और झाडियों के बारे में
इतना तो कह ही
सकता हूं कि
वे कम्बलों में दुबके लोग
ही हैं जो
झंडे की बंदरबांट में शामिल नहीं थे
उस रात जब
रेलों में लोग ढूंढ ढूंढ कर मारे गये,
ये अपने कंबलों में दुबक गये.
पेड़ों को तो ख़ैर तुम
आज भी नर्तन
की मुद्रा में देखते होगे
संसदों और सट्टाबाज़ारों में दो को चार बनाते.
(ट्रेन, पटना से कानपुर, 28 फ़रवरी 1991)
इतना तो कह ही
सकता हूं कि
वे कम्बलों में दुबके लोग
ही हैं जो
झंडे की बंदरबांट में शामिल नहीं थे
उस रात जब
रेलों में लोग ढूंढ ढूंढ कर मारे गये,
ये अपने कंबलों में दुबक गये.
पेड़ों को तो ख़ैर तुम
आज भी नर्तन
की मुद्रा में देखते होगे
संसदों और सट्टाबाज़ारों में दो को चार बनाते.
(ट्रेन, पटना से कानपुर, 28 फ़रवरी 1991)
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