दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Sunday, September 23, 2007

चांद और लुच्चे

ये एक संकरा रास्ता था
जहां पहुंचने के
लिये कहीं से चलना
नहीं पड़ता था

या ये एक मंज़िल थी
समझो
आ जाती थी बस

फिर रात गहराती थी
और चांद की याद भी किसी को नहीं आती थी

एक दिन
जब धूल के बगूलों पर सवार
कुछ लुच्चे आये
(वो ऐसे ही आते-जाते हैं सब जगह बगूलों पर ही सवार)

बाल बिखरे हुए थे उनके

बोले-
नींद खुलने से पहले ही जागा करो...
और ऐसी ही कई बातें.

चांद उत्तर के थोड़ा पूरब होकर लटका हुआ था

किसी को परवाह भी न थी
उन्हें भी नहीं

छटनी में छांटे गये ये लुच्चे
बस छांद की थिगलियां
जोड़ते रहते हैं
रातों में.
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इरफ़ान
12 जनवरी 1994

3 comments:

चंद्रभूषण said...

दोनों कविताएं अच्छी हैं- इंप्रेशनिज्म की याद दिलाती हुई। जारी रहे...

Reyaz-ul-haque said...

अच्छी हैं भाई.

Pratyaksha said...

अच्छी कविता !