एक बार एक आदमी जंगल से गुज़र रहा था. रास्ते में उसे बहुत ज़ोर की प्यास लगी. थोडी दूर चलने पर उसे एक कुटिया दिखाई दी. कुटिया के पास पहुँच कर उसने आवाज़ लगाई तो संसार से निर्लिप्त एक साधूबाबा बाहर आए. आदमी ने उनसे पानी माँगा. साधूबाबा ने आदमी से बैठने को कहा और स्वयं भी आसन ग्रहण किया.
अब साधूबाबा आदमी को पानी की उत्पत्ति, उससे जुडी मिथकीय मान्यताओं, पानी के अनुष्ठान, पानी का प्रागैतिहास, आधुनिक पानी की प्रासंगिकता, पानी की प्राचीनता, पानी के बारे में पाणिनि और चरक-सुश्रुत और ओशो के विचार बताते रहे. वे और भी बहुत कुछ बताते रहे लेकिन आदमी ध्यान से सुन नहीं पा रहा था क्योंकि पानी की कमी से उसकी चेतना साथ नहीं दे रही थी. अंत में साधू ने यह कहकर आदमी को पानी देने से इंकार कर दिया कि पानी माँगने से पहले पानी का इतिहास जानना ज़रूरी है.
लता मंगेश्कर एक पुरानी गायिका हैं और उनके गाये गीतों में शब्दों का उच्चारण सटीक होता है. वे किसी मुसलमानी बिंदी को साथ में लेकर पैदा नहीं हुई हैं. वे हिंदी-उर्दू की गंगा पट्टी में भी पैदा नहीं हुईं है. कृपया बताएँ कि वे अपने भाषिक उच्चारण को लेकर इतनी सचेत क्यों रहती हैं? अस्सी के दशक तक लगभग सभी गायक-गायिकाएँ भाषा का सौंदर्य बरक़रार रखते आए हैं और व्यापक लोग उनके उच्चारण से सीखते हैं और बोल भले न पाते हों सही और ग़लत का भेद कर लेते हैं. दिनमान में शमशेर बहादुर सिंह देवनागरी में उर्दू के पाठ क्यों लिखते रहे जिन्हें रघुवीर सहाय धारावाहिक अध्यायों के रूप में लंबे समय तक छापते रहे? क्यों बडे-बडे बाबू साहब लोग एक ज़माने तक अपने दुलरुओं को तवायफ़ों के पास तहज़ीब और तलफ़्फ़ुज़ सीखने के लिये भेजते रहे?
असल में समय गुज़रने के साथ भाषिक सौंदर्य मुसलमानों के साथ जोड दिया गया है जबकि मार खाया और भगाया हुआ मुसलमान भी कैसी भाषा बोल सकता है...यारों को अब नुक़्ते का इस्तेमाल नुक़्तेबाज़ी लगता है और इसी लिये महान सूफ़ी गायक कैलाश खेर का पहला ही हिट गाना टूटा-टूटा एक परिदा ऐसे टूटा कि फ़िर जुड न पाया...एडिटिंग टेबल से फ़ाइनल होकर बाज़ार में पहुँच जाता है. आप जानते हैं कि म्यूज़िक कुक करना एक टाइमटेकिंग प्रॉसेस है और वह किसी एक आदमी की व्हिम पर नहीं चलता. उदाहरण के लिये आप गायत्री मंत्र की सीडी कुक कर रहे हों तो आप संस्कृत की अदायगी ठीक हुई है या नहीं इस पर जानकारों की राय ले लेते हैं. कैलाश खेर या उनके समकालीनों के केस में अब या तो जानकार हैं नहीं या फिर राय लेने ज़रूरत नहीं समझी जाती ...और जिस तरह की दलीलें यहाँ ब्लॉग विमर्श में सुन रहा हूँ उससे तो यही लगता है कि ख़ामियों को छुपाने के सुविधाजनक तर्क गढे जा रहे हैं. बक़ौल अजित "एक हिन्दी चैनल के कर्ता-धर्ता जो अक्सर एंकरिंग करने लगते हैं, बार-बार दोनो हथेलियों को रगड़ते हुए ज़ाहिर को जाहिर है, जाहिर है बोलते चले जाने की वजह से काफी शोहरत पा चुके हैं।" वे ज़ भले ही ज़ाहिर बोलते हुए बोलना न चाहें क्योंकि वह मुसलमानी बिंदी है लेकिन पिज़्ज़ा ज़रूर बोल लेते हैं. कभी आपने किसी ग़ैरनुक़्तेबाज़ को Pijja बोलते हुए सुना है?
14 comments:
आप फिर खफ़ा हो गए.. भाई हम आप की ग़लतियाँ निकालने की शिकायत करने पर चिढ़े हुए नहीं है.. आप के उसे बेशर्मी समझने पर ऐतराज़ कर रहे हैं।
लताजी और शमशेर आदि के जो उदाहरण आप ने दिए, सही हैं। उसका कारण ये है कि लताजी जो गाने गाती थीं उन्हे लिखने वाले लोग उर्दू जानते थे और लता जी का निर्देशन करने वाले नौशाद जैसे लोग भी। मेरे नाना जो उर्दू के शाइर थे क्या ऐसी ग़लतियाँ कर सकते थे? हो सकता था कि मेरे बेगम को बेग़म कहने पर मुझे झापड़ मार देते।
लेकिन दुनिया बदल गई है दोस्त साठ साल में। उर्दू जानने वाली लोग पीढ़ी का सफ़ाया हो गया है इसलिए ग़लतियाँ हो रही हैं।
और ये दूसरा मामला है जब आप ने मुझे साधु बाबा बताया है.. आप को लगता है कि ये उपाधि सही है? ज़रा ठण्डे हो के सोचिये!
और फिर से लिंक नहीं दिया.. भाई ये वेब है.. लिंक से लिंक नहीं मिलाओगे तो जाल नहीं बनेगा।
इरफ़ान जी, अब आप ज़ियादा नुक़्ताबाज़ी करने लगेंगे तो हम एक के साथ एक फ़्री के हिसाब से नुक़्ते का प्रयोग करना चालू कर देंगे...
मुझे इस संबंध में हरिराम जी की बात याद आ रही है - ब्लॉगों में मात्रा हो या बिंदी या नुक्ता - लिखने वालों को बगैर किसी नुक्ता चीनी के लिखने दें और ज्ञानी जन उन्हें अपने हिसाब से ठीक कर पढ़ समझ लें - उसका मर्म ग्रहण कर लें.
कहने का अर्थ ये कि अगर मुझे जरा और ज़रा में फ़र्क़ नहीं मालूम तो मैं जरा लिखूं या ज़रा इससे क्या फ़र्क़ पड़ेगा. परंतु कोई पाठक गुणी है तो वो जरा लिखा हो या ज़रा उसे संदर्भित पाठ के अनुसार ज़रा या जरा या फिर जऱा समझ कर पढ़ ले...
और पिज़्ज़ा बोलने में इसलिए ग़लती नहीं होती क्योंकि आप पिज़्ज़ा को अधिकतर PIZZA लिखा हुआ पढ़ते हैं तो आप अपने उच्चारण के बारे में किसी दुविधा में नहीं होते जबकि ज़ाहिर और जाहिर में क्या सही है इसमें लिपि की सहायता नहीं मिलती। ये बात मैंने अपने लेख में भी लिखी थी.. पर आप ने नहीं समझी शायद।
रविजी, बात ब्लॉग की उतनी नहीं है जितनी तर्क(कुतर्क)की है. अगर नुक़्ते इतने ही फ़ालतू बलाएँ हैं तो यूनिकोड में भी आप लोगों ने इसका प्रावधान क्यों रखा? और अगर हर जुगत करने के बाद भी हमें यूनिकोड नुक़्तों की सुविधा न देता तो हम भी अपना नाम इरफान ही लिख रहे होते.
तो बात ये है रविजी कि आप देख रहे हैं कि लोग "हम तो सैंया से नैना लडइबे हमार कोई का करिहै" कहते हुए ख़िलाफ़त और ख़ुलासा को भी उसी तरह सही ठहरा रहे हैं जैसे सफ़ल और गुफ़ा को ग़लत बताने पर नाराज़ हो जाते हैं.कोशिश कोई नहीं करना चाहता. और रही बात अभय की तो वे बुद्धत्व को प्राप्त हो चुके लगते हैं.
बात नुक्ता या नुक्ताचीनी की नहीं है। अक्षर को उसके मूलस्वरूप में लिखने में हानि क्या है?
प्रत्येक अक्षर के साथ एक वाणी होती है और वाणी अक्षर की जान है। निर्जीव अक्षर अभिव्यक्ति को पूर्णता प्रदान करने में असमर्थ रहते हें। सुविधा भोगी लोग ही नुक्तों को नुक्तचीनी मानते हैं। ऐसे लोग उर्दू को ही नहीं हिन्दी भाषी होने का दम भरने के बावजूद हिन्दी को भी कुरूप बनाने से बाज नहीं आते हैं। ऐसे लोगा ने हिन्दी का चंद्र बिन्दु, 'त' वर्ग से आधा 'न' गायब कर दिया है। उनके लिए दन्त व दंत में कोई फर्क नहीं है। ऐसे लोग भाषा-लिपि का सौंदर्य समाप्त करने में जुट हैं। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि नवभारत समाचार पत्र अंग्रेजी के नुक्तों पर तो ध्यान दे रहा है, किन्तु हिंदी और उर्दू के नुक्तों को फिज़ूल की बात मानता है। लगभग समूचा हिन्दी मीडिया उसका अनुसरण करने में शायद गर्व महसूस कर रहा है। भारतीय भाषाओं को कुरूप बनाने में समाचार जगत अहम् भमिका अदा कर रहा है। यदि शब्दों को वाणी देनी है तो उसके सौंदर्य से खिलवाड़ करना बंद करना होगा। वरन शब्द मूक हो कर रह जाएंगे।
अभयजी की बात सही है कि आज उर्दू नहीं जानने वालों की वजह से ये सब हो रहा है । लेकिन सही बोलने की कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है । लता जी हों या पंकज उधास या फिर हमारे शहर के केमिस्ट्री के शायर प्रोफेसर-- सभी ने कोशिश करके नुक्ते दुरूस्त किये हैं । और हम सब ऐसा कर सकते हैं । ज़रा उन प्रोफेसर का शेर सुनिए-तूफानी शेर है,त्यौरियां चढ़ाने वाला । पर है मौजूं । यानी प्रासंगिक ।
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इस दिल में खुदा भी है और यादे-बुतां भी
जैसे कहीं यकजां हो बादाओ सनम ख़ाना ।
कठिन उर्दू शब्दों के अर्थ--यादे-बुतां--मूर्तियों की याद । यकजां---एक जगह । बादाओ-सनम-ख़ाना । यानी शराबख़ाना और वेश्यालय ।
आप नूक्ते (नुक़्ते) का कह रहें है, कितने लोग "ज्ञ" का सही उच्चारण करते है. हम सब "ग्य" ही तो बोलते है. नुक्ते की परेशानी "मुसलमानी"(?!!!!) होना नहीं है, समय बहुत कुछ बदलता है, भाषा भी.
प्रिय बेंगाणीजी,
कृपया मुझे असहमत होने दें. मैं नुक़्तों की बात करके बदलते हुए समय से मुँह नहीं मोड रहा बल्कि हर तरह के बदलाव का समर्थक होने से ख़ुद को रोक रहा हूँ, आपभी रोकें. वरना बहुत से लोग "है" लिखकर "हैं" पढने का आग्रह करते हैं. यहाँ आप मुझे रँगेहाथों पकड सकते हैं और पूछ सकते हैं कि मैं पढने और मोड में नुक़्ते क्यों नहीं लगा रहा. इसका कारण कीबोर्ड पर मेरी अधूरी पैठ है. रही बात "ज्ञ" की तो मैं इसे "ज्ञ" ही कहता हूँ और आपके नाम के ण में भी कच्चा नहीं हूँ. सबसे बडी बात तो यह है कि मैं ग़लती की तरफ़ इशारा पाकर उसे सुधारने की कोशिश करता हूँ. मुसलमानी को आप कोट करके इसे मेरे द्वारा ईजाद शब्द मान रहे हों तो आपके लिये सूचना ये है कि यह ब्लॉग पर दो दिनों से और कतिपय स्थानों पर कई दिनों से उपयोग में लाया जा रहा है.
bhai,nukte lagane main mujhe bhi pareshani hoti hai,lekin iska matlab yeh nahin ki nukte bekar hain ,yaa unka istemaal galat hai.Aaj har jagah bhasha ko bhrashta kiya jaa raha hai ,kyonki sahi dangh se sikhe bina bhi hamara kaam chal raha hai.Jo sahi hai use sikhna hi chaiye....jaahir hai.Nahi to arth ka anarth hota rahega aur hum samajh bhi nahin payenge.
क्या आप मुझे कोई अच्छी सी पुस्तक बता सकते हैं जो यह बताती हो कि नुक़्ता - मेरा मतलब नुक्ता :-) - कब लगाया जाता है और शब्दों के उच्चारण को वह किस तरह से असर करता है।
उन्मुक्त जी,
जैसे हम अंग्रेज़ी शब्दों की स्पेलिंग्स को लेकर शब्दकोश झाँकते हैं उसी तरह संशय, शौक़ और ज़रूरत होने पर उन शब्दों के लिये शब्दकोश का सहारा लिया जा सकता है जो पहली या दूसरी नज़र में अरबी-फ़ारसी के लगें और जिनमें नुक़्तों के हेर-फेर से अर्थ बदल जाते हों. यूँ तो इस दिशा में कई शब्दकोश उद्धृत किये जा सकते हैं लेकिन मुझे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित उर्दू हिंदी शब्दकोश (संकलनकर्ता मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ाँ मद्दाह) एक हद तक सभी ज़रूरतें पूरी करनेवाला लगता है. अगर अलग से नुक़्तेदार शब्दों की कोई ऐसी सूची बनाने का उपक्रम करे तो वह अनेक शिक्षार्थियों के लिये काम की होगी. अरविंद-कुसुम शायद इस काम का महत्व समझते हुए कोई पहल करें. फ़िराक़ साहब ने ऐसे कोई तीन हज़ार शब्दों की सूची शायद बनाई भी थी जो सिर्फ़ नुक़्ते नहीं बल्कि अरबी-फ़ारसी और तुर्की ज़बानों से आकर हिंदी के ख़ज़ाने में शामिल हो गये.इनमें मेज़, रोटी, हवा, नमक, खाना, इनाम आदि हैं.
मुझे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित उर्दू हिंदी शब्दकोश (संकलनकर्ता मोहम्मद मुस्तफ़ा ख़ाँ मद्दाह) एक हद तक सभी ज़रूरतें पूरी करनेवाला लगता है.
इरफ़ान जी, कृपया इसके मार्केटिंग एजेंट या जहाँ से यह शब्दकोश डाक द्वारा प्राप्त की जा सके उसका पता दे सकें तो अच्छा होगा. दूर दराज जैसे कि रतलाम में यह किताब नहीं मिल रही. प्रकाशक का भी पूरा पता दे दें तो उनसे भी यह किताब प्राप्त करने के लिए पत्राचार करते हैं.
रवि जी,
दिल्ली में हिंदी बुक सेंटर, आसफ़ अली रोड, दरियागंज, दिल्ली (पूरा पता) हिंदी किताबों का सबसे बडा अड्डा माना जाता है. यहाँ से यह किताब मँगाई जा सकती है. विश्व पुस्तक मेले में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का स्टॉल हर बार दिल्ली आता है, अगर आपके कोई मित्र मेला देखने यहाँ आ रहे हों तो उनका सहयोग ले सकते हैं वरना मैं तो हूँ ही.
मैं पढने और मोड में नुक़्ते क्यों नहीं लगा रहा. इसका कारण कीबोर्ड पर मेरी अधूरी पैठ है.
पढ़ने और मोड़ की बिंदी के लिए उसी कीबोर्ड कुंजी का इस्तेमाल करें जो आप नुक़्ते के नुक़्ते के लिए कर रहे हैं.
इस पूरी बहस में इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि भाषा अक्सर अपनी ध्वन्यात्मक प्रकृति के हिसाब से उधार लिए शब्दों के उच्चारण में फेर कर देती है. जैसे 'साधु' को ही लें. संस्कृत का 'साधु' हिंदी में 'साधू' भी बोला जाता है. अब अगर कोई ये कहे कि 'साधु' ग़लत है तब तो बेवकूफ़ी समझ में आती है, पर आप 'साधू' लिखें तो भी तो चलता है (क्योंकि उच्चारण आधारित रूप है और शब्दकोशों में मान्य भी). भले ही मेरे जैसे लोग जो केवल 'साधु' देखते बड़े हुए हैं उनकी आँखों में एकबारगी 'साधू' खटकता है. आपने 'पिज़्ज़ा' का उदाहरण दिया. 'पिज़्ज़ा' का भी मूल उच्चारण तो 'पीत्ज़ा' जैसा कुछ है. यानि यहाँ पहले ही अपनी ज़बान/लिपि के हिसाब से बदलाव हो चुका है. कहने का सार ये कि आयातित शब्दों के एकाधिक संस्करणों (स्पेलिंग और उच्चारण दोनों में) का चलन में होना हिंदी के लिए अजनबी नहीं है (हॉस्पिटल/अस्पताल, अल्मीरा/अल्मारी, ज़रूर/जरूर). इसलिए मेरे विचार से यदि किसी शब्दरूप की सामान्य शिक्षित वर्ग (विशेषकर लेखकों और वैयाकरणों में) में स्वीकार्यता हो, उसका प्रयोग अनुचित नहीं है.
(कुछ टाइपोज़ जो शायद आप दुरुस्त करना चाहें -
दोनो - दोनों, हुईं है - हुई हैं)
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