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यार लोग सोचते होंगे कि कॉपीराइट का सवाल उठाकर उन्होंने कोई नई चीज़ की. ये सच नहीं है. कॉपीराइट एक ऐसा इश्यू है जिसके बारे में हम सभी जानते हैं. और सचेत हैं. मैंने दिनेशराय द्विवेदी की पोस्ट का हवाला देते हुए स्वप्नदर्शी से अपने पत्राचार को आपके साथ इसलिये शेयर किया कि एक तो इस पर आपकी राय जान ली जाय और दूसरे स्वप्नदर्शी भी जान सकें कि हिंदुस्तान में इस कॉपीराइट को लेकर क्या रवैया है. मुझे उम्मीद थी कि इस विषय में ब्लॉग और इंटरनेट के धुरंधर खिलाडी कुछ कहेंगे लेकिन उनकी हिलैरियस ख़ामोशी मुझे इस नतीजे पर पहुँचने को मजबूर कर रही है कि वे इस विषय पर विचार नहीं कर सके हैं और उनके पास भी इसका कोई जवाब नहीं है.
इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री, उसकी पुनर्प्रस्तुति, उपयोग और दुरुपयोग: कुछ विचारणीय प्रश्न
मैं इस मामले में ख़ुद को अनुपयुक्त व्यक्ति पाता हूँ क्योंकि इस सिलसिले में कोई आचार संहिता बनाई गई या नहीं, इस पर पुरानी बहसों या विमर्श को कहाँ सम अप किया गया! यह बात मेरे सामने स्पष्ट नहीं है. मैं ख़ुद इस क्षेत्र में नया हूँ और समझता हूँ कि जानकार इस दिशा में मेरा मार्गदर्शन करेंगे. जहाँ तक मेरा इंप्रेशन है- जो कुछ ओपेन सोर्स की शक्ल में हमें वाइल्ड सर्च से परिणाम मिलता है, वह सबके लिये प्रयोग में लाने योग्य है. यह मानकर चलने में क्या हर्ज है कि जिसने भी अपनी कृति यहाँ स्वतंत्र छोडी हुई है वह इस बात के लिये तैयार है या अवेयर है कि उस कृति को कोई दूसरा प्रयोग में ला सकता है, लाएगा ही. अगर स्रोत का ज़िक्र कर दे तो उसकी भलमनसाहत वरना न करे तो कोई ज़बर्दस्ती तो है नहीं. अगर ऐसी ही परेशानी है तो मैं पूछना चाहता हूं कि आपने इसे पब्लिक डोमेन में रखा ही क्यों? ख़ुद सोचिये उदाहरण के लिये आप अपनी पत्नी या किसी आत्मिक पारिवारिक क्षण का फ़ोटोग्राफ़ अगर पब्लिक डोमेन में न ले जाएँ तो उसका उपयोग-दुरुपयोग आपकी फैमिली अलबम से लेकर ही करना तो संभव होगा!
भारत में कॉपीराइट हासिल करना, उपयोग की अनुमति लेना या कृतिकार को उसका मानदेय पहुँचाना बहुत कठिन है
अगर आप किसी शरारत और दुरिच्छा से संचालित नहीं हैं और सचमुच चाहते हैं कि कृतिकार को उसका अभीष्ट मिले तो आइये एक खेल खेलें. अज़ीज़ नाज़ाँ क़व्वाल की यह मशहूर क़व्वाली मेरे ब्लॉग पर यहाँ मौजूद है. आपसे अनुरोध है कि बताएँ इस क़व्वाली के व्यावसायिक उपयोग की मंशा रखने वाले को वैधता का प्रमाणपत्र कैसे मिल सकता है? मैं आपको तीन साल का समय देता हूँ.
कूडे में पडी कृतियाँ और संरक्षण का सवाल
मेरे पास मेरी वर्षों की दीवानगी और अपनी धरोहर के प्रति मेरे जुनून ने ऐसा बहुत सा ज़ख़ीरा जमा कर दिया है जिसे हम कूडा समझ चुके हैं. सचमुच कूडेदान से बटोरे गये, कबाडियों से ख़रीदे गये और चोर बाज़ार से जुटाए गए माल में यह पता करना मुश्किल है कि इसका सोर्स क्या है. हमारे यहाँ एक अंधी दौड है जिसमें वह सब कुछ, जिसे लाभदायक और ट्रेंडी नहीं माना जाता उसे कूडेदान में डाल दिया जाता है. कोई डेढ सौ संगीतकारों-गायकों और गीतकारों का डाटाबेस मेरे ही पास है जिनके बारे में आप नहीं जानते लेकिन जिन्होंने एक ज़माने में रिकॉर्ड कंपनियों को मुनाफ़े का एक बडा हिस्सा दिलाया. आप नहीं जानते इसमें आपका कुसूर नहीं लेकिन वे रिकॉर्ड कंपनियाँ भी इनकी कोई ख़बर नहीं रखतीं. एक ज़माने के लोकप्रिय संगीतकार चरनजीत आहूजा जिन्होंने अंजन की सीटी में म्हारो मन डोले...जैसा यादगार गाना कम्पोज़ किया, वे दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहते हैं और अब स्मृतिलोप-निराशा और गुमनामी का जीवन जी रहे हैं. मैने जब उनसे बात की तो लगा ही नहीं कि वो अपने किये किसी काम से पैशनेटली जुडे भी हैं. इसी गीत का ज़िक्र करें तो आपसे पूछने का मन होता है कि इस गीत के गीतकार अलाउद्दीन और गायिका रेहाना मिर्ज़ा के बारे में आप कभी जान भी पाएंगे या नहीं? रही बात इस गीत को सुनने की, तो इसके लिये आपको किसी सर्च इंजन से सिर टकराना होगा या फिर यह यूनुस के ब्लॉग पर यह मिलेगा.
ऐसा बहुत सा संगीत और साहित्य है जो हम अपने जीवन का अमूल्य समय बरबाद करते हुए, अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए आप तक पहुंचा रहे हैं. हम समझते हैं कि इस बात का महत्व समझते हुए दिनेश राय द्विवेदी जैसे क़ानूनी अध्यवसायी और दूसरे लोग इस महान उपक्रम को जारी रखने की क़ानूनी शक्ति बनेंगे वरना इसमें हमें कोई उज्र न होगा कि हमें अपनी लीगेसी के संरक्षण और विस्तार के दंडस्वरूप जेल आदि की सज़ा काटनी पडे. यहाँ यह स्पष्ट करना बेहतर होगा कि हम करेंसी संगीत और साहित्य को प्रसारित-प्रचारित करें तो अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए हमें उचित उल्लेख करना चाहिये और यह बता देना चाहिये कि सामग्री का स्रोत क्या है और इच्छुक व्यक्ति इस सामग्री को कहाँ से ख़रीद सकते हैं ताकि संबंधित व्यक्ति की व्यावसायिक हानि न हो.
कई दूसरे ब्लॉगर्स की तरह मैं भी यही सोचकर ख़ुद को नैतिक दृष्टि से संगत पाता हूँ कि मैं प्रचारित प्रसारित सामग्री का व्यावसायिक या निजी अर्थोपार्जन के लिये तो उपयोग नहीं कर रहा. दिलचस्प है कि मौजूदा सवाल हमारी साथी ब्लॉगर की तरफ़ से आया है जो अमरीका में रह रही हैं और इस सिलसिले के कई ज्वलंत मुद्दों से दो-चार हैं. हमें न यह कहकर छूट नहीं मिल सकती कि खुद नोटोरियस अमरीकी संस्थाएं एशियाई देशों और दुनियाभर के इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स के साथ किस बलात्कार में मुलव्वस हैं और न यह कहकर कि वहाँ नागरिक चेतना और जीवनस्तर इस बात की इजाज़त देता है कि स्वत्वाधिकार आदि के प्रश्न को स्ट्रीमलाइन किया जा सका है. आप जानते हैं कि हमारे यहाँ लेखक बेचारा प्रकशक को पैसे देकर भी अपनी किताबें छपवाता है जबकि पूँजीवादी देशों और अधिकारसंपन्न देशों में लेखकों के लिटरेरी एजेंट प्रकाशकों की नाक की नकेल हैं. गायक-गायिकाओं और संगीत के धंधे के बाज़ लोग माफ़ियाओं और संगीत कम्पनियों के रहम-ओ-करम पर ज़िंदा हैं. ऐसे में हम किस रचनात्मक सम्मान और प्रेरोगेटिव की बात करते हैं.
बाज़ार और उससे जुडी नैतिकता
यहाँ ग़ौरतलब यह भी है कि हमारे ही साहित्य और प्रीरिकॉर्डेड संगीत पर बाज़ार फलफूल रहा है.विज्ञापन और टेलीविज़न मे लाखों के पैकेज पर नौकरियाँ करनेवाले लोग जिस बेशर्मी से मूल रचनाओ को अपने कौशल के साथ अपना बना लेते है उसी के लिये अपनी दावेदारी और क्लेम चाहते है. इसलिये मामला उतना इकहरा और द्वद्वमुक्त नही है जिसके लिये डरने और पने मौजूदा शग़ल से हाथ खींच लेने की नौबत आ जाए.
आइये जारी रखें अपनी शैतानियाँ.
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