फ़ैज़ की नज्में, ज़िया मोहिउद्दीन की आवाज़ में, मिलेगी क्या? एक थोड़ा सा हिस्सा नज़र आया था कलामे फैज़ नाम के ब्लॉग में। उसके अलावा एक ऑडियो टेप हुआ करता था कभी घर पर। शायद अभी भी है कहीं। अनुराधाजी उसे डिजिटलाइज कराना चाहती हैं। लेकिन तब तक के लिए, अगर किसी दोस्त के पास इंटरनेट का कोई लिंक हो, तो कृपया बताएं।
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सुबह रिजेक्ट माल ने जब यह पोस्ट जारी की तो यक़ीन हुआ कि अब बोले हुए शब्दों का बाज़ार गरमाता जा रहा है. हिंदी में यह चलन और संपदा अभी शैशवकाल में भी नहीं है और क्यों नहीं है यह विचारणीय मुद्दा है.हमारे पास नसीरुद्दीन शाह और अमिताभ बच्चन जैसे समर्थ स्वर हैं और विपुल साहित्य. अकादमियां और ग़ैर सरकारी उपक्रम हैं, जो परंपरा और संस्कृति की दुहाई देते नहीं अघाते. पाकिस्तान एक 'तानाशाह' और 'दक़ियानूस' देश है, यह बात आते ही सभी एकमत में हुंकारी भरते हैं. पाकिस्तान का इतिहास है ही कितना पुराना? उनकी कोई सभ्यता है,कोई संस्कृति है? हम तो पांच हज़ार साल पुरानी जातीय स्मृतियों के देश में रहते हैं, हमारी वाचिक परंपरा कितनी महान रही है...आदि बातें क्या हम पहली बार सुनते हैं?
आश्चर्य, कि इसी कंबख़्त पाकिस्तान में ये ज़िया मोहिउद्दीन साहब बरसों से साहित्य-वाचन में लगे हैं और जंगल में नाचने वाले उस मोर का दर्जा नहीं रखते जिसे किसी ने न देखा. पाकिस्तान सहित दुनिया के अनेक देशों में अपनी इस कला का प्रदर्शन करते हुए वे हमारे साहित्य के अनमोल मोती लोगों तक पहुंचाते हैं. ये मोती इतने बिखरते हैं कि हम-आप तक भी पहुंच जाते हैं. ज़िया मोहिउद्दीन की कुछ प्रस्तुतियां मैंने पहले भी यहां और कलामे फ़ैज़ पर जारी की हैं और आगे भी जारी करूंगा. मैं आपसे यह भी अर्ज़ कर चुका हूं कि मेरी संस्था रेडियो रेड अलबत्ता तमाम अड़चनों के बावजूद बज़िद है कि इस विधा के साथ सुनने वालों का याराना बढ़ाया जाए. तो आज इस क्रम में पेश है पतरस बुख़ारी की एक व्यंग्य रचना लाहौर का जुगराफ़िया
आप जानते हैं कि पतरस बुख़ारी नाम से मशहूर ए.एस.बुख़ारी ऒल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर जनरल और प्रख्यात लेखक थे.
2 comments:
सर सुना तो है पर मेरी कमजोरी कि उर्दू कि अच्छी जानकारी नही होने के कारण पूरे अच्छे से समझ नही पाया.
kya baat hai..rochak prastuti
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