दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Tuesday, August 14, 2007

बुंदेलखंडी मज़दूरों के गाने



जब मैं वैशाली में रहने आया तो यहां आबादी बहुत कम थी. नये मकान बन रहे थे. ऐसी ही एक इमारत जब ठीक हमारे घर के सामने बननी शुरू हुई तो उसके बेसमेंट में शाम को कुछ गाने-बजाने की आवाज़ें सुनाई देती थीं. हम मियां-बीवी बालकनी से इसका लुत्फ़ लिया करते.
दो-तीन शामें गुज़री होंगी कि मुझसे रहा नहीं गया और मैंने एक शाम वो महफ़िल ज्वाएन की.असल में मुझे अपने बचपन की शामें याद हो आई थीं जो बहुत पीछे कहीं छूट गयी हैं और उन तक अब पहुंचना असंभव है क्योंकि अब वह एक विस्थापित हो चुका सांकृतिक संसार है. बहरहाल वहां थोड़ी कोशिश के बाद अनौपचारिक संबंध बना सका और गोल बनाकर धुआं-पत्ती करते इन बुंदेलखंडी मज़दूरों की मस्ती का साझीदार बना. बहुत मामूली वाद्य यंत्रों और श्रम की मिठास से बना संगीत, जिसमें फ़लसफ़ा है और एक बेलौसपन भी. इन्हीं स्वरों से कहीं मालवा में पंडित कुमार गंधर्व भी कभी बंध गये होंगे और फिर उनका संगीत कभी वह न हो सका जिसकी एक रॊयल फ़ैन फ़ॊलोविंग है.



अब आपको इस बंदिश के कलाकारों से मिलवा दूं.
तमूरा और भजन गानेवाले: नाथूराम अहरवार
झेला: दसरथ अहरवार
ढोलकी मास्टर: सुरेश अहरवार
तार बजानेवाले: नंदलाल

तो सुनिये नाथूराम और साथियों को...जो बीते सात-आठ बरसों में कई दूसरे मोहल्लों में शामें गुलज़ार करने के बाद ऐन इसी वक़्त, जब कि मैं उनका रचा सं‍गीत आप तक पहुंचाने की जद्दोजहद में हूं, वो एक नया संगीत रच रहे होंगे.

बड़े भाग से ये तन पाये
बोललियो रे मीठी बानी
जग में आके गरब ना करियो
थोरे दिन की जिंदगानी...

गाना: बड़े भाग मानुस तन पायो...आवाज़ें:नाथूराम अहिरवार और साथी
थोडा एम्बिएंस:

3 comments:

Rajeev (राजीव) said...

बहुत धन्यवाद! इस मधुर और संगीतमय वास्तविक लोक संगीत की प्रस्तुति पर! इसको पहले load करने में अपेक्षाकृत समय अधिक लगा पर संगीत को सुनकर वह मशक्कत भी नहीँ अखरी। सही कहा आपने, पं कुमार गंधर्व वाली शैली और कबीर की वाणी की स्पष्ट छाप मिलती है इसमें, और साथ में उन मज़दूरों की निश्छल, उन्मुक्त कला की प्रस्तुति भी।

Anonymous said...

जो लोग सोच रहे हैं कि क्या इन सड़क छाप गानों से हमारी रुचि refined पायेगी उन्हें ध्यान से यह गाना सुनना चाहिये.
तरुण

मीनाक्षी said...

खूब मेहनत मशकत करके तीखी चटनी के साथ सूखी रोटी और लोकगीत.. असल ज़िन्दगी का मतलब यही लोग जानते हैं...पोस्ट दिखी आपकी फेसबुक की वॉल पर लेकिन टिप्पणी यहीं करना सही लगा...जुमेरात है देर रात तक जागकर पढ़ने सुनने का मोह नहीं रोक पाए लेकिन पहली रिकोर्डिंग चली नहीं और दूसरी आधी के बाद स्टक हो गई लेकिन जितना भी सुना गहरा अर्थ लिए हुए मन को छू गया. बहुत बहुत शुक्रिया और आभार...