ये एक संकरा रास्ता था
जहां पहुंचने के
लिये कहीं से चलना
नहीं पड़ता था
या ये एक मंज़िल थी
समझो
आ जाती थी बस
फिर रात गहराती थी
और चांद की याद भी किसी को नहीं आती थी
एक दिन
जब धूल के बगूलों पर सवार
कुछ लुच्चे आये
(वो ऐसे ही आते-जाते हैं सब जगह बगूलों पर ही सवार)
बाल बिखरे हुए थे उनके
बोले-
नींद खुलने से पहले ही जागा करो...
और ऐसी ही कई बातें.
चांद उत्तर के थोड़ा पूरब होकर लटका हुआ था
किसी को परवाह भी न थी
उन्हें भी नहीं
छटनी में छांटे गये ये लुच्चे
बस छांद की थिगलियां
जोड़ते रहते हैं
रातों में.
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इरफ़ान
12 जनवरी 1994
3 comments:
दोनों कविताएं अच्छी हैं- इंप्रेशनिज्म की याद दिलाती हुई। जारी रहे...
अच्छी हैं भाई.
अच्छी कविता !
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