों का अपमान कर रही है, उन के धर्म का अपमान कर रही है, उन के ईमान का अपमान कर रही है?

मैथिली गुप्त said...

इरफान भाई, आपके देश ये सब हो रहा है इससे मैं भी विचलित हूं. इससे पहले यूनुस भाई के ब्लाग में पढ़ा कि मुम्बई में किस तरह मकान मिलने में दिक्कत आरही है. ये जो कुछ हो रहा है बहुत बहुत धिक्कार के काबिल है.
मेरे एक बेटे का नाम सेसिल मुक़द्दस था उसने हाईस्कूल में अपना नाम सेसिल एम. गुप्त कर लिया शायद वो उस पीड़ा भोगने के लिये तैयार नहीं होगा जो मेरे कुछ हमवतन भोग रहे हैं.
क्या कभी सुबह आयेगी भी?

...अमर said...

सुरेश चंद्र जी..आपने अपने पुराने अनुभवों को लेकर काफ़ी भावुक और स्वाभाविक हैं...बचपन के दिनों में जब दोस्ती होती है तो क्या कभी अपने सहपाठी का धर्म हमारे ज़ेहन में आता था? एक उम्र के बाद जब सारी दुनियादारी सीखा दी जाती है, तब शायद हमारे सोच के दायरे में कुछ बिंदु बढ़ या घट जाते हैं... कुछ सवाल हैं जो बार बार सामने आ जाते हैं... मसलन, क्या किसी हिंदू को आपने ये एलान करते हुए सुना है कि हमारा आतंकवाद से कोई वास्ता नहीं है... ये घोषणा तो कोई तभी करेगा जब उस पर ये थोपा जाएगा कि तुम्हारा आतंकवाद से वास्ता है न...? श्रीलंका में एलटीटीई और श्रीलंकन सरकार के बीच चल रहे संघर्ष को हिंदू आतंकवाद कहा जाता है क्या...?
मेरे एक दोस्त को दिल्ली के आर के पुरम में मुसलमानों जैसा नाम होने पर मकान नहीं मिला, मजबूरी में उसके आर के पुरम के ही दूसरे सेक्टर में एक हिंदू नाम बताकर मकान ले लिया...क्या उसने ठीक किया?
गुजरात चुनावों को कवर करने गए होटल में ठहरे बीबीसी के एक पत्रकार के कमरे में गुजरात पुलिस ने देर रात छापा मारा...क्योंकि उनके साथ गए उनके सहयोगी का नाम मुसलमानों जैसा ही था...और उन्होंने होटल के लॉबी में उसका नाम ज़ोर से पुकार दिया था।
हम जहां रहते हैं, जहां काम करते हैं इस तरह के सवाल टकरा ही जाते हैं... ये तो हमारी जिंदगी के आस-पास घटने वाले वाकये हैं... लेकिन सारी दुनिया जिन सवालों के इर्द-गिर्द है उनमें अमेरिका, बुश, ओसामा, तेल, तेल, तेल, तेल, तेल, तेल.......इरान, क्यूबा, फ़िल्स्तीन, इज़राइल...हैं।

मीनाक्षी said...

इरफान जी , अरब देश में कुछ धर्म और देशों के अल्पसंख्यक लोगो के साथ ऐसी कई घटनायें होती रहती हैं लेकिन दुख नही होता.. नज़रंदाज़ कर दिया जाता है..लेकिन अपने ही देश में अपने ही लोगो के साथ ऐसा होने पर दिल दुखता है.... काश लोग इस दर्द को समझ पायें...जो इस दर्द से गुजरता है वही यह दर्द समझ सकता है... बस इतना ही कहूँगी आप हमेशा अपनी आत्मा का आवाज़ सुनियेगा..

Satish Saxena said...

इरफान भाई !
"अलाउद्दीन खिलजी मुसलमान था परन्तु दयालु था !" निस्संदेह यह तोडे मरोड़े भारतीय इतिहास का एक हिस्सा है जो इस देश के बच्चे बचपन से पढते चले आ रहे हैं ! संकीर्ण बुद्धि के हिंदू विद्वानों द्वारों लिखे गए इस कुत्सित इतिहास के वदौलत ही हम दोनों भाई प्यार के साथ सच्चे मन से हंस भी नही पाते हैं. इस इतिहास में हर मुसलमान बादशाह को निर्दयी तथा कट्टर व हर हिंदू राजा को आदर्श बताया गया ! बालमन इसी इतिहास को सही मान कर आचरण करने लगा जिसकी परिणिति स्वरूप आप जैसे भारत पुत्र को भी अपने देश में अपमान झेलना पड़ा !
अशिक्षा और असहिष्णुता ने इस देश के दोनों बच्चों का बहुत नुकसान किया है ! खासतौर पर मुस्लिम भाई अविश्वास और असुरक्षा के वातावरण में न केवल रह रहे हैं बल्कि उन्हें बार-बार अग्निपरीक्षा भी देने को मजबूर किया जाता रहा है कि यह देश उनका भी है !
हजारों जातियों वाले इस देश में अपनी जाति और कौम का साथ देते हजारों स्वाभाविक उदाहरण हैं ! मगर मुस्लिम उदाहरण हमें नागवार लगते हैं ! मोहम्मद शुएब को आई पी एल में खेलते देख लाखो हिन्दुओं ने तालियाँ बजाई तो कोई बात नहीं मगर इस टूर्नामेंट से पहले अगर कोई, किसी भारतीय मुस्लिम को पाकिस्तान - ऑस्ट्रेलिया मैच में शुएब की तारीफ में तालियाँ बजाते देखता, तो भवें तन जाती !
हम शिक्षित हिन्दुओं व तथाकथित साहित्यक विद्वानों (हिन्दी ब्लोगरों) का यह दायित्व बनता है कि बहुमत में सामाजिक चेतना जगाकर सही बात लोगों को बताने का प्रयत्न करें, खास तौर पर मासूम बच्चों को इस ग़लत इतिहास पढने से रोकें ! जिससे हमारा भविष्य गर्व से आगे बढ़ सके ! लगभग १३ वर्ष पहले एक कविता लिखी थी शायद आपको पसंद आए !

श्री राम !
भरत भूमि में आज लुट रही मर्यादा श्रीराम की !
जाति पांति और भेदभाव
के नाम चढ़े भगवान भी
नास्तिक आज बचाने जाते जन्मभूमि श्रीराम की !

राजनीति के लिए ख़रीदे
जाते हैं भगवान भी
रामनाम को बेच रहे हैं धर्म के ठेकेदार भी !

अन्तिम सच को भूल
फिरें इतराते झूठी शान में
धर्म आड़ में लेकर लड़ते क़समें खाते राम की !

मानवता की बली चढाते
सीना ताने खून बहाते
रक्त होलिका खेलें, फिर भी गाते महिमा राम की !

दिल में घ्रणा समेटे मन
में बदले की भावना लिए
राज्यपिपासु खोजने जाते, जन्मभूमि श्रीराम की !

परमपिता परमात्मा की भी
जन्मभूमि सीमित कर दी
मां शारदा निकट नही आईं, करते बातें ज्ञान की !

प्राणिमात्र पर दया, धर्म
सिखलाता बारम्बार है
पवनपुत्र के शिष्य, लुटाते मर्यादा श्रीराम की !

सादर आपका
सतीश

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी said...

इरफ़ानजी,
आपके संसमरण व अखबार की कटिन्ग दोनों पढे, आपका दर्द मार्मिक है व हम सभी इसमें सम्मिलित हैं, सतीशजी का आह्वान भी उत्तम है, किन्तु हमारे प्रयास निरर्थक ही रहैंगे, जब तक आतंकवाद नियंत्रण में नहीं, आता हां देवबन्द के प्रयास वातावरण को सुधारने में सहायक हो सकते हैं, इस वातावरण को तो आतंकवादी इस्लाम का नाम ले-ले कर बना रहे हैं. उग्र भावनाओं के आगे हमारी-आपकी आवाज दब्कर ही रह जानी है. फ़िर भी सतीश्जी आपका सुझाव सराहनीय है.

रज़िया "राज़" said...

आदाब,इरफान भाइ।
आपके संस्मरण पढने के बाद में सबसे पहले तो उन बनबैठे देशभक्तों से सवाल करुंगी कि क्या आपक ख़ानदान में से किसी ने स्वातंत्रय संग्राम में हिस्सा लिया था? जो फिर से हमें बांटने कि कोशिष कर रहे हो?अब भूल जाओ ये कभी मुमकिन नहिं है। अपनी कुर्सी बचाने को ऐसी ओछे राजनिती पर आगये?
मैं इरफ़ान भाई आपका और ख़ास कर सतिशजी का शुक्रिया अदा करुंगी जो अन्याय के सामने आवाज़ उठाते है। धन्यवाद सतिशजी।