Wednesday, April 16, 2008
दानिश इक़बाल का ताज़ा नाटक सारा शगुफ़्ता की ज़िंदगी पर
सारा शगुफ़्ता (यहाँ एक ब्लॉगर ने परवीन शाकिर की एक कविता, जो कि सारा शगुफ्ता के लिये है, जारी की है) पाकिस्तान की विलक्षण कवियत्री थीं. उनके जीवन और कर्म पर आधारित एक नाटक "सारा का सारा आसमान" लिखा है दानिश इक़बाल ने. यह नाटक इस तुच्छ के पास उन्होंने पढने को भेजा है. दिल्ली में नाटक और ब्रॉडकास्टिंग के साथ दिलकश इंसानों की जानकारी रखने वालों के लिये दानिश इक़बाल किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. मुझे तो रश्क होता है कि कोई इंसान इतना हाज़िर-जवाब और हर वक़्त ज़िंदगी से लबरेज़ मुस्कुराता कैसे रहता है. शायद उनकी ज़िंदादिली के पीछे ज़माने की मुर्दादिली पर हँसने की उनकी ख़ास अदा हो.
बहरहाल. दानिश साहब के इस नाटक के कुछ हिस्से कपटकर आपके सामने रखता हूँ. यह नाटक अभी सिर्फ़ रीडिंग से गुज़र रहा है और इसका मंचन अभी शुरू नहीं हुआ है. स्त्री-स्वतंत्रता और मानवता की सीमाओं के प्रश्नों से जूझता यह नाटक कई अर्थों में एक बाग़ी पहलक़दमी है. अपने स्ट्रक्चर और भाषाई अभिव्यक्ति में इसे मैंने कवियत्री के जीवन जैसा ही जटिल और एक तरह से सरल पाया है. ज़्यादातर पंक्तियाँ सारा शगुफ़्ता की कविताओं से ही संवाद के रूप में गढी गई हैं और उनके समकालीनों और चर्चाओं से उनकी ज़िंदगी के सूत्रों को जोडा गया है.
नाटक से अंश-1
नाटक से अंश-2
नाटक से अंश-3
नाटक से अंश-4
नाटक से अंश-5
नाटक से अंश-6
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5 comments:
"शायरी नहीं... तड़पती कोख का दर्द है यह . ..
...... पर औरत हूं .. किसी से नफ़रत नहीं करती ."
अद्भुत !
जबर्दस्त जीवट वाली इस शायरा पर बेहद प्रभावोत्पादक नाटक होना चाहिए यह . बानगी तो यही कहती है .
नाटक के अंश तो बेहतर लग रहे हैं,मुम्बई मे कभी हुआ तो ज़रूर बताइयेगा,शुक्रिया मित्र
koi bhi tehreer, ager parhne ke bad hamaare dil ko chu jaye aur ... waqai hamen ek minute ruk kar sochne pe majboor kar de to us tehreer ko hum, "KAMYAAB TAKHLEEQ" ka darja de sakte hain.
Danish Iqbal sb. ke likhe is drame me wo tamam khubiyaan intehayee gehraaiyon tak PAIWAST hain.
mujhe Zaati taur pe lagta hai k is natak ko mehaz likhne, chapne ya stage k maqsad se nahi likha gaya, bulke humen isme jhank k khud ko dekhne ka ek mauqa diya gaya hai, taake hum (samaj)wo chehra bhi dekh saken, jo hum nahi dekhna chaahte hain.
Lafzon ka selection bohat kamaal ka hai... " Kuyen ki pyas rassi nahi ... ZAMEEN bujhati hai," Ya phir " Kuyen me dolti rassi jal to sakti hai ... pyas nahi bujha sakti"
Jitna acha likha gaya usi tarha stage karne me bhi is natak k sath insaaf hona chahiye taake ... wo dard aur karb, hum tak theek usi tarha pohanch sake jis tarha isme utaara gaya hai. a.m.raza
waiting for the SHOW! SEAT NO. 23, 24 RESERVE KAR LEIN !
नाटक की भावनाएं तो अच्छी हैं पर सवाल ये है कि क्या इस तरह के संवाद वास्तव की ज़िन्दगी में कोई बोलता है ?
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