Sunday, December 16, 2007
आपने सुना होगा कि बेगम अख़्तर एक्टिंग करती थीं !
28 मई 1964 को जब वो मरे तो 16वी सदी की महान कश्मीरी कवियत्री हब्बा खातून पर फिल्म बनाने का उनका ख्वाब भी दफ्न हो गया. रमज़ान ख़ाँ कोई 16 साल की उमर में घर से भागे और बंबई पहुँचे. उन्होंने थोडा समय इंपीरियल फिल्म कंपनी में काम करते हुए गुज़ारा.अली बाबा और चालीस चोर में वो चालीस चोरों में से एक यानी फिल्म में एक्स्ट्रा थे और पीपे में छुपे हुए थे.सागर मूवीटोन में कुछ छोटी मोटी भूमिकाएँ करते रहे. तो भइया काफी पापड बेलने के बाद आखिरकार उन्होंने लाइन पकडी और फिल्म बनाने लगे. 1935 में उन्होंने अपनी पहली फिल जजमेंट ऑफ़ अल्लाह नाम से बनाई.यह फिल्म् सिसिल बी. डिमीली की फिल्म द साइन ऑफ द क्रॉस से प्रेरित थी.बात हो रही है महबूब ख़ाँ की.
मदर इंडिया को आने में अभी पंद्रह साल थे. इस बीच उन्होंने रोटी बनाई. हाँलाँकि रोटी बनाने तक वो जागीरदार, एक ही रास्ता,औरत और बहन बना चुके थे.उनकी सभी फिल्मों में गहरे सामाजिक सरोकार और ग़रीब-ग़ुरबा को लेकर हमदर्दी दिखती है और अमीरों के प्रति नफरत. महबूब ने फिल्म रोटी 1942 में बनाई. इसमें मशहूर ग़ज़ल सिंगर बेगम अख़्तर (जो तब अख़्तरी बाई फैज़ाबादी के नाम से जानी जाती थीं), मशहूर कथक नृत्यांगना सितारा देवी, अशरफ़ ख़ाँ, चंद्रमोहन और शेख़ मुख़्तार प्रमुख सितारे थे.
फिल्म का संगीत अनिल बिस्वास ने तैयार किया था, जो उस ज़माने में बेहद कलात्मक और आला दर्जे का इंक़लाबी संगीत था. अब अनिल बिस्वास की ज़िंदगी भी कम मरहलों से भरी नहीं थी. वो भी सोलह साल की उमर में बंग्लादेश के अपने बारीसाल वाले गाँव से भाग कर कलकत्ता आ गये थे और कलकत्ता भी आसानी से नहीं पहुच सके थे. उससे पहले वो आज़ादी के आंदोलन में जेल जा चुके थे और कलकत्ता पहुँचने के लिये किराये के पैसे नहीं थे. उन्होंने क़ुलीगीरी की और किसी किसी तरह पहुँचे. वहाँ भी गुज़ारा कैसे होता. वो एक होटल में बरतन माँजने लगे. आज़ादी की लडाई के दिन थे और पिछले केस में आखिरकार फिर पुलिस ने उन्हें पकड लिया.चार महीने जेल में रहे और पिटाई भी ख़ूब हुई. बहरहाल बेहद तकलीफों से भरा जीवन जीते हुए वो संगीत की डोर थामें रहे. जीवन की विसंगतियों और आम जन के जीवन में अपनी आस्था के बलपर अनिल बिस्वास ने अपने संगीत का सौंदर्य कमाया. क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के अलावा बीसियों ऐसे विलक्षण लोग उनके जीवन में आए जिनसे उन्हें अपने संगीत की विशेषता बरक़रार रखने का बल मिला. मेळडी के साथ काउंटर मेलडी का सुंदर सामंजस्य करते हुए उन्होंने अपने सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों को अपने संगीत में गुँजाया.
फिल्म रोटी के गाने आप शायद ही कभी सुन पाएँ, यह सोचकर मैं कुछ गाने आपके लिये पेश कर रहा हूं. दूसरा गाना ही बेगम अख़्तर का है. इन गानों को सुनना आपके लिए एक अद्भुत अनुभव होगा. तो लीजिये सुनिये.
भूख लगी है आ खा अंगारे खा
आ फिर फसले बहार आई
मेघराज आए बरखा लाए
आदिवासी गीत
भर-भर के पिला
ग़रीबों पर दया करके बडा अहसान करते हो, इन्हें बुज़दिल बना देने का तुम सामान करते हो
है मक्कार ज़माना है,मक्कर ज़माना, रहम न खाना
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2 comments:
दुर्लभ!
जहाँ तक मेरी जानकारी है बेगम की आखिरी फिल्म रे की जलसाघर थी....हो सके तो वहाँ के कुछ विडुवल छापें....काफी फरमाइशी हो गया हूँ पर क्या करूँ मैं .....
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