-wrote a blogger
---------------------------------इस पोस्ट में मौजूद गाँव का अतिरंजित रूमानी वर्णन भले ही आपको असहमत करता हो लेकिन यह तो है कि जिस गाने को यहाँ याद किया है, उसकी गिनती फिल्मी गानों की बहुतायत के बीच उन थोडे से गानों में होती है जिन्हें फिल्म व्यवसाय की मार्केटिंग कसरतों से बाहर अपनी गुणवत्ता के कारण जनजीवन में जगह मिली. सारी भागदौड के बीच बीस ग्राम निर्गुणी रस हमारी भूख का हिस्सा है जिसे तब ये गाने पूरा किया करते थे और अब कैलाश खेर उसकी छाजन पर हाथ-पैर मारते हैं तो हम लहालोट होते हैं. राहुल ने यह तो ठीक याद किया कि गायक दृष्टिहीन है. लेकिन नाम उसका श्रीकांत है, साथ में महिला स्वर रीना टंडन का है. पॉलीडोर ने ये ईपी
रिकॉर्ड निर्गुन(यूपी फ़ोक) नाम से 1980 में जारी किया था. रिकॉर्ड नम्बर- 2221 947. इसके साइड 1 में गाना था- कहाँ बिताइयऊ गोरी और साइड 2 में झुलनी का रंग सांचा...संगीतकार का नाम हरबंस जैसवाल और गीतकार की जगह भैरव और चन्द्रशेखर था. झुलनी वाले गाने के गीतकारों में भैरव और चंद्र शेखर के साथ कबीर का नाम भी जुडा हुआ था. मैं यहाँ यह गीत जारी करते हुए राहुल और उन जैसे मित्रों को साधुवाद भेजना चाहता हूँ जिन्हें अपनी विरासत के अनमोल मोती अब भी बेचैन करते हैं. तो लीजिये सुनिये झुलनी का रंग साँचा हमार पिया... हालाँकि यह अभी डिजिटली क्लीन किया जाना है लेकिन इसके लिये आपके धैर्य का इम्तहान नहीं लूगा. क्लीन्ड वर्ज़न बाद में.
7 comments:
गीत कर्णप्रिय है.
wah..mun khush ho gaya..kal sun ney ki koshish naakaamyaab rahi magar aaj bahut aanand aaya...kabhi chaltey firtey ye gaana kahi bajtey suna hai magar aaj puura dhyaan se suna aur dholak ki thaap...wah ..bahut aabhaar aapka..aisi cheezey jaldi sun ney ko nahi miltiin.
mai es ko nahi sun pa raha hu kripa karkey bataey kasey download karu.
manoj singh
kalyan
Maharastra
e-mail -manoj9819@gmail.com
mai es ko nahi sun pa raha hu kripa karkey bataey kasey download karu.
manoj singh
kalyan
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e-mail -manoj9819@gmail.com
इरफ़ान भाई, छुटपन में दादाजी के साथ घूमे मेलों-ठेलों की याद आ गयी. ख़ास तौर पर उस मेले की जो वसंतपंचमी के दिन पटपड़नाथ में लगा करता था. आम का बौर, गेंहूं की कच्ची बाली, धतूरे का फूल शिव जी को चढ़ता था. फिर बगल के पहाड़ी मैदान में लगे मेले में जाकर जिद कर-कर दादा जी से अपनी पसंद की चीजें खरिदवाना.
मुझे प्लास्टिक की बड़ी पिपिहरी, लाई और गुड़ की जलेबियाँ अच्छी लगती थीं. सिंघाडे दादाजी को बेहद पसंद थे. घूम-घूम कर हम तरह-तरह के खेल देखते और फिर आख़िरी कार्यक्रम होता था झूला झूलने का. वहीं झूले के बगल में ग्रामोफोन पर यह दिलकश गाना बजता- 'झुलनी का रंग साँचा हमार पीया.'
फिर कई दिनों तक बड़े-बड़े- झूलों की चूं-चरर कानों में गूंजती रहती. आज यह गाना सुनकर मैं फिर उसी मेले में पहुँच गया हूँ. अलबत्ता दादाजी साथ नहीं हैं. कोई पिपिहरी दिलाने वाला भी नहीं है, कोई आठ आने का वह पीला टिकट लेकर झूला झुलाने वाला भी नहीं है.
इरफान भाई,
अफसोस है कि शायद अब इस गाने का हाइपरलिंक हटा दिया गया है। कृपया इसे फिर से डालने की मेहरबानी करें। मुझे बड़ी शिद्दत से इस गीत की तलाश है।
- शाशिकान्त सिंह
नई दिल्ली।
Email:sksinghtranslator@gmail.com
17.9.2009
आपका अत्यंत आभारी हूँ कि आपने न सिर्फ लिंक को रिवाइव किया, बल्कि मुझे लिंक भी ईमेल कर दिया। ये बात और है कि मेरी फरमाइश सितंबर, 2009 की थी और पूरी मार्च 2015 में हुई। एक बार पुन: आभार।
शशिकान्त सिंह
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