दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Friday, September 28, 2007

राजधानी एक्सप्रेस, सिगरेट और माट्साब की बेहोशी


आगरा रेलवे स्टेशन. 27 सितंबर 2007 की शाम. ट्रेन के इंतज़ार में हूं. ट्रेन के आने का वक़्त हो चुका है. राजधानी धड़धड़ाती हुई फ़ौरन अभी गुज़री है. महसूस करता हूं कि इस रफ़्तार को लेकर शिकायती स्वर कहीं भीतर से सिर उठा रहा है. ग़ौर करता हूं कि सिगरेट सुलगाये हुए कितनी देर हुई. एक घंटा पहले सुलगाई थी पिछली सिगरेट. हाथ अनायास ही जेब तक पहुंचता है और मैं सिगरेट जलाता हूं.
दरअस्ल सिगरेट के लिये मैंने जो जगह चुनी थी वो एक नीम अंधेरे में पड़ा कोना था. रेलवे स्टेशन एक सार्वजनिक स्थान है और आपकी ही तरह मुझे भी सार्वजनिक स्थानों पर सिगरेट का पिया जाना उतना अच्छा नहीं लगता है. बहरहाल मैंने सिगरेट जैसे ही सुलगाई मेरे चेहरे पर एक खिलौना टाइप टॉर्च से आती रोशनी पड़ी. एक क्षण को तो ये हरकत मुझे क़ाबिल-ए-ऐतराज़ लगी लेकिन दूसरे ही पल मैंने खुद को संयत बनाया. मेरे सामने पड़ी बेंच पर एक लड़का बैठा था, जो अब मुझसे इशारे से माचिस मांग रहा था. बीड़ी उसके हाथ में थी. अब समझ में आया कि टॉर्च वो माचिस के लिये ही चमका रहा था.
"क्या नाम है तुम्हारा?"
"रजनीकांत"
"बीड़ी कब से पीते हो?"
"छः-सात दिन हुए"
"क्या करते हो?"
"कुछ नहीं"
"क्या खाया"
"भूखा हूं"
"सुबह क्या खाया था?"
"पूड़ी-सब्जी"
"पैसा कहां से आया?"
"ट्रेन में झाड़ू लगाई थी तो चार रुपये मिल गये थे"
"दिन में पैसा नहीं मिला?"
"कोई देता नहीं...बोलते हैं भाग जाओ."
"कहां जाओगे?"
"टूंडला...वहां मेरा घर है"
"कहां से आ रहे हो?"
"दिल्ली से...रास्ते में टीटी ने उतार दिया...जंगल में...मैंने बोला जंगल में मै क्या करूंगा? बोला उतर जाओ. उतर गया फिर कोई गाड़ी आई तो उसमें लटक गया और यहां आ गया."
"दिल्ली क्या करने गये थे?"
"भाग गये थे"
"क्यों?"
"माट्साब ने मारा और मैं भाग आया."
???
"बहुत जोर से मारा. मेरी ये उंगली कट गयी"
मैंने देखा उसकी उंगली पर अब भी घाव था.मैंने पूछा-
"क्यों मारा?"
मैं पांच मे पढ़ता था. माट्साब एक अच्छर पूछने लगे.नहीं बता पाया तो मारने लगे. मैं रोने लगा फिर भी वो मारते रहे. मैने उनका फोता पकड़ कर इतनी जोर से दबाया कि वो चिल्लाने लगे और बेहोस हो गये. सब मास्टर आ गये और मैं भागा. भागते-भागते मैं नदिया पर पहुंचा अपने ये उंगली धोई. बांधने के लिये कपड़ा भी नहीं था. पता नहीं ये उंगली टूट गयी है या बची है?"
मुझे हंसी आ गयी. अब वो मुझसे खुल चुका था और शायद उसे लग गया था कि मैं उसे कोई नैतिक उपदेश नहीं दूंगा.हंसते-हंसते मैं पंजों के बल वहीं बैठ गया. और समझने लगा कि लड़का बेसिकली भगोड़ा और आवारा नहीं हैं. यह स्कूल मुक्त दुनिया में उसका छठा-सातवां दिन था और वो अपनी दोपहर की भूख के बावजूद हंस सकता था.
"अब क्या करोगे?"
"जो राम चाहेगा वही करूंगा."
"राम क्या चाहता है?"
"अभी तो राम चाहता है कि मै रेल में झाड़ू लगाऊं"
"लेकिन रेल में झाड़ू लगाने से तो तुम्हें खाने को नहीं मिलेगा?"
"लेकिन घर पर रहने से तो मास्टर वहां भी आ जाएगा ढूंढते हुए?"
????
लड़का मुस्कुराते हुए अपने पैंट की जेब में हाथ डालने के लिये टेढ़ा होता है.इस बीच उसकी बीड़ी कई बार बुझती है जिसे जलाने के लिये मैं हर बार उसे माचिस देता हूं.
"मुझे रेल में एक चीज मिली है...गंदी चीज" कहते हुए उसके चेहरे पर जुगुप्सा स्पष्ट है.
लड़का एक काग़ज़ की कतरन निकालता है. अंधेरे में कुछ स्पष्ट नहीं है लेकिन अनुमान सही निकलता है.मैं इस ढाई इंच चौड़ी और कोई चार इंच लबी कागज़ की रंगीन कतरन को देखने के लिये रोशनी तलाशता हूं.लड़का मुझे आवाज़ देता है क्योंकि रोशनी का बंदोबस्त है उसके पास. लड़का अपनी टॉर्च की रोशनी में मुझे वह कतरन दिखाता है. इसमें संभोग की तीन मुद्राएं छपी हैं.
"क्या करोगे इसका?"
"फाड़कर फेंक दूंगा, जला दूंगा"
"तुम कहां जा रहे हो?"
"दिल्ली"
"तुम्हारी गाड़ी आ रही है."
"टूडला में किस स्कूल में पढ़ते थे?"
"रामदास पब्लिक स्कूल"
"फ़ीस कितनी थी?"
"तीन सौ रुपये"
"तुम्हारे बाप क्या करते हैं?"
"रिक्शा चलाते हैं. अब क्या होगा. अब न तो तीन सौ रुपये जायेंगे न मार पड़ेगी"
"टूंडला क्यों जा रहे हो?"
"देखूंगा सब ठीक तो है? वहां कुछ नहीं कर सकता क्यों कि वहां मास्टर लोग ढूंढ लेंगे.सोचता हूं किसी होटल में लग जाऊं."
"होटल की ज़िंदगी बेकार है.तुम किसी मोटर मैकेनिक के साथ लग जाओ"
"कहा?"
"तुम अपनी नानी के यहां चले जाओ"
"नानी तो दादरी में रहती हैं वो तो बहुत दूर है"
"दूर नहीं है तुम अभी घर से वहां का पता लेलेना और चले जाना. रेल में झाड़ू लगा कर कुछ नहीं होगा."
तब तक ट्रेन आजाती है मैं उसे दस का एक नोट थमाता हूं जिसे वो मुट्ठी में पकड़े हुए मुझे जाते देखता है.
"ए तुम क्या करते हो"
मैं उसे बताता हूं और यह भी कि मेरा नाम इरफ़ान है."
"इरफ़ान तो मेरे पिताजी का भी नाम है. तुम मेरे बाबू तो नहीं हो?"

9 comments:

विकास परिहार said...

मित्र उसका नाम रजनीकांत और पिता का नाम इरफान ये बात समझ नहीं आई।दूसरा इसके माध्यम से आप क्या कहना चाहते है ये भी स्पष्ट नहीं हो रहा।
परंतु कोशिश करते रहें सुधार अवश्य होगा।

अनामदास said...

क्या कहें, इरफ़ान भाई, मेरे और आपके ढेर सारे ऐसे बच्चे यूँ ही घूम रहे हैं. माट्साब तो शुरू से आज तक बेहोश हैं.

Srijan Shilpi said...

आखिरी संवाद तो कुछ अधिक ही दिलचस्प है। :)

इरफ़ान said...

चंद्रभूषण said...

टचो गै टुडूजोसच जटु
दजतो कत व तकौहकवच?
वटरकदज क
दज दजुगाबटरकदव गदजोवरटोव?

October 1, 2007 12:18 PM

इरफ़ान said...

मित्र कृपया अपना आशय अनूदित करें.

October 1, 2007 1:10 PM

सुबोध said...

सिगरेट की तरह जलती रहती हैं..इसी तरह तमाम जिंदगियां...कब बुझ जाए पता नहीं...कहां हो मास्टर साहब...

चंद्रभूषण said...

मैंने ब्लॉगवाणी में आपकी इंट्री देखी, उसपर क्लिक किया लेकिन हेडिंग के सिवा वहां कुछ नहीं पाया। लगा कि अब आ गए हैं तो कुछ प्रतिक्रिया दे ही देनी चाहिए, सो दे दी। उपरोक्त प्रतिक्रियावादी कविता में प्रश्नवाचक चिह्न और छंदीय संरचना के अलावा और कुछ भी सार्थक नहीं है इसलिए कृपया इसे दिल पर न लें।

आपकी पोस्ट अभी पढ़ी, बहुत अच्छी है। विकास परिहार के पढ़ने के लिए नागार्जुन की वह कविता छाप दीजिए, जिसमें मेरठ का एक मुसलमान रिक्शेवाला अपनी जीविका बचाए रखने के लिए अपना नाम परेम परकास रख लेता है और टीका लगाकर रिक्शा खींचता है।

भाई विकास, जीवन की असुरक्षाएं लोगों से अजब-अजब खेल कराती हैं। ऐसे में किन्हीं इरफान का घर से भागा लड़का अपनी जुबान पर चढ़े पहले फिल्मी ऐक्टर के नाम को अपना लेता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। आश्चर्य इस बात में है कि इस लड़के को रात के झुटपुटे में अनजानी जगह एक ऐसा इन्सान मिल जाता है जो न सिर्फ बर्ताव में बल्कि नाम में भी उसके बाप जैसा निकल आता है और लड़के की ओढ़ी हुई पहचान अचानक फिसलकर कहीं की कहीं जा पड़ती है।

ऐसी ही टहलती हुई पोस्टों से इस माध्यम की महिमा है, बाकी तो सब बस मोटमर्दी या खामखयाली है...

Anonymous said...

इरफान जी,

मैं वेबदुनिया की ओर से आपको यह पत्र लिख रही हूं। हिंदी पोर्टल वेबदुनिया से तो आप वाकिफ ही होंगे। वेबदुनिया ने हिंदी ब्‍लॉग्‍स की दुनिया पर एक नया कॉलम शुरू किया है – ब्‍लॉग चर्चा। इस कॉलम में प्रत्‍येक शुक्रवार हिंदी के किसी एक ब्‍लॉग के बारे में चर्चा होती है और ब्‍लॉगर के साथ कुछ बीतचीत। अपने इस कॉलम में हम आपका ब्‍लॉग भी शामिल करना चाहते हैं। आप अपना ई-मेल का पता और मोबाइल नं. कृपया नीचे दिए गए पते पर मेल करें। फिर आपसे फोन पर बातचीत करके हम आपका ब्‍लॉग अपने इस कॉलम में शामिल करेंगे।
manisha.pandey@webdunia.net
manishafm@rediffmail.com

शुभकामनाओं सहित
मनीषा

आशुतोष उपाध्याय said...

आपका जवाब नहीं इरफान!!

Anonymous said...

achchha hai...likhte jao bhai.