दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Wednesday, January 23, 2008

यूँ तो आप मानेंगे नहीं लेकिन फिर भी कहता हूँ


यारों को ग़लत लिखने में अब कोई शर्म नहीं आती और जगह-बेजगह नुक़्तेबाज़ी करते हैं. नुक़्ता कहाँ हो, कहाँ न हो इस पर पहले भी ब्लॉगमहोपाध्यायों ने विचार किया है और आगे भी उन्हें कौन रोक सकता है!

दिल्ली का एक एफ़एम रेडियो-जॉकी नुक़्ते के मारों का दर्द समझते हुए उनका मनोबल बढाता है. उसी के शब्दों में-"मैं नुक्ते आपकी तरफ उछालता हूँ, जहाँ मर्जी आये लगा लीजियेगा."
यहाँ बीबीसी की तरफ़ से अचला शर्मा द्वारा संचालित एक पुस्तक से परिशिष्ट पेश कर रहा हूँ शायद काम आए.बडा करके देखने के लिये यहाँ मौजूद पृष्ठ की छवि पर दो बार क्लिक करें.

9 comments:

ghughutibasuti said...

मानना चाहकर भी नहीं मान सकते । एक तो उर्दु आती नहीं । दूसरे हमारा उच्चारण भी गलत है । तीसरा हम हिन्दी लिखने के लिए तख्ती नामक साधन का उपयोग करते हैं । उसमें यह सुविधा शायद नहीं है । वैसे यह शब्द मैंने आज ही समझा है ।
घुघूती बासूती

Yunus Khan said...

इरफान भाई अच्‍छा मुद्दा है । मैं रेडियोनामा के ज़रिए साफ़ और अच्‍छा बोलने पर श्रृंखला शुरू करने के बारे में सोच रहा हूं । इससे पहले एक बार नुक्‍तेबाज़ी पर बहस हुई और हमने नुक्‍तों का समर्थन किया तो कई लोग पत्‍थर लेकर खड़े हो गये थे । नुक्‍तों का मुद्दा काफी नुक्‍ताचीनी लेकर आता है ।

उन्मुक्त said...

नुक्ता सही जगह लगा पाना बहुत मुश्किल काम है। खास कर मेरे जैसे लोगों के लिये जो उर्दू नहीं जानते हैं।
मै कोशिश करता हूं कि कहीं नुक्ता न लगाऊं - क्या यह गलत है?
आपका चिट्ठा लोड करने में बहुत समय लेता है। जब जल्दी में होता हूं तो थोड़ी झुंझलाहट होती है।

अभय तिवारी said...

क और क़, ज और ज़, फ और फ़, ग और ग़, का तो आप बहुत ख्याल रखते हैं मगर मैंने आप को भी मुहब्बत को मुह़ब्बत और इश्क़ को इ़श्क़ लिखने नहीं देखा.. ?
आप को पता है रमदान को ईरान के पूर्व में रमज़ान क्यों कहा जाता है? और व्याकरण व उच्चारण की शुद्धता का बहुत ख्याल रखने वाले अरब लोग पारस को फ़ारस क्यों कहने लगे?

अभय तिवारी said...

क और क़, ज और ज़, फ और फ़, ग और ग़, का तो आप बहुत ख्याल रखते हैं मगर मैंने आप को भी मुहब्बत को मुह़ब्बत और इश्क़ को इ़श्क़ लिखने नहीं देखा.. ?
आप को पता है रमदान को ईरान के पूर्व में रमज़ान क्यों कहा जाता है? और व्याकरण व उच्चारण की शुद्धता का बहुत ख्याल रखने वाले अरब लोग पारस को फ़ारस क्यों कहने लगे?

अभय तिवारी said...

क और क़, ज और ज़, फ और फ़, ग और ग़, का तो आप बहुत ख्याल रखते हैं मगर मैंने आप को भी मुहब्बत को मुह़ब्बत और इश्क़ को इ़श्क़ लिखने नहीं देखा.. ?
आप को पता है रमदान को ईरान के पूर्व में रमज़ान क्यों कहा जाता है? और व्याकरण व उच्चारण की शुद्धता का बहुत ख्याल रखने वाले अरब लोग पारस को फ़ारस क्यों कहने लगे?

Anonymous said...

नुक़्ते समझाने वाले लेख में नुक़्ते की ग़लती? इज़ाजत? सच अचला जी? एक शब्द में दो-दो ग़लतियाँ.

ख़ैर, मुद्दे की बात करें तो मेरे ख़याल से अधिकतर पढ़े-लिखे हिंदीभाषी भी ज/ज़ और फ/फ़ में तो फिर भी अंतर कर लेते हैं पर क/क़, ख/ख़, या ग/ग़ में मुश्किल से कर पाते हैं. इसलिए इस मामले में ज़्यादा ज़ोर-ज़बरदस्ती अच्छी नहीं. जो लगा सकते हैं लगाएँ. पर ग़लत जगह नुक़्ता लगाना ज़्यादा भद्दा लगता है. जैसे अचला जी द्वारा 'इजाज़त' में.

बस मेरी दो कौड़ियाँ.

इरफ़ान said...

विनय जी आप ठीक कहते हैं. मेरा ख़याल है कि अचला ने यह नहीं सोचा होगा कि छपाई के दौरान एक प्रूफ़ रीडर भी होता है और इस सूची को फ़ूलप्रूफ़ बनाने के लिये इजाज़त, इत्तेफ़ाक़,ख़ज़ाना, ख़ौफ़, ख़ूँख़ार, ख़ुफ़िया,ग़िलाफ़, ग़ुलाम, ग़ोताख़ोर, तक़ाज़ा, निजात, फ़लसफ़ा, फ़िज़ूल, फ़ारिग़, फ़र्ज़, मज़ाक़, मुताबिक़ आदि शब्दों को एक बार फिर देख लेना ठीक होता.

उन्मुक्त जी नुक़्ते नहीं लगाते , उनका यह फ़ैसला बिल्कुल ठीक है. अभय जी मुहब्बत और इश्क़ मैं छुप-छुप के लिखता(पढें करता)हूँ.

मसिजीवी said...

लोग मानेंगे या नहीं ये उनपर छोड़ें पर आपके कहने के हक पर कोई महोपाध्‍याय अंगुली उठाए तो हमें मंजूर नहीं। न मानने वालों के न मानने के हक पर भी सवाल नहीं ही लगाया जा सकता...ठीक है कि नहीं।

उर्दू और हिंदी को दो लिपियों में एक भाषा मानने से ये भ्रम पैदा होता है जबकि ये दो लिपियों में दो भाषाए हैं इसलिए जाहिर है कि इनकी ध्‍वनियों में अंतर होगा ही। असान है कि उर्दू लिखें और उसकी लिपि में लिखें तो नुक्‍तों का भले ध्‍यान रखें पर अगर देवनागरी में हिंदी लिख रहे हैं तो इन नुक्तों को वहीं छोड़ आएं।