दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Sunday, December 9, 2007

सुनहरी यादों का क़ाफ़िला: एक रंगकर्मी के रिफ़्लैक्शंस

इंटरव्यू को फ़ाइनली जारी करने से पहले मेरा फ़र्ज़ था कि विमलजी को उसे सुनवा देता ताकि इतने दिनों बाद सेकंड थॉट में कुछ बातों को अप्रासंगिक या संदर्भच्युत होने के कारण हटा देना चाहें. सो मैंने उन्हें भेज दिया. इन दिनों वो अपने घरेलू मोर्चों पर व्यस्त हैं इसलिये इस इंटरव्यू को सुनने का वक़्त मुश्किल से निकाल पाए.
रात उनका जो जवाब आया उसे यहाँ पेश कर रहा हूँ. ताकि बुनियादी तौर पर आदमी की पहचान हो सके. वो जैसे कल थे वैसी ही बिंदास मस्ती में उन्होंने इस पॉड्कास्ट को अप्रूव कर दिया है, यह कहते हुए कि यह विमल की विमल से मुलाकात है.

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भाई इरफ़ान,
अच्छा लग रहा है इसी बहाने पुराने दिन याद आ रहे हैं, मैने ऑडियो सुना सुखद है कि आपने इन सारी चीज़ों को बड़ा सम्हाल के रखा हुआ है,पर जो पोस्ट हो रहा है पता नहीं लोगों की कितनी दिलचस्पी है इन बातों में? क्योकि जिस विमल टुमरी वाले की आप बात कर रहे हैं, वो कोई असाधारण कार्य तो नहीं ही कर रहे हैं... और जो उन्होने पिछली ज़िन्दगी जी है..... उसका कुछ ज़्यादा महिमामंडन तो नही हो रहा ? फिर भी आपको लग रहा है चीज़ें सामने आनी चाहिये तो भला मैं कैसे एतराज़ कर सकता हूं.....
-विमल
पुनश्च : और एक बात तो रह गई....... कल रात मैने सुना जो पन्द्रह साल पहले विमल ने कहा था, इन पन्द्र्ह साल पुरानी बातों को सुनकर लगा आज जो विमल है आपके ठुमरी वाले वो इस विमल से एकदम अलहदा हैं, अरे इरफ़ान बहुत से शब्द भी ऐसे थे जिनका इस्तेमाल आज तो मैं करता ही नहीं हूं,
पर पन्द्रह साल पुराने विमल से सामना कराने के लिये वाकई आपका धन्यवाद जिसकी बहुत सी बातें तो ऐसी लग रही थी कि जैसे मै उन्हें पहली बार सुन रहा था विमल की विमल से मुलाकात के लिये शुक्रिया !!




ये एक रंगकर्मी है, जिसने अपनी ज़िंदगी के सबसे ज़्यादा ऊर्जावान वर्षों को एक ख़ास सरगर्मी के बीच गुज़ारा. कहने को इस सरगर्मी का नाम रंगकर्म था लेकिन अगर वो सिर्फ रंगकर्म होता तो बताने को इतनी बातें और सुलझाने को इतने सवाल न होते. ये एक मुकम्मल ज़िंदगी थी और जो समाज के ज्वलंत सवालों से मुँह न मोडती थी. अंग्रेज़ी के शब्द cultural squad की ध्वनि देता हुआ एक ग्रुप, जिसका नाम दस्ता था - लंबे समय तक ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश और आम तौर पर समूचे हिंदी भाषी इलाक़े की धडकन बना रहा. नुक्कड नाटकों और गीतों के अलावा पोस्टर प्रदर्शनियाँ, प्रकाशन और पठन-पाठन के विभिन्न सत्र इसके समूचे क्रियाकलाप का अभिन्न हिस्सा थे. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और इसके सभी कॉलेज इसकी गतिविधियों का केंद्र थे.
फिल्म-क्लब, प्रयाग संगीत समिति में होने वाले नाटकों के आयोजन और साहित्यिक जमावडों से इस ग्रुप की अनुपस्थिति प्राय: अकल्पनीय थी.इस तरह कोई भी सांस्कृतिक हलचल दस्ता की धमक से अछूती नहीं थी. इसमें कच्चे-पक्के सैद्धांतिक सवालों से लेकर एक युवावस्था की हुर्र-फुर्र और इश्क-मुश्क सब शामिल था. बीच-बीच में ऐसे मौक़े भी आते जब ग्रुप का अस्तित्व ही संकट में पड जाता. एक सक्रिय छात्र आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन की राजनीतिक हलचलें ऐसे में इसे एक नया जीवन देतीं.
सब स्टूडेंट्स थे और ये सभी लोग अलग-अलग सांस्कृतिक-सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से आते थे. मन को तरंगित करने और अपनी-अपनी भूमिकाओं से संतुष्टि के अलावा एक चीज़ जो अक्सर छूट जाया करती थी और जो चीज़ हज़ार आश्वस्तियों पर भारी होकर सामने आ खडी होती थी वो थी भविष्य की चिंता. अनेक प्रेम प्रसंगों और प्यार निभाने के तमाम वादों ने, भविष्य की इन्हीं अनसुलझी लटों में लिपटकर दम तोडा ही. साथ ही उनके उस प्यार को भी चौराहे पर ला खडा किया, जो सिर्फ़ थियेटर को अपना पहला और आख़िरी प्यार मानते थे. दूरगामी योजनाओं को अमली जामा पहनाने और काम को सस्टेनेबल बल्कि सेल्फ सस्टेनेबल एक्सरसाइज़ बनाने के भी कई कॉम्बीनेशन पर्म्यूटेशन आज़माए जाते लेकिन व्याहवारिक सवालों की सख़्त ज़मीन पर उन्हें देर तक सहारा न मिलता. शायद ऑब्ज़र्वर्स इस बात पर सहमत होंगे कि जितना समय भी यह प्रयोग चला उसमें इस ग्रुप की अपार सहनशीलता, ज़िद और तरुणाई का रोमैंटिसिज़्म प्रमुख तत्व रहे. जब तक संभव बना इस ग्रुप ने अपनी रचनाशीलता और सक्रियता के बल पर एक पूरे दौर को एक अद्भुत रसास्वाद से भरा. इन पंक्तियों के वे पाठक जो इतिहास गवाह है, राजा का बाजा, घेरा, जनता पागल हो गई है, कल भात आयेगा, बकरी, स्पार्टाकस, हत्यारे, इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर वग़ैरह नाटकों और गीतों के दर्शक भर रहे हैं वे भी इस बात को मानेंगे कि उनकी स्मृति में यह सब कुछ एक खुशनुमा याद की तरह अब भी ताज़ा है और यह भी कि उस अनुभव ने उन्हें समृद्ध किया है.
साइकिलों पर सवार कुछ लडके अभी किसी चाय की दुकान पर उतरे हैं. अभी कुछ और का इंतज़ार है. क्यों न चाय का एक दौर चले! आसपास की दुकानोंवाले और राह चलते लोग भी इनकी सूरतों से वाक़िफ़ हैं. एक सुगबुगाहट फैल गयी है कि नाटक होगा. हालाँकि नाटक जैसा कुछ दिख नहीं रहा है. कंधे पर लटके थैलों में क्या है यह किसको मालूम. चाय का दूसरा दौर भी चलता है क्योंकि जिन्हें आना था वो भी आ गये हैं.
तभी एक-एक डफ़ली लेकर उस चौराहे के दोनों तरफ दो लोग बढ चले हैं... सुनो...सुनो...सुनो... अभी थोडी ही देर में आप को यहां एक नाटक दिखाया जायेगा....सुनो...सुनो...सुनो
ये एजी ऑफिस चौराहा है, जहाँ लंच टाइम में इधर-उधर लोग बैठे हैं या टहल रहे हैं..धीरे-धीरे भीड बढने लगती है और थोडी ही देर में दो तीन गीतों के बाद नाटक शुरू हो जाता. एक गोल घेरे के बीच अभिनेता अपनी अपनी भूमिकाओं में...
नुक्कड से लेकर प्रोसीनियम तक वर्षों चले इस सिलसिले की निशानियाँ हम सब के साथ रहेंगी.

शुरुआती दस्ता के सदस्य विमल, अमरेश, उदय, उमेंद्र, प्रमोद और अनिल.

पिछली दो पोस्टों में मैने यहाँ इस ग्रुप के एक चहेते एक्टर विमल की कुछ रिकॉर्डिंग्स आपको सुनवाई थीं जो इस मूल इंटरव्यू का टीज़र थीं. आइये सुनें इस एक ही सिटिंग में हुई बातचीत को दो हिस्सों में.


इलाहाबाद पहुँचकर मुझे जीने का एक मक़सद मिला...



मैं बहुत से लोगों का दोस्त हूँ, मेरा कोई दोस्त नहीं...

7 comments:

अभय तिवारी said...

उन पुराने दिनों की याद दिला दी आप ने!

VIMAL VERMA said...

समझ में नहीं आ रहा कि मैं इन सब बातों को सुनकर क्या बोलूं , पर बहुत अजीब लगता है, मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है, और अलग अलग स्थियों में अपने हिसाब से ही सोच पाता है, आज घर परिवार सब है मां साथ में है पर इन सबके बावजूद बेचैनी है वो वैसी ही है जैसी पन्द्रह साल पहले थी.

मुनीश ( munish ) said...

adbhut din bitaye apne! main to gurgaon ke dronacharya govt. college ka chhatra tha jo 'saand ashram' ke naam se bhi khyaat raha. naatak humne bhi kiye youth festvals mein magar bus inaam-vinaam jeetne ke liye. main apke jazbe , samaji sarokar aur passion ka kayal hoon aur is prakar ki baaten mujhe bhali lagin.darasal paidaishi u.p. ka hoon par pala badha haryana me where only culture is 'agriculture'!!

Anonymous said...

इरफ़ानजी,आपने तो फिर से उन दिनों की याद दिला दी....कितनी दूरी पार कर ली है हमने,कमाल है इरफ़ान कि, आपने मेरे जैसे मित्रों से मुत्तालिक सामग्री अभी तक किस बक्से में डाल रखी थी जो आज तक आपके पास महफ़ूज पड़ी थी, लोगों को कितना मज़ा आया इसका अन्दाज़ा तो मैं लगा नही सकता, पर इतना ज़रूर कर दिया आपने कि, मुझे अपने बारे में फिर से सोचना पड़ेगा ,पर आप...... आप तो धन्य हैं.... आपकी एक आदत..... हमेशा याद रहेगी कि लोगों को आश्चर्यचकित कर देना और दूर से मज़ा लेना, इसको तो मै बयां भी नहीं कर सकता, पर मुझे भी सुनकर आनन्द आया, क्योकि इन गानो को आज भी मैं गाता तो हूं, पर उनकी धुन ये नहीं है जो आपने लगा रखी हैं,फिर भी मै आपका कायल हूं जो अपने मित्रों को इतना सम्मान देते हैं,और उनकॊ इतना गहरे समझते हैं, शुक्रिया
-विमल वर्मा

Vikash said...

विमल जी के बारे में उन्ही के मुख से इतना कुछ सुनना काफी रोचक (और शिक्षाप्रद भी) था. धन्यवाद!

अजित वडनेरकर said...

ये सुनना भी अच्छा लगा। कैसे संभाल पाते हैं इतना सब !

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

'कज्ज़ाक' लेव तालस्तॉय का अद्भुत उपन्यास है, विमल भाई. अद्भुत कहता हूँ तो सचमुच अद्भुत! मेरे पास है. उस जाति और उसकी जीवनशैली के बारे में इतना प्रामाणिक और असरदार लेखन अन्यत्र नहीं मिलता.

वैसे आपकी बेबाक और ईमानदार बातचीत सुनकर बड़ा अच्छा लगा.