
सआदत हसन मंटो किसी परिचय के मोहताज नहीं है.
उन्हीं के शब्दों में-
'ज़माने के जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे नावाक़िफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िये. अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब ये है कि ये ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है. मुझमें जो बुराइयां हैं वो इस अहद की बुराइयां हैं.मेरी तहरीर में कोई नुक़्स नहीं है.जिस नुक़्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअस्ल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है--मैं हंगामापसंद नहीं. मैं लोगों के ख़याल-ओ-जज़्बात में हेजान पैदा करना नहीं चाहता.मैं तहज़ीबो तमद्दुन की और सोसायटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े की पहनाने की कोशिश भी नहीं करता क्योंकि यह मेरा काम नहीं...लोग मुे सियाह क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख़्ता-ए-स्याह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूं कि तख्ता-ए-स्याह की सियाही और ज़्यादा नुमाया हो जाए. ये मेरा ख़ास अंदाज़, मेरा ख़ास तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक़्क़ीपसंदी और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है--लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कंबख़्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती.'
लीजिये सुनिये मंटो की लिखी ये कहानी--बू.
शुरू में आवाज़ें अरशद इक़बाल और इरफ़ान की हैं. क़िस्सागो हैं मुनीश.
Dur. 15 min approx.

2 comments:
जनाब यह बहुत ज़बर्दस्त प्रयास है मंटो को ज़िंदा करने का. यहां उनका अफ़साना प्रकाशित भी करें तो अच्छा.
बेहतरीन वाचन के साथ आपने एक दफा वह काम कर दिखाया जो मंटो के चाहनेवाले लंबे समय तक याद करेंगे। उम्मीद है आगे भी ऐसी बहुत सी रचनाएं आपके माध्यम से सुनाने को मिलेंगी। आपके साझे प्रयास अर्थवान भी हैं और समृद्धकारी भी। कुछ समय बाद इन सारी चीजों की archival value लोगों की समझ में आयेगी। ज़बरदस्त।
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