बोलिये तो तब जब बोलिबै की जानि परै,
नहिं तो मौन गहि चुप ह्वै रहिये.
पोस्ट भले ही वैसी गूढ हो जैसी मार्तिनोव ने प्लेखानोव को सरल बनाने में बना दी थी लेकिन टिप्पणी यहाँ पेश की जाती है-
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फिर से जुड़ना एक ख्वाहिश है फकत,
जिससे कि हर बार अपना होना होता है।
बकौल शमशेर (मोर ऑर लेस)-
लौट आ ओ धार
टूट मत ओ दर्द के पत्थर-
हृदय पर
लौट आ ओ फूल की पंखुड़ी
फिर फूल से लग जा...
(-चंद्रभूषण की टिप्पणी)
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