दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Saturday, December 15, 2007

घुरू घुरू उज्याव है गो

कौन थे गोपाल बाबू गोस्वामी
उत्तराखंड के अल्मोड़ा ज़िले के छोटे से गांव चांदीकोट में जन्मे गोपाल बाबू गोस्वामी का परिवार बेहद गरीब था. बचपन से ही गाने के शौकीन गोपाल बाबू के घरवालों को यह पसंद नहीं था क्योंकि रोटी ज़्यादा बड़ा मसला था. घरेलू नौकर के रूप में अपना करियर शुरू करने के बाद गोपाल बाबू ने ट्रक ड्राइवरी की. उसके बाद कई तरह के धंधे करने के बाद उन्हें जादू का तमाशा दिखाने का काम रास आ गया. पहाड़ के दूरस्थ गांवों में लगने वाले कौतिक - मेलों में इस तरह के जादू तमाशे दिखाते वक्त गोपाल बाबू गीत गाकर ग्राहकों को रिझाया करते थे.

एक बार अल्मोड़ा के विख्यात नन्दादेवी मेले में इसी तरह का करतब दिखा रहे गोपाल बाबू पर कुमाऊंनी संगीत के पारखी स्व. ब्रजेन्द्रलाल साह की नज़र पड़ी और उन्होंने नैनीताल में रहने वाले अपने शिष्य (अब प्रख्यात लोकगायक) गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' के पास भेजा कि इस लड़के को 'देख लें'. गिर्दा बताते हैं कि ऊंची पिच में गाने वाले गोपाल बाबू की आवाज़ की मिठास उन्हें पसंद आई और उनकी संस्तुति पर सांग एंड ड्रामा डिवीज़न की नैनीताल शाखा में बड़े पद पर कार्यरत ब्रजेन्द्रलाल साह जी ने गोपाल बाबू को बतौर कलाकार सरकारी नौकरी पर रख लिया.

यहां से शुरू हुआ गोपाल बाबू की प्रसिद्धि का सफ़र जो ब्रेन ट्यूमर से हुई उनकी आकस्मिक मौत तक उन्हें कुमाऊं का लोकप्रिय गायक बना गया था. जनवरी के महीने में हल्द्वानी में होने वाले उत्तरायणी मेले में निकलने वाले जुलूस में मैने खुद हज़ारों की भीड़ को उनके पीछे पीछे उनके सुर में सुर मिलाते देखा है. "कैले बाजै मुरूली", "घुरु घुरु उज्याव है गो", "घुघूती ना बासा" और "रुपसा रमोती" जैसे गाने आज भी खूब चाव से सुने जाते हैं और कुछेक के तो अब रीमिक्स तक निकलने लगे हैं.
यह परिचय और नीचे मौजूद घुरू घुरू उज्याव है गो का अनुवाद मेरे बेमुर्रौव्वत इसरार पर मुझे अशोक पांडे ने भेजा है. गोपाल बाबू गोस्वामी का एक गीत यहां पहले जारी किया जा चुका है.
तो लीजिये सुनिये गोपालदा का गाया गीत -
घुरू घुरू उज्याव है गो



हौले हौले सुबह की उजास हो गई है
जंगलों में सरसराहट है
बंसुरी के सुर बजने लगे हैं
हौले हौले सुबह की उजास हो गई है

ग्रह्स्वामिनी जागने लगी है
देवीदेवता और हिमशिखर जागने लगे हैं
शिव के डमरू की धमक
मेरे हिमालय में गूंजने लगी है
घंटियां भी टुनटुनाने लगी हैं
हौले हौले सुबह की उजास हो गई है

हाथों में तांबे की गगरियां लिये
सुघड़ नारियां पानी भर लाने को चल दी हैं
रस्ते-बाटों में घुंघरू छ्मकाती इन स्त्रियों की
गगरियों से पानी के छ्लकने की
मीठी आवाज़ निकल रही है
हौले हौले सुबह की उजास हो गई है

3 comments:

काकेश said...

आनन्द आ गया इस चिर परिचित गीत को सुन के.

महेन said...

बंधु, गोविंद बाबू तो लिविंग लेजेंड थे। बचपन में कैसेट प्लेयर में उनके गाने पिताजी लगभग रोज़ ही बजाया करते थे जो अवचेतन में संस्कार ही बन गए थे।
अफ़सोस कि क्षेत्रीय कलाकारों की प्रसिद्धि क्षेत्रीय ही होकर रह जाती है।

महेन said...

बंधु, गोविंद बाबू तो लिविंग लेजेंड थे। बचपन में कैसेट प्लेयर में उनके गाने पिताजी लगभग रोज़ ही बजाया करते थे जो अवचेतन में संस्कार ही बन गए थे।
अफ़सोस कि क्षेत्रीय कलाकारों की प्रसिद्धि क्षेत्रीय ही होकर रह जाती है।