आज सुबह सीपीआईएमएल के महासचिव कॉमरेड दीपंकर भट्टाचार्य और साथियों के साथ हम त्रिलोचन से मिलने पहुंचे. वे इन दिनों वैशाली,ग़ाज़ियाबाद (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र,दिल्ली)में अपने बेटे के साथ रहते हैं.अभी कुछ दिनों पहले से ही यहां के एक स्थानीय यशोदा अस्पताल में इलाज कराते हुए वे अपने बेटे के साथ रह रहे हैं.स्मृति कुछ कम ही साथ दे रही है और दवाओं के असर में उनके हाथ और पैर सूजन से घिरे हैं लेकिन शब्द-चर्चा के दौरान उनके चेहरे पर अब भी वही उत्साह देखा जा सकता है. बनारस का ज़िक्र बार-बार आ जाता है और बनारस पहुंचने को उनका मन हुलसता है.नागार्जुन को याद करते हुए उन्होंने याद किया कि नागार्जुन को ज़िंदगी के आख़िरी बरसों में मछली खाने का जुनून सा था. यह भी कि नागार्जुन को जितनी मछलियों के नाम मालूम थे उतने शायद ही किसी को मालूम होंगे.
त्रिलोचन थके और बीमार तो थे लेकिन हमारी उपस्थिति के दौरान उन्होंने लेटना गवारा नहीं किया. उनके बेटे अमित का मानना था कि हमारे पहुंचने और हमारी बातों ने उन्हें थोड़ी ताज़गी दे दी है.यहां जो तस्वीरें हैं वो उनकी पोती पंखुड़ी की खींची हुई हैं.
बाएं से अज़दक, इरफ़ान, कॉ.दीपंकर भट्टाचार्य ,कवि त्रिलोचन,रामजी राय, सुवाचन यादव और प्रभात जी
बाएं से सत्या भाई, इरफ़ान, कॉ.दीपंकर भट्टाचार्य और कवि त्रिलोचन
पृष्ठभूमि में कॉ.दीपंकर,इरफ़ान,अज़दक और सामने की तरफ़ त्रिलोचन जी और इंडिया टुडे की कला संपादक सुवाचन यादव
बाएं से कॉ.दीपंकर भट्टाचार्य, त्रिलोचनजी और रामजी राय
बाएं से इरफ़ान, कॉ.दीपंकर भट्टाचार्य और कवि त्रिलोचन
त्रिलोचन
प्रियंकर के ब्लॉग से साभार
आज की हिंदी के शिखर कवि त्रिलोचन का जन्म 20 अगस्त 1917 को चिरानीपट्टी, कटघरापट्टी, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। अंग्रेजी में एम.ए.पूर्वार्ध तक की पढ़ाई बीएचयू से । इनकी दर्जनों कृतियाँ प्रकाशित हैं जिनमें धरती(1945), गुलाब और बुलबुल(1956), दिगंत(1957), ताप के ताए हुए दिन(1980), शव्द(1980), उस जनपद का कवि हूँ (1981) अरधान (1984), तुम्हें सौंपता हूँ( 1985) काफी महत्व रखती हैं। इनका अमोला नाम का एक और महत्वपूर्ण संग्रह है। त्रिलोचन की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह राजकमल प्रकाशन से छप चुका है। वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह के शव्दों में “उनका जितना प्रकाशित है उतना या कदाचित उससे अधिक ही अप्रकाशित है”।हिंदी में सॉनेट जैसी काव्य विधा को स्थापित करने का श्रेय मात्र त्रिलोचन को ही जाता है। आप त्रिलोचन को आत्मपरकता कवि भी मान सकते हैं। ‘भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल’ जैसी आत्मपरक पंक्तियाँ त्रिलोचन ही लिख सकते हैं। परंतु ऐसा नहीं है कि त्रिलोचन का काव्य संसार केवल आत्मपरकता तक ही सीमित है। शब्दों का सजग प्रयोग त्रिलोचन की भाषा का प्राण है ।
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त्रिलोचन जी की कुछ कविताएं
अस्वस्थ होने पर
मित्रों से बात करना अच्छा है
और यदि मुँह से बात ही न निकले तो
उतनी देर साथ रहना अच्छा है
जितनी देर मित्रों को
यह चुप्पी न खले।
बिस्तरा है न चारपाई है
बिस्तरा है न चारपाई है
जिन्दगी खूब हमने पाई है ।
अँधेरे में जिसने सर काटा
नाम मत लो हमारा भाई है ।
ठोकरें दर -ब -दर की थीं हम थे ,
कम नहीं हमने मुँह की खाई है ।
कब तलक तीर वे नही छूते ,
अब इसी बात पर लडाई है ।
आदमी जी रहा है मरने को
सबसे ऊपर यहीं सचाई है ।
कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम
धुन कहां वह संभल के आई है ।
कोइलिया न बोली
मंजर गए आम
कोइलिया न बोली
बाटो के अपने
हाथ उठाये
धरती
वसंती -सखी को बुलाये
पडे हैं सब काम
कोइलिया न बोली
पाकर नीम ने
पात गिराए
बात अपत की
हवा फैलाये
कहां गए श्याम
कोइलिया न बोली ।
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हमारा देश तुम्हारा देश से साभार
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त्रिलोचन के कुछ सॉनेट
जनपद का कवि
उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,नंगा है,
अनजान है, कला–नहीं जानता कैसी होती है क्या है,
वह नहीं मानता कविता कुछ भी दे सकती है।
कब सूखा है उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता सकता है।
वह उदासीन बिलकुल अपने से,अपने समाज से है;
दुनिया को सपने सेअलग नहीं मानता,
उसे कुछ भी नहीं पता दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची;
अब समाज में वे विचार रह गये नही हैं
जिन को ढोता चला जा रहा है वह,
अपने आँसू बोता विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण सुन पढ़ कर,
जपता है नारायण नारायण।
भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझे था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी नहीं;
झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को ।
जाकर पूछा ‘भिक्षा से क्या मिलता है। ‘जीवन।’
‘क्या इसको अच्छा आप समझते हैं ।’
‘दुनिया में जिसको अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं,
छूछा पेट काम तो नहीं करेगा ।’
'मुझे आप से ऎसी आशा न थी ।’
‘आप ही कहें, क्या करूं, खाली पेट भरूं,
कुछ काम करूं कि चुप मरूं, क्या अच्छा है ।’ जीवन जीवन है प्रताप से, स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था, यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।
कुछ अन्य कवितायें
आत्मालोचन
शब्द मालूम है व्यर्थ नहीं जाते हैं
पहले मैं सोचता था उत्तर यदि नहीं मिले
तो फिर क्या लिखा जाए
किन्तु मेरे अन्तर निवासी ने मुझसे कहा- लिखा कर
तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने कभी तुझे
एक साथ सत्य शिव सुन्दर को दिखा जाए
अब मैं लिखा करता हूँ अपने अन्तर की अनुभूति
बिना रँगे चुने कागज पर बस उतार देता हूँ ।
आछी के फूल
मग्घू चुपचाप सगरा के तीर बैठा था
बैलों की सानी-पानी कर चुका था
मैंने, बैठा देखकर पूछा,बैठे हो, काम कौन करेगा.
मग्घू ने कहा, काम कर चुका हूं नहीं तो यहां बैठता कैसे,
मग्घू ने मुझसे कहा,लंबी लंबी सांस लो,
सांस ले ले कर मैंने कहा,सांस भी ले ली,बात क्या है,
आछी में फूल आ रहे हैं,मग्घू ने कहा,
अब ध्यान दो,सांस लो,कैसी महक है.
मग्घू से मैंने कहा,बड़ी प्यारी मंहक है
मग्घू ने पूछा ,पेड़ मैं दिखा दूंगा,
फूल भी दिखा दूंगा.आछी के पेड़ पर जच्छ रहा करते हैं
जो इसके पास रात होने पर जाता है,
उसको लग जाते हैं,सताते हैं,वह किसी काम का नहीं रहता.
इसीलिये इससे बचने के लिये हम लोग इससे दूर दूर रहते हैं
पीपल
मिट्टी की ओदाई ने पीपल के पात की
हरीतिमा को पूरी तरह से सोख लिया था
मूल रूप में नकशापात का,बाकी था,
छोटी बड़ी नसें,वृंत्त की पकड़ लगाव दिखा रही थी
पात का मानचित्र फैला था
दाईं तर्जनी के नखपृष्ठ की चोट दे दे कर
मैंने पात को परिमार्जित कर दिया
पीपल के पात में आदिम रूप अब न था
मूल रूप रक्षित था मूल को विकास देनेवाले हाथ
आंखों से ओझल थे पात का कंकाल भई मनोरम था,
उसका फैलाव क्रीड़ा-स्थल था समीरण का
जो मंदगामी था पात के प्रसार को कोमल कोमल परस से छूता हुआ.
काकेश के ब्लॉग से साभार
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चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती
चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से
कैसे ये सब स्वर निकला करते हैं.
चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गाय भैसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है
चम्पा अच्छी है चंचल है
न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ - अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ
चम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चम्पा चुप हो जाती है
उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ूंगी तुम तो कहते थे
गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूंगी
मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!
चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो ,
देखा ,हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूंगी
कलकत्ता पर बजर गिरे।
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काकेश के ब्लॉग से साभार
धरती से 1945
12 comments:
oh....shukriya iske liye...
बहुत अच्छा लगा ये तस्वीरें देखकर। त्रिलोचन जी के स्वास्थय के लिये दुआ करता हूं।
अच्छी तसवीरें.
यूं लगा इरफान भाई कि हम सब भी पहुंचे थे उस सुबह आपके साथ. बस, तस्वीर में नहीं आ पाये लेकिन हम सब की शुभकामना तो आप ले ही गये थे न
बधाई
त्रिलोचन जी ख़बर सुनकर मन उदास तो जरूर हुआ पर उनकी तस्वीरें देखकर खुशी हुई. भगवन से उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना करता हूँ.
अच्छा किया भाई
इन छवियों को दोख कर मन खुश हुआ...
बधाई
कवितायें अच्छी लगीं , तस्वीर भी ।
इरफ़ान भाई । दिल खुश कर दिया । सन 1999-2000 में सागर यूनिवर्सिटी में एक कोर्स करने गया था मुंबई से । तब हम सब त्रिलोचन से मिलने गये थे । लगातार तीन चार घंटे तक महफिल जमी । उन्होंने अपने सॉनेट भी सुनाए और शब्द शास्त्र पर गहन चर्चा की ।
मज़ाक़ मज़ाक़ में तुम लोग गद्दों पर बैठने सोने वाले--इसलिए तुम ग़द्दार और हम चादर वाले इसलिए हम----चद्दार । और फिर उनकी वो शरारती मुस्कान । दाढ़ी के बीच से झांकती । आह सब कुछ याद आ गया ।
त्रिलोचन जी की स्वास्थ्यसुधार की गति ने आशा को बल दिया है। कविताएँ तो पढ़ी हुई हैं ही।वे निरन्तर मानसिक व शारिरिक स्वास्थ्यलाभ से अपने जीवट के बूते सामान्य हो जाएँगे--- यह कामना नहीं भरोसा है!आश्वस्ति है!
मित्रो,
त्रिलोचन जी के लिये हम सभी की शुभकामनाएं रंग लाएं और वो हमारी साहित्यिक धरोहर को और अधिक समृद्ध बनाएं इन्हीं शब्दों के साथ आप सभी का धन्यवाद जो टूटी हुई...पर आए.
इरफ़ान भाई !
आप त्रिलोचन जी से मिले और अब वे स्वस्थ हैं,यह जानकर तसल्ली हुई .
अक्टूबर के पहले सप्ताह में कुछ दिन के लिए दिल्ली/ गाज़ियाबाद था तब भाई चंद्रभूषण जी के साथ 'यशोदा नर्सिंग होम' जाने की बात थी . वे एक दिन पहले गये भी थे . उन्होंने ने बताया कि त्रिलोचन जी डिस्चार्ज़ होकर घर पहुंच चुके हैं . अगले दिन ही लौटना था इसलिए घर जा नहीं पाया . आपने वह कमी पूरी कर दी . आभारी हूं .
कलकत्ता में उनसे बात-चीत और कार्यक्रम आयोजित करने का मौका मिला था .सॉनेट के विभिन्न फ़ॉर्म्स पर अच्छी-खासी बाते-चीत हुई थी .
एक बात और, मेरे ब्लॉग पर त्रिलोचन जी का जो संक्षिप्त परिचय है वह भाई बोधिसत्त्व का लिखा हुआ है .
This is one of the most commendable and praiseworthy effort Irafaan ji. Koi rachanaakaar apne aap ko akela na samajhe isake liye aap jaise log hone zarooree hain. Trilochan ji to hamaaree kavitaa ke pitaamah jaise hain. His being with us is like history breaths with us...
Congrats !
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