दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Friday, November 30, 2007

त्रिलोचनजी से विचारोत्तेजक बातों का दूसरा हिस्सा


वरिष्ठ कवि त्रिलोचन से बातचीत का शुरुआती हिस्सा आप यहां सुन चुके हैं. अब सुनिये इस बातचीत का दूसरा हिस्सा. साउंड में क्लैरिटी का अभाव है, इसके लिये हमें खेद है.

Dur. 29Min 03Sec

Thursday, November 29, 2007

सुनिये त्रिलोचन जी की आवाज़ में विचारोत्तेजक बातें


त्रिलोचन जी से मुलाक़ात का सचित्र विवरण और उनकी कुछ रचनाएँ आप पहले भी यहां पढ चुके हैं.
लीजिये सुनिये कोई बारह साल पुरानी रिकॉर्डिंग का एक हिस्सा. बातचीत कर रहे हैं समकालीन जनमत के संपादक रामजी राय और बीच में एक आध सवाल चन्द्रभूषण के हैं. यह जमावडा जनमत के बी-30, शकरपुर वाले ऑफ़िस में रोज़ कुछ नये गुल खिलाता था.
रिकॉर्डिंग की दयनीय अवस्था हमारी मुफ़लिसी और शानदार फ़क़ीरी का दस्तावेज़ है. सुनते समय क्लैरिटी का अभाव महसूस हो तो बूढ-पुरनियों की बात का स्मरण कीजियेगा कि 'घी का लड्डू टेढै भला.'

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इस पॉडकास्ट को जो नहीं सुनेगा उसे सपने में तीन मुंह वाला राक्षस दिखाई देगा और जो इसे सुनते हुए क्वालिटी पर सिर धुनेगा उसके सीने पर साँप लोटेगा.
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Dur. 29Min 43Sec

Tuesday, November 27, 2007

लाहौर का जुग़राफ़िया: सुनिये ज़िया मोहिउद्दीन की आवाज़ में पतरस बुख़ारी की व्यंग्य रचना

फ़ैज़ की नज्में, ज़िया मोहिउद्दीन की आवाज़ में, मिलेगी क्या? एक थोड़ा सा हिस्सा नज़र आया था कलामे फैज़ नाम के ब्लॉग में। उसके अलावा एक ऑडियो टेप हुआ करता था कभी घर पर। शायद अभी भी है कहीं। अनुराधाजी उसे डिजिटलाइज कराना चाहती हैं। लेकिन तब तक के लिए, अगर किसी दोस्त के पास इंटरनेट का कोई लिंक हो, तो कृपया बताएं।
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सुबह रिजेक्ट माल ने जब यह पोस्ट जारी की तो यक़ीन हुआ कि अब बोले हुए शब्दों का बाज़ार गरमाता जा रहा है. हिंदी में यह चलन और संपदा अभी शैशवकाल में भी नहीं है और क्यों नहीं है यह विचारणीय मुद्दा है.हमारे पास नसीरुद्दीन शाह और अमिताभ बच्चन जैसे समर्थ स्वर हैं और विपुल साहित्य. अकादमियां और ग़ैर सरकारी उपक्रम हैं, जो परंपरा और संस्कृति की दुहाई देते नहीं अघाते. पाकिस्तान एक 'तानाशाह' और 'दक़ियानूस' देश है, यह बात आते ही सभी एकमत में हुंकारी भरते हैं. पाकिस्तान का इतिहास है ही कितना पुराना? उनकी कोई सभ्यता है,कोई संस्कृति है? हम तो पांच हज़ार साल पुरानी जातीय स्मृतियों के देश में रहते हैं, हमारी वाचिक परंपरा कितनी महान रही है...आदि बातें क्या हम पहली बार सुनते हैं?
आश्चर्य, कि इसी कंबख़्त पाकिस्तान में ये ज़िया मोहिउद्दीन साहब बरसों से साहित्य-वाचन में लगे हैं और जंगल में नाचने वाले उस मोर का दर्जा नहीं रखते जिसे किसी ने न देखा. पाकिस्तान सहित दुनिया के अनेक देशों में अपनी इस कला का प्रदर्शन करते हुए वे हमारे साहित्य के अनमोल मोती लोगों तक पहुंचाते हैं. ये मोती इतने बिखरते हैं कि हम-आप तक भी पहुंच जाते हैं. ज़िया मोहिउद्दीन की कुछ प्रस्तुतियां मैंने पहले भी यहां और कलामे फ़ैज़ पर जारी की हैं और आगे भी जारी करूंगा. मैं आपसे यह भी अर्ज़ कर चुका हूं कि मेरी संस्था रेडियो रेड अलबत्ता तमाम अड़चनों के बावजूद बज़िद है कि इस विधा के साथ सुनने वालों का याराना बढ़ाया जाए. तो आज इस क्रम में पेश है पतरस बुख़ारी की एक व्यंग्य रचना लाहौर का जुगराफ़िया
आप जानते हैं कि पतरस बुख़ारी नाम से मशहूर ए.एस.बुख़ारी ऒल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर जनरल और प्रख्यात लेखक थे.

Sunday, November 25, 2007

अविनाश जी ने ग़ज़ल क्यों छेड़ी ? सुनिये तो सही



परत-दर-परत रात खुल रही है

एक तारा कुछ तारों से
आंख मिचोली खेल रहा है
चिडिया का एक बच्चा
घोंसले में चोंच मार रहा है
दरख़्त का एक पत्ता
हवा से ठिठोली कर रहा है
एक चूहा रोशनी के क़तरे कुतर रहा है
झील में एक लहर किनारा छू रही है
आसमान से उतरती हुई ठंडक
शबनम का रूप ले रही है
परत-दर-परत रात खुल रही है

एक हर्फ़ दूसरे हर्फ़ की बांह पकड़ रहा है
एक लम्हा दूसरे में घुल रहा है
एक ख़याल जुंबिश ले रहा है
एक ख़्वाब कपड़े पहन रहा है
एक आवाज़ लफ़्ज़ बन रही है
एक धड़कन नग़मा बुन रही है

परत-दर-परत रात खुल रही है.


मेंहदी हसन ..........Dur.5Min.13Sec.

Monday, November 19, 2007

मेहनाज़ अनवर से इरफ़ान की बातचीत

मेहनाज़ अनवर का नाम न सिर्फ़ पुरानी स्टाइल के रेडियो से जुड़ा हुआ है बल्कि वो FM सुननेवालों के लिये भी बेहद जाना-पहचाना नाम हैं. एफ़एम ब्रॊडकास्टिंग की जब शुरुआत हुई तो ग़ज़लों के प्रोग्राम आदाब और आदाब अर्ज़ है से उन्होंने नये सुनने वालों से एक बेहद अपनापे का रिश्ता बनाया, लोगों में ज़बान का शऊर पैदा किया और एक नये अन्दाज़-ए-बयां को मक़बूल बनाया. सुननेवालों से जज़्बाती रिश्ता बनाना कोई उनसे सीखे.वो जितनी दिलकश आवाज़ की धनी हैं उतनी ही खूबसूरत शख्सियत भी हैं.
आइये सुनतें हैं उन्ही की आवाज़ मे कुछ गुज़री बातें.पहला हिस्सा.
यह कहते हुए मैंने रेडियोनामा पर 28सितंबर 2007 को मेहनाज़ आपा के इंटरव्यू का एक शुरुआती हिस्सा जारी किया था. आज, जब कि रेडियो की वापसी की बातें बडे ज़ोर-ओ-शोर की जा रही हैं ; ये लाज़िमी हो जाता है कि रेडियो प्रोफ़ेशन पर एक मुकम्मल नज़र डाली जाए. बग़ैर इसके यह वापसी एक बेसिर पैर की क़वायद ही साबित होगी. कोई तीस बरस से रेडियो बिज़नेस में रही आई मेहनाज़ ने बहुत कुछ पुराने ब्रॉडकास्टर्स से सीखा और इस बीच रेडियो ब्रॉडकास्टिंग को मुतास्सिर किया है. लखनऊ की रहने वाली मेहनाज़ ने जेएनयू से बाद की पढाई की. उनकी दो बेटियां आज ख़ुद देश और विदेश के एफ़एम रेडियो पर लोकप्रिय प्रोग्राम पेश करती हैं.
तो पेश है वह पूरा और अनएडिटेड इंटरव्यू. सुनिये कि मेहनाज़ साहेबा के रेडियाई सफर में क्या-क्या मरहले आये और क्या उनके observations हैं.


मेहनाज़ अनवर के घर पर 26 फ़रवरी 2005 को रिकॉर्ड किया गया.
Dur. 50Min 54Sec
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यह पोस्ट कबाड़ख़ाना पर भी अशोक की इच्छा से दिखाई गई है. कुछ टिप्पणियो‍ के लिये यहां भी देख सकते है‍.
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ऑल इंडिया रेडियो: कुछ भूले बिसरे चित्र


इक़बाल वारसी और अज़रा क़ुरेशी


मुजीब सिद्दीक़ी (बीच में), स्टूडियो से बाहर आते हुए



प्रसारण के क्षण


पुरानी मशीनों पर रिकॉर्डिंग


उर्दू के प्रख्यात व्यंग्यकार मुज्तबा हुसैन


मुजीब सिद्दीक़ी (बाएं) प्रसारण के बीच


मरियम क़ाज़मी (बाएं)


जावेद अख़्तर


बाएं से, मुजीब सिद्दीक़ी, आई.के.गुजराल, रेवती सरन शर्मा और अन्य


बशीर बद्र


अमृता प्रीतम के साथ ऑल इंडिया रेडियो का स्टाफ़

Sunday, November 18, 2007

रेडियो रेड और ज़िया मोहेद्दीन की रोशनी


ज़िया मोहीउद्दीन पाकिस्तान के मशहूर ऐक्टर और राइटर हैं.बुक रीडिंग की कला में वे इस उपमहाद्वीप में अद्वितीय हैं. उनकी दिल्ली यात्राओं के दौरान उनसे ग़ालिब के ख़ुतूत सुनकर यह भ्रम होता है कि ख़त ग़ालिब ही पढ रहे हैं.पाकिस्तान में तो उनकी यह कला बहुत प्रचलित है ही दुनिया भर में अपने इस हुनर का प्रदर्शन करते हुए वो एक जुनून से काम लेते हैं. हमारे लिये उनकी दिखाई रोशनी बडे हौसले बढानेवाली है. शेक्सपियर को उनसे सुनना एक अनुभव है.
आप भी सुनिये शेक्सपियर और मैं


Dur.8Min 22Sec

Friday, November 16, 2007

रेडियो रेड और ऑडियो बुक्स: सुनिये गोरख पांडेय की कविता ''बंद खिड़कियों से टकराकर"


सुनिये गोरखजी की यह कविता. इसे मार्च 2007 में जारी आएंगे अच्छे दिन नाम की ऒडियो बुक से उनकी 16 अन्य कविताओं के साथ सुना जा सकता है. प्राप्त करने के लिये नीचे कमेंट बॊक्स में लिखें या- gorakhpurkafilmfestival@gmail.com पर ईमेल करें. फ़ोन करना चाहें तो करें संजय जोशी को- 09811577426 पर. इस सीडी से एक कविता यहां पहले भी सुनाई जा चुकी है. इसमें गोरखजी की बोलती और महेश्वरजी की गाती आवाज़ें भी सुनी जा सकती हैं.



बंद खिड़कियों से टकराकर

------------------------------------पूनम श्रीवास्तव----Dur.2min43sec

Wednesday, November 14, 2007

रेडियो रेड और क़िस्सागोई: सुनिये इब्ने इंशा की 'उर्दू की आख़िरी किताब' से कुछ हिस्से...


इब्ने इंशा १९२७ में पंजाब के लुधियाना में पैदा हुए थे. शुरुआती पढ़ाई भी उन्होंने यहीं से की लेकिन जब पाकिस्तान बंटा तो वो उधर चले गये और फिर उधर ही रहे.
मां बाप ने उन्हें शेर मोहम्मद ख़ां नाम दिया था लेकिन वो जाने गये इब्ने इंशा के नाम से.
उर्दू के मशहूर शायर और व्यंग्यकार.
लहजे में मीर की ख़स्तगी और नज़ीर की फ़क़ीरी पाई जाती थी. हिंदी और उर्दू पर उनको बराबर की महारत हासिल थी. ज़बान की इसी खासियत के बल पर उन्हें ऒल इंडिया रेडियो में काम मिला था. बाद में वो क़ौमी किताबघर के डायरेक्टर रहे फिर पाकिस्तानी दूतावास में सांस्कृतिक मंत्री रहे और पाकिस्तान में यूनेस्को के प्रतिनिधि रहे.
११ जनवरी १९७८ को वो लंदन में कैंसर से मरे.
चांदनगर, इस बस्ती के इक कूचे में, आवारागर्द की डायरी, बिल्लू का बस्ता, दिल-ए-वहशी, चलते हो तो चीन को चलिये, नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर, ख़ुमार-ए-गंदुम,यह बच्चा किसका बच्चा है और उर्दू की आख़िरी किताब उनकी हरदिल अज़ीज़ किताबें हैं.
आइये आपको सुनाते हैं- उर्दू की आख़िरी किताब से कुछ हिस्से.



इत्तेफ़ाक़ में बरकत है
-----------------------------------------------------------------------मुनीश

चिड़ा और चिड़िया
-----------------------------------------------------------------------मुनीश

कछुआ और ख़रगोश
-----------------------------------------------------------------------मुनीश

प्यासा कौआ

-----------------------------------------------------------------------मुनीश

भैंस
----------------------------------------------------------------------इरफ़ान

बकरी
----------------------------------------------------------------------इरफ़ान

ऊंट
----------------------------------------------------------------------इरफ़ान

आदमी
----------------------------------------------------------------------इरफ़ान

इल्म बड़ी दौलत है
----------------------------------------------------------------------इरफ़ान

अख़बार
----------------------------------------------------------------------इरफ़ान

कपड़ेवाले के यहां
----------------------------------------------------------------------इरफ़ान

जूतेवाले के यहां
param>----------------------------------------------------------------------इरफ़ान

खाने की चीज़ें
param>----------------------------------------------------------------------इरफ़ान

मक्खन

----------------------------------------------------------------------इरफ़ान

मनु राजीव का पहला अल्बम आलिया

मनु राजीव से मेरी पहली मुलाक़ात कालकाजी के एक साउंड स्टूडियो में हुई थी. तभी उसने अपना करियर बतौर साउंड इंजीनियर शुरू किया था. वह तब एक शर्मीला लडका था और साउंड की तकनीकी बारीकियों को समझने के लिये ज़रूरी किताबें कंसल्ट किया करता था. कान उसके हमेशा से ही सजग थे, ये बात मैंने तब जानी जब वो पंचशील स्थित यूटीवी के साउंड स्टूडियो आया. पहले जब मैं डिसकवरी चैनल के प्रोग्राम डब किया करता था तब से लेकर अब तक जबकि नेशनल ज्योग्राफिक, हिस्ट्री चैनल, बिंदास और हंगामा चैनल के प्रोग्राम्स की डबिंग में मैं माइक्रोफोन पर बैठा हूँ और मनु पैनल पर, हमारे बीच अपनापा बढता गया है. मनु को संगीत अपने परिवार से मिला है. वह दक्षिण भारतीय 22 वर्षीय युवक है और अब वह सिर्फ साउंड इंजीनियर या रिकॉर्डिस्ट नहीं, बल्कि ख़ुद अच्छा कम्पोज़र और गायक है. उसका नया अलबम आलिया बनकर तैयार है. इसके वीडियो में हमारे साथी नीरज यादव अपनी अदाओं के साथ मौजूद हैं. कैसा है यह संगीत आप खुद ही यह बानगी सुनकर अंदाज़ा लगाइये.
मैं मनु को एक लंबी पारी खेलने की शुभकामनाएं देता हूँ.

Thursday, November 8, 2007

रेडियो रेड और क़िस्सागोई: सआदत हसन मंटो का अफ़साना नंगी आवाजें


मंटो की कहानियाँ मेहनतकश जनता के मनोजगत का दस्तावेज़ भी हैं. सुनिये नंगी आवाज़ें और महसूस कीजिये उस मानवीय करुणा का ताप, जिसे बाहर रहकर पेश कर पाना बडे जिगरे का काम है.

शुरुआत में आवाज़ें अरशद इक़बाल और मुनीश की हैं.

क़िस्सागो: इरफ़ान

Duration: 20 Min.



Wednesday, November 7, 2007

रेडियो रेड और क़िस्सागोई: सआदत हसन मंटो का अफ़साना बू


सआदत हसन मंटो किसी परिचय के मोहताज नहीं है.
उन्हीं के शब्दों में-
'ज़माने के जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे नावाक़िफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िये. अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब ये है कि ये ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है. मुझमें जो बुराइयां हैं वो इस अहद की बुराइयां हैं.मेरी तहरीर में कोई नुक़्स नहीं है.जिस नुक़्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअस्ल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है--मैं हंगामापसंद नहीं. मैं लोगों के ख़याल-ओ-जज़्बात में हेजान पैदा करना नहीं चाहता.मैं तहज़ीबो तमद्दुन की और सोसायटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े की पहनाने की कोशिश भी नहीं करता क्योंकि यह मेरा काम नहीं...लोग मुे सियाह क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख़्ता-ए-स्याह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूं कि तख्ता-ए-स्याह की सियाही और ज़्यादा नुमाया हो जाए. ये मेरा ख़ास अंदाज़, मेरा ख़ास तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक़्क़ीपसंदी और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है--लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कंबख़्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती.'
लीजिये सुनिये मंटो की लिखी ये कहानी--बू.
शुरू में आवाज़ें अरशद इक़बाल और इरफ़ान की हैं. क़िस्सागो हैं मुनीश.

Dur. 15 min approx.


Friday, November 2, 2007

रेडियो रेड और क़िस्सागोई: उदय प्रकाश की कहानी दरियाई घोड़ा

हमारे यहां क़िस्सागोई की पुरानी परंपरा है. पिछले कई बरसों से योरप और अमेरिका के क़िस्सागो दिल्ली आ रहे हैं और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, इंडिया हैबिटैट सेंटर और ब्रिटिश लायब्रेरी जैसे सुरुचिपूर्ण अड्डों पर कथावाचन करके हमारे मुंह आईनों की तरफ़ घुमा रहे हैं. दो-एक दिन इन हलचलों का असर अख़बारों के पेज थ्री पर रहता है और तस्वीरें छपती हैं फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है. वो लोग तो यहां तक कह कर चले जाते हैं कि आपके यहां कथावाचन मर रहा है, यह सुनकर हमारे लोग कभी नॊस्टैल्जिया तो कभी सेंस ऒफ़ प्राइड से भर जाते हैं. जिस एक चीज़ की कमी रह जाती है, वो है शर्म. इसी शर्म से उन्हें बचाने के लिये मेरी संस्था रेडियो रेड वाचिक परंपरा को बचाने और पुनर्जीवित करने में लगी है. पिछले दस वर्षों से जारी हमारी कोशिशों में हिंदी की संस्थाओं और संस्कृति संरक्षण के पैरोकारों ने झूठी तसल्ली भी नहीं जोड़ी है. इस वाचिक परंपरा की याद जब विदेश में सक्रिय storytellers करते हैं तो ये संस्थाएं या संबंधित लोग तसल्ली से भर जाते हैं कि देखो जो आज पश्चिमी देशों में हो रहा है उसे हम पांच हज़ार साल पहले कर चुके हैं. और हमें इस तसल्ली में सुनाई देता है कि विमान का आविष्कार भले ही हाल के बरसों में हुआ हो हम तो पांच हज़ार साल पहले से पुष्पक विमान उड़ाते आ रहे हैं. हमारे मंत्रों से बारिश और आग संभव है. बहरहाल, हमें तो इस तसल्ली से कुछ ज़्यादा चाहिये. सैकड़ों मह्त्वपूर्ण किताबें आज not to issue का बिल्ला लगाए पुस्तकालयों में पड़ी हैं या फिर दीमकों का शिकार हो रही हैं, तमाम दिलचस्प कहानियां, कविताएं, नज़्में, ग़ज़लें, डायरियां, संस्मरण, व्यंग्य, यात्रा-वृत्तांत, रेखाचित्र, रहस्य रोमांच की कहानियां और प्रेरणाप्रद प्रसंग- आत्मकथाएं...आदि सुनाए जाने की राह देख रही हैं. विश्व-प्रसिद्ध पुस्तकालयों ने हमारी तमाम भारतीय भाषाओं की किताबों की माइक्रोफ़िल्मिंग करा ली है और उनके डिजिटल संस्करण करके सुरक्षित कर लिया है. वो दिन दूर नहीं है कि यह सब कुछ वे हमें शॊपिंग मॊल्स में थोड़े वैल्यू एडीशन के साथ बेचने लगेंगे. छपी हुई किताब को सुनी जा सकने वाली किताब बना देना भी वैल्यू एडीशन का एक रूप होता है, ये तो आप जानते ही हैं. तो भाइयो, एक जुनून है जिसमें हम क़िस्सागोई, कथावाचन, वाचन या Storytelling कर रहे हैं चार लोगों की एक छोटी सी टीम में आज डेढ़ दर्जन वाचक ,Narrators, Voice Over Artistes हैं और जो परंपरा संरक्षकों का तमग़ा हासिल करने की इच्छा से ऊपर ही रखते हैं अपनी मौज और इस काम से मिलने वाले सुख को. इस मुहिम में आप हमारे आदि सहयोगी हैं और नहीं लगता कि जल्दी हमारे हौसले पस्त पड़ेंगे. तो पेश है वाचिक परंपरा को पुनर्जीवित करने के प्रयासों से एक बानगी. उदय प्रकाश उन कथाकारों में से हैं जिनकी कहानियां अपने कथ्य और बनावट के अलावा तर्ज़े बयां के लिये भी याद की जाती हैं. उनकी अनेक कहानियां सुनाते हुए मुझे कभी नहीं लगा कि रवानी में कोई रुकावट आ रही है, आपको भी लगा होगा . दूसरे की भाषा आपकी ज़बान पर जब चढ़ती है तो मीर याद आते हैं. इस पेशकश के शुरू में अरशद इक़बाल और अपर्णा घोषाल की आवाज़ें हैं. Duration: 46min 46sec क़िस्सागो: मुनीश