
जब बहुत शोर हो और कुछ रस्मी-बेमानी शुभकामनाओं और शुभेच्छाओं से मन उकता जाये तो आइये कहें.
फिल्म: स्वामी विवेकानंद (1998), संगीत: सलिल चौधरी, गीत: गुलज़ार


नोएडा में वो अपने बेटे-बहू के साथ रहते हैं. फ़ोटो में बाएं से दूसरा कक्कड़जी का बेटा मुकुल और बिल्कुल दाएं बेटी राधिका. बेटा गोकुल अब उनके गार्मेन्ट्स का एक्स्पोर्ट व्यापार संभालता है. बेटी राधिका, इलाहाबाद के मशहूर कोशकार डॊ.हरदेव बाहरी की बहू है. इत्तेफ़ाक़ से वो इन दिनों यही है और उससे भी मुलाखात हुई. पूरा परिवार संगीत में आकंठ डूबा हुआ है. सबकी अपनी-अपनी रुचियां है लेकिन इतनी भी भिन्न नहीं कि आप एक दूसरे को पहचान न सकें.
देखने में यह कैसा लगता है यह तो आप देख ही रहे हैं.
हिंदुस्तानी साज़ों के रंग निराले हैं. ये है नक्कारा, जो उत्तर भारतीय लोक संगीत का अभिन्न हिस्सा है. मांगलिक अवसरों के अलावा यह अनेक अनुष्ठानों में बजता सुनाई देता है. नौटंकी और पारंपरिक संगीत आयोजनों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है. मौसम की नज़ाकत और सटीक धुनों की तलाश में इसे आग जलाकर गर्म करते हुए आपने कभी ज़रूर देखा होगा.


फिल्म का संगीत अनिल बिस्वास ने तैयार किया था, जो उस ज़माने में बेहद कलात्मक और आला दर्जे का इंक़लाबी संगीत था. अब अनिल बिस्वास की ज़िंदगी भी कम मरहलों से भरी नहीं थी. वो भी सोलह साल की उमर में बंग्लादेश के अपने बारीसाल वाले गाँव से भाग कर कलकत्ता आ गये थे और कलकत्ता भी आसानी से नहीं पहुच सके थे. उससे पहले वो आज़ादी के आंदोलन में जेल जा चुके थे और कलकत्ता पहुँचने के लिये किराये के पैसे नहीं थे. उन्होंने क़ुलीगीरी की और किसी किसी तरह पहुँचे. वहाँ भी गुज़ारा कैसे होता. वो एक होटल में बरतन माँजने लगे. आज़ादी की लडाई के दिन थे और पिछले केस में आखिरकार फिर पुलिस ने उन्हें पकड लिया.चार महीने जेल में रहे और पिटाई भी ख़ूब हुई. बहरहाल बेहद तकलीफों से भरा जीवन जीते हुए वो संगीत की डोर थामें रहे. जीवन की विसंगतियों और आम जन के जीवन में अपनी आस्था के बलपर अनिल बिस्वास ने अपने संगीत का सौंदर्य कमाया. क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के अलावा बीसियों ऐसे विलक्षण लोग उनके जीवन में आए जिनसे उन्हें अपने संगीत की विशेषता बरक़रार रखने का बल मिला. मेळडी के साथ काउंटर मेलडी का सुंदर सामंजस्य करते हुए उन्होंने अपने सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों को अपने संगीत में गुँजाया.
उत्तराखंड के अल्मोड़ा ज़िले के छोटे से गांव चांदीकोट में जन्मे गोपाल बाबू गोस्वामी का परिवार बेहद गरीब था. बचपन से ही गाने के शौकीन गोपाल बाबू के घरवालों को यह पसंद नहीं था क्योंकि रोटी ज़्यादा बड़ा मसला था. घरेलू नौकर के रूप में अपना करियर शुरू करने के बाद गोपाल बाबू ने ट्रक ड्राइवरी की. उसके बाद कई तरह के धंधे करने के बाद उन्हें जादू का तमाशा दिखाने का काम रास आ गया. पहाड़ के दूरस्थ गांवों में लगने वाले कौतिक - मेलों में इस तरह के जादू तमाशे दिखाते वक्त गोपाल बाबू गीत गाकर ग्राहकों को रिझाया करते थे.
सुनिये, उर्मिला श्रीवास्तव का गाया यह गीत जिसे सुनते हुए रिहर्सल के कई दौरों में हम रोया किये. इसी अल्बम से एक और गाना यहां सुनिये.
घुघूती कबूतर जैसी एक चिडिया होती है जो बौर आने के साथ ही आम के पेडों पर बैठ कर बहुत उदास तरीके से गुटरगूँ करती है. पहाडी प्रेमिकाएं इसी पाखी के माध्यम से परम्परागत प्रेम का एकालाप किया करती हैं.
यहां आप सुनेंगे उमा देवी का गाया वामक़ अज़रा का वह गीत, जिससे उन्होंने शुरुआत की. आप वह गाना भी सुनिये जिससे मुझे यह पोस्ट लिखने की ज़रूरत जान पडी.
यह जमावडा जनमत के बी-30, शकरपुर वाले ऑफ़िस में रोज़ कुछ नये गुल खिलाता था.