Sunday, December 23, 2007
हिंदुस्तानी साज़ों के रंग- दो
अब इस बात पर बहस होने लगे तो कोई ताज्जुब नहीं होगा कि मोरचंग को हिंदुस्तानी साज़ कहें या न कहें. बहस चलती रहेगी और हम इसे हिंदुस्तानी कह कर इसका लुत्फ़ उठाते रहेंगे. अब देखिये कि पर्कशन साज़ों में मुँह का इस्तेमाल थोडा कम ही होता है, लेकिन इस साज़ से जो आवाज़ निकलती है उसमें इंसानी धडकनों का कितना हिसाब-किताब मौजूद है. मुझे हमेशा से मोरचंग एक अनप्रिडेक्टेबल मोडों और मंज़िलों का साज़ लगता है. अगर पीडा का कोई सच्चा वाद्य हो सकता है तो वो मोरचंग है. दक्षिण भारतीय शास्त्रीय और लोक दोनों प्रकार के संगीत में इसकी मौजूदगी कोई नयी बात नहीं है और दूसरा इलाक़ा राजस्थान है जहाँ के माँगनियार इसे कसरत से इस्तेमाल करते हैं. देखने में यह कैसा लगता है यह तो आप देख ही रहे हैं.
सुनिये कि यह सुनाई कैसा देता है-
ढोलक के साथ कम्मू ख़ाँ (राजस्थान) की मोरचंग पर बजाई एक धुन का टुक़डा
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4 comments:
अद्भुत संगीत! इस का मज़हब किस से पूछूं भाई?
suna bahut baar hai,utsuktaa thii ki kaisa dikhta hoga ye saaz...shukriya
लाजवाब! यह वाद्य "बिणाई" नाम से मध्य हिमालय के पहाड़ी इलाकों में भी कभी बजाया जाता था। तिब्बत में तो इसे अब भी बजाते हैं।
Good Information. Many years ago on doordarshan I've just saw the clip only,First time I came to know about Morchang. Thanks for Information.
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