रोया हूं मैं भी किताब पढकर के
पर अब याद नहीं कौन-सी
शायद वह कोई वृत्तांत था
पात्र जिसके अनेक
बनते थे चारों तरफ से मंडराते हुए आते थे
पढता जाता और रोता जाता था मैं
क्षण भर में सहसा पहचाना
यह पढ्ता कुछ और हूं
रोता कुछ और हूं
दोनों जुड गये हैं पढना किताब का
और रोना मेरे व्यक्ति का
लेकिन मैने जो पढा था
उसे नहीं रोया था
पढने ने तो मुझमें रोने का बल दिया
दुख मैने पाया था बाहर किताब के जीवन से
पढ्ता जाता और रोता जाता था मैं
जो पढ्ता हूं उस पर मैं नही रोता हूं
बाहर किताब के जीवन से पाता हूं
रोने का कारण मैं
पर किताब रोना संभव बनाती है.
रघुवीर सहाय
आवाज़: इरफ़ान........अवधि: लगभग डेढ मिनट
5 comments:
बहुत भावभीनी रचना ... उतने ही भाव भरे स्वर में आपने पढ़कर सोने पे सुहागा कर दिया.
वैसे एक ज़माने में "आपका बंटी" पढी थी - manish [आवाज़ की गमक के बारे में तो साक्षात् हो चुका है ]
यह पढ्ता कुछ और हूं
रोता कुछ और हूं
seedhi si baat hai...sabkey saath ghat_tii hai..aapki avaaz me munbhaayii...IRFAAN JI...
very well read and presented poem.
Good voice added charm in the poem.
Thanks
achcha kavita hai
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