एक बार एक आदमी जंगल से गुज़र रहा था. रास्ते में उसे बहुत ज़ोर की प्यास लगी. थोडी दूर चलने पर उसे एक कुटिया दिखाई दी. कुटिया के पास पहुँच कर उसने आवाज़ लगाई तो संसार से निर्लिप्त एक साधूबाबा बाहर आए. आदमी ने उनसे पानी माँगा. साधूबाबा ने आदमी से बैठने को कहा और स्वयं भी आसन ग्रहण किया.
अब साधूबाबा आदमी को पानी की उत्पत्ति, उससे जुडी मिथकीय मान्यताओं, पानी के अनुष्ठान, पानी का प्रागैतिहास, आधुनिक पानी की प्रासंगिकता, पानी की प्राचीनता, पानी के बारे में पाणिनि और चरक-सुश्रुत और ओशो के विचार बताते रहे. वे और भी बहुत कुछ बताते रहे लेकिन आदमी ध्यान से सुन नहीं पा रहा था क्योंकि पानी की कमी से उसकी चेतना साथ नहीं दे रही थी. अंत में साधू ने यह कहकर आदमी को पानी देने से इंकार कर दिया कि पानी माँगने से पहले पानी का इतिहास जानना ज़रूरी है.
लता मंगेश्कर एक पुरानी गायिका हैं और उनके गाये गीतों में शब्दों का उच्चारण सटीक होता है. वे किसी मुसलमानी बिंदी को साथ में लेकर पैदा नहीं हुई हैं. वे हिंदी-उर्दू की गंगा पट्टी में भी पैदा नहीं हुईं है. कृपया बताएँ कि वे अपने भाषिक उच्चारण को लेकर इतनी सचेत क्यों रहती हैं? अस्सी के दशक तक लगभग सभी गायक-गायिकाएँ भाषा का सौंदर्य बरक़रार रखते आए हैं और व्यापक लोग उनके उच्चारण से सीखते हैं और बोल भले न पाते हों सही और ग़लत का भेद कर लेते हैं. दिनमान में शमशेर बहादुर सिंह देवनागरी में उर्दू के पाठ क्यों लिखते रहे जिन्हें रघुवीर सहाय धारावाहिक अध्यायों के रूप में लंबे समय तक छापते रहे? क्यों बडे-बडे बाबू साहब लोग एक ज़माने तक अपने दुलरुओं को तवायफ़ों के पास तहज़ीब और तलफ़्फ़ुज़ सीखने के लिये भेजते रहे?
असल में समय गुज़रने के साथ भाषिक सौंदर्य मुसलमानों के साथ जोड दिया गया है जबकि मार खाया और भगाया हुआ मुसलमान भी कैसी भाषा बोल सकता है...यारों को अब नुक़्ते का इस्तेमाल नुक़्तेबाज़ी लगता है और इसी लिये महान सूफ़ी गायक कैलाश खेर का पहला ही हिट गाना टूटा-टूटा एक परिदा ऐसे टूटा कि फ़िर जुड न पाया...एडिटिंग टेबल से फ़ाइनल होकर बाज़ार में पहुँच जाता है. आप जानते हैं कि म्यूज़िक कुक करना एक टाइमटेकिंग प्रॉसेस है और वह किसी एक आदमी की व्हिम पर नहीं चलता. उदाहरण के लिये आप गायत्री मंत्र की सीडी कुक कर रहे हों तो आप संस्कृत की अदायगी ठीक हुई है या नहीं इस पर जानकारों की राय ले लेते हैं. कैलाश खेर या उनके समकालीनों के केस में अब या तो जानकार हैं नहीं या फिर राय लेने ज़रूरत नहीं समझी जाती ...और जिस तरह की दलीलें यहाँ ब्लॉग विमर्श में सुन रहा हूँ उससे तो यही लगता है कि ख़ामियों को छुपाने के सुविधाजनक तर्क गढे जा रहे हैं. बक़ौल अजित "एक हिन्दी चैनल के कर्ता-धर्ता जो अक्सर एंकरिंग करने लगते हैं, बार-बार दोनो हथेलियों को रगड़ते हुए ज़ाहिर को जाहिर है, जाहिर है बोलते चले जाने की वजह से काफी शोहरत पा चुके हैं।" वे ज़ भले ही ज़ाहिर बोलते हुए बोलना न चाहें क्योंकि वह मुसलमानी बिंदी है लेकिन पिज़्ज़ा ज़रूर बोल लेते हैं. कभी आपने किसी ग़ैरनुक़्तेबाज़ को Pijja बोलते हुए सुना है?
Sunday, January 27, 2008
Saturday, January 26, 2008
एक छोटी सी बात का इतना प्रचार?
कुछ टूटी हुई, कुछ बिखरी हुई
ब्लॉग-चर्चा में आज इरफान का ब्लॉग – टूटी हुई बिखरी हुई
-मनीषा पांडेय
25 जनवरी 2008, वेब दुनिया
आज ब्लॉग-चर्चा में हम जिस ब्लॉग को लेकर हाज़िर हुए हैं, वह कई मायनों में अब तक यहाँ चर्चित ब्लॉगों से भिन्न है। सबसे पहली बात तो यह कि ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ नाम का यह ब्लॉग सबसे कम उम्र का ब्लॉग है। इसे चलाते हैं - स्वतंत्र पत्रकार और मीडियाकर्मी इरफान। मई, 2007 में मोहल्ला फेम ब्लॉगर अविनाश की मदद से इरफान का ब्लॉग की दुनिया में पदार्पण हुआ और फिर प्रकाश में आया - ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’। नाम पर न जाएँ, नाम भले टूटा-फूटा हो, ब्लॉग फिलहाल एकदम दुरुस्त है। इसीलिए आज इस कॉलम में आप सबसे रू-ब-रू है।
ब्लॉग का नाम जितना अजीब है, यूआरएल उससे भी ज्यादा पेचीदा। ब्लॉगस्पॉट के पहले अँग्रेजी के 21 अक्षर टाइप करने में ब्लॉग पढ़ने वाला खुद ही ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ हो जाता है। लेकिन एक बार ब्लॉग खुले तो फिर ऐसी जान लौटती है कि घंटों उस ब्लॉग पर कब बीते, पता ही नहीं चलता।
इरफान इसकी सफाई कुछ यूँ देते हैं, ‘मुझे तब यह नहीं मालूम था कि ब्लॉग टाइटिल और यूआरएल अलग-अलग भी हो सकते हैं। ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ हिंदी के प्रख्यात कवि स्वर्गीय शमशेर बहादुर सिंह की एक कविता है। शमशेर की स्मृति को समर्पित यह ब्लॉग कविताओं का नहीं है। यह अलग बात है कि कविताएँ भी यहाँ हैं। ख़ुद शमशेर की उपरोक्त पूरी कविता अपने अँग्रेज़ी अनुवाद के साथ यहाँ एक स्थाई उपस्थिति बनाए हुए है।’
आज ब्लॉग-चर्चा में हम जिस ब्लॉग को लेकर हाज़िर हुए हैं, वह कई मायनों में अबतक यहाँ चर्चित ब्लॉगों से भिन्न है। सबसे पहली बात तो यह कि ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ नाम का यह ब्लॉग सबसे कम उम्र का ब्लॉग है। इसे स्वतंत्र पत्रकार और मीडियाकर्मी इरफान चलाते हैं।
इरफान दिल्ली में रहते हैं। उनका परिचय उनके ब्लॉग पर कुछ इन शब्दों में पढा जा सकता है, ‘मैं मिर्ज़ापुर के घुरमा मारकुंडी में पैदा हुआ। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ा और समकालीन जनमत के साथ पटना होता हुआ दिल्ली पहुँचा। यहाँ स्वतंत्र पत्रकारिता, लेखन और ऑडियो-विज़ुअल प्रोडक्शन्स में लगा हुआ हूँ।’ इरफान को आश्चर्य होता है कि उन्होंने दोस्तों से ज़्यादा दुश्मन बनाए हैं और अपने व्यवहार में हमेशा एक कटुता और मुँहफटपन लिए रहते हैं, फिर भी उनमें और उनके ब्लॉग में लोगों की जिज्ञासा क्यों है, जबकि उनके अनुसार उनके ब्लॉग में ऐसा कुछ है भी नहीं, जिसका इंतज़ार लोगों को हो।
वे कहते हैं, ‘मैंने तो मज़े-मज़े में इसे शुरू किया है और आइडिया यही है कि मैं अपनी बरसों से समेटी-सँजोई चीज़ों का एक व्यवस्थित रैक बनाऊँ। इसी क्रम में मैंने शुरुआती पोस्टें जारी कीं, जिनमें किसी की दिलचस्पी क्यों होती।
‘पुराने ईपी और एलपी के कवर्स, गुज़रे ज़माने के ब्रॉडकास्टर्स, फिल्मी लोग और साहित्यकारों की तस्वीरें.... मुझे जो कुछ भी दबा-छिपा मिल जाता, उसे मैं सँजोने लगा। सच पूछिए तो ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ पूरी तरह किसी भी एक विधा या फोकस का ब्लॉग नहीं है। वो ये भी है और वो भी है या कहें ये भी नहीं है और वो भी नहीं।’
इरफान आगे कहते हैं, ‘बहरहाल धीरे-धीरे मैंने कुछ लिखने की कोशिश की, जिसका बहुत ख़राब रिस्पांस देखकर लगा कि यहाँ समझदारी की बातें करना बेकार है। उसके बाद से मैं अब ज़्यादातर साउंड पोस्ट करने का काम करता हूँ। इसमें भी लालच यही रहता है कि जो कुछ मुझे सुनने के लायक लगता है, उसे दोस्तों के साथ शेयर करूँ। वैसे भी मेरा मौजूदा पेशा मुझे इस ओर उद्धत करता है कि खुद सुनने के अलावा मैं सुनाऊँ भी।’
इरफान रेडियो जॉकी भी हैं। वे कहते हैं, ‘सुनाने का एक बडा फोरम होने के बावजूद मेरे सामने कुछ बंदिशें भी हैं और एक ख़ास तरह का फिल्मी म्यूज़िक बजाने के अलावा मेरे सामने कोई रास्ता भी नहीं है। ऐसे में ब्लॉग ने मुझे यह अवसर दिया है कि मैं इस तरह का संगीत भी लोगों तक पहुँचा सकूँ। आलोक धन्वा, नरेश सक्सेना, उदय प्रकाश, इब्बार रब्बी, विनोद कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल और चंद्रकांत देवताले जैसे हिंदी के कवियों की उन्हीं के स्वर में कविताएँ हों, आम लोगों की बोलती गाती आवाज़ें हों, देवकीनंदन पांडे और ज़िया मोहिउद्दीन के नायाब पाठ हों या मेरी पसंद के गीत... इन सब चीज़ों के लिए एफएम रेडियो में स्थान नहीं है। मैं इस तरह ब्लॉग के माध्यम से एक वैकल्पिक रेडियो चलाने का भी आंशिक सुख लेता हूँ।’
ब्लॉग विधा के बारे में अपनी शुरुआती प्रतिक्रिया को याद करते हुए वे कहते है, ‘मुझे शुरू में लगता था और आज भी यही लगता है कि यह थोड़े से उन लोगों का शग़ल है, जिन्हें आत्म-प्रदर्शन पसंद है। मैं ख़ुद भी प्रदर्शनवादी हूँ तो यह मेरी दबी इच्छाओं का वाहन बना हुआ है।’
‘टूटी हुई बिखरी हुई’ की सैर करते हुए अचानक आपको गैब्रिएला मिस्त्राल की कविता दिख जाएगी, तो कहीं फहमीदा रियाज की कोई गुनगुनाती हुई-सी नज्म। पुराने लेखकों और साहित्यकारों की कुछ दुर्लभ तस्वीरें भी यहाँ देखी जा सकती हैं। इन्हीं सबके बीच कहीं इरफान की कविता से भी साबका पड़ता है -
चाँद और लुच्चे
ये एक सँकरा रास्ता था
जहाँ पहुँचने के लिए
कहीं से चलना
नहीं पड़ता था
या ये एक मंज़िल थी
समझो
आ जाती थी बस...
फिर रात गहराती थी
और चांद की याद भी किसी को नहीं आती थी
एक दिन
जब धूल के बगूलों पर सवार
कुछ लुच्चे आये
(वो ऐसे ही आते-जाते हैं सब जगह बगूलों पर ही सवार)
बाल बिखरे हुए थे उनके
बोले-
नींद खुलने से पहले ही जागा करो...
और ऐसी ही कई बातें.
चांद उत्तर के थोड़ा पूरब होकर लटका हुआ था
किसी को परवाह भी न थी
उन्हें भी नहीं
छटनी में छांटे गये ये लुच्चे
बस छांद की थिगलियां
जोड़ते रहते हैं
रातों में.
---------------------
इरफ़ान
12 जनवरी 1994
कहीं रुबर्तो हुआरोज की शीर्षकहीन कविता नजर आती है -
शीर्षकहीन कविता
तो कहीं ब्रेख्त की आवाज सुन पड़ती है -
मैं सड़क के किनारे बैठा हूँ
ड्राइवर पहिया बदल रहा है
जिस जगह से मैं आ रहा हूँ वह मुझे पसंद नहीं
जिस जगह मैं जा रहा हूँ वह मुझे पसंद नहीं
फिर क्यों बेसब्री से मैं
उसे पहिया बदलते देख रहा हूँ.
इसके अलावा भारत एक खोज, सस्ता शेर और सिर्फ इरफान उनके ब्लॉग हैं। उनका पसंदीदा ब्लॉग अशोक पांडे द्वारा संचालित ब्लॉग ‘लपूझन्ना’ है। ब्लॉग पर क्या लिखते हैं, के जवाब में वे कहते हैं, ‘ब्लॉग पर लिखने के लिये विषयों का चुनाव ज़्यादातर परिस्थिति और मूडवश ही करता हूँ। कोई तयशुदा नियम नहीं है।’
हिंदी ब्लॉगिंग के बारे में इरफान कहते हैं, ‘हिंदी ब्लॉगिंग फिलहाल तैयारी और जुगुप्सा के दौर से गुजर रही है। टीवी या प्रिंट माध्यमों से इसमें एक ही भिन्नता है कि यह टीआरपी और सर्कुलेशन के दबावों से पूर्णत: मुक्त है।’
लेकिन इरफान ब्लॉगिंग को आने वाले समय की विधा नहीं मानते। वे कहते हैं, ‘आने वाले समय में चुनिंदा और विषय-भाव केंद्रित ब्लॉग ही सार्थक कर रहे होंगे। इसमें वो सब बुराइयाँ (ज़्यादा) और अच्छाइयाँ (कम) झलकेंगी, जो समाज में हैं, और निजी कैथार्सिस को रोकना कौन चाहेगा? ब्लॉगिंग से पत्रकारिता अपने लिए कच्चा माल लेगी।’
क्या आने वाले समय में इंटरनेट और ब्लॉगिंग इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया पर भारी पड़ सकते हैं, के जवाब में इरफान कहते हैं कि ऐसा हो सकता है, जब गंभीर पत्रकार अपने प्रेस क्लबों से ब्लॉग का रुख़ करेंगे। ब्लॉगिंग से हिंदी भाषा का विकास भी होगा। ग्लोबलाइज़ेशन की बुराइयों पर सहमत लोग अपने दोस्तों को पहचान सकेंगे।
इरफान एक ऐसे ब्लॉग की भी कल्पना करते हैं, जहाँ उनके मोहल्ले का कूडा उठाने वाला भी स्थान पा सकेगा।
ब्लॉगिंग के माध्यम से इंटरनेट की दुनिया में जो खजाना तैयार हो रहा है, उसमें एक है, टूटी हुई बिखरी हुई । समय के सीमा में बँधी कोई प्रासंगिता इस ब्लॉग की विवशता नहीं है। यह ब्लॉग हर समय प्रासंगिक है। दुर्लभ चित्र, कविताएँ, दस्तावेज और गीत हमेशा प्रासंगिक हैं।
ब्लॉग - टूटी हुई बिखरी हुई
URL - http://tooteehueebikhreehuee.blogspot.com/
ब्लॉग - सस्ता शेर
URL -www.ramrotiaaloo.blogspot.com
ब्लॉग - सिर्फ इरफान
URL - www.sirfirf.blogspot.com
ब्लॉग - भारत एक खोज
URL - www.ekbanjaragaaye.blogspot.com
ब्लॉग-चर्चा में आज इरफान का ब्लॉग – टूटी हुई बिखरी हुई
-मनीषा पांडेय
25 जनवरी 2008, वेब दुनिया
आज ब्लॉग-चर्चा में हम जिस ब्लॉग को लेकर हाज़िर हुए हैं, वह कई मायनों में अब तक यहाँ चर्चित ब्लॉगों से भिन्न है। सबसे पहली बात तो यह कि ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ नाम का यह ब्लॉग सबसे कम उम्र का ब्लॉग है। इसे चलाते हैं - स्वतंत्र पत्रकार और मीडियाकर्मी इरफान। मई, 2007 में मोहल्ला फेम ब्लॉगर अविनाश की मदद से इरफान का ब्लॉग की दुनिया में पदार्पण हुआ और फिर प्रकाश में आया - ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’। नाम पर न जाएँ, नाम भले टूटा-फूटा हो, ब्लॉग फिलहाल एकदम दुरुस्त है। इसीलिए आज इस कॉलम में आप सबसे रू-ब-रू है।
ब्लॉग का नाम जितना अजीब है, यूआरएल उससे भी ज्यादा पेचीदा। ब्लॉगस्पॉट के पहले अँग्रेजी के 21 अक्षर टाइप करने में ब्लॉग पढ़ने वाला खुद ही ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ हो जाता है। लेकिन एक बार ब्लॉग खुले तो फिर ऐसी जान लौटती है कि घंटों उस ब्लॉग पर कब बीते, पता ही नहीं चलता।
इरफान इसकी सफाई कुछ यूँ देते हैं, ‘मुझे तब यह नहीं मालूम था कि ब्लॉग टाइटिल और यूआरएल अलग-अलग भी हो सकते हैं। ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ हिंदी के प्रख्यात कवि स्वर्गीय शमशेर बहादुर सिंह की एक कविता है। शमशेर की स्मृति को समर्पित यह ब्लॉग कविताओं का नहीं है। यह अलग बात है कि कविताएँ भी यहाँ हैं। ख़ुद शमशेर की उपरोक्त पूरी कविता अपने अँग्रेज़ी अनुवाद के साथ यहाँ एक स्थाई उपस्थिति बनाए हुए है।’
आज ब्लॉग-चर्चा में हम जिस ब्लॉग को लेकर हाज़िर हुए हैं, वह कई मायनों में अबतक यहाँ चर्चित ब्लॉगों से भिन्न है। सबसे पहली बात तो यह कि ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ नाम का यह ब्लॉग सबसे कम उम्र का ब्लॉग है। इसे स्वतंत्र पत्रकार और मीडियाकर्मी इरफान चलाते हैं।
इरफान दिल्ली में रहते हैं। उनका परिचय उनके ब्लॉग पर कुछ इन शब्दों में पढा जा सकता है, ‘मैं मिर्ज़ापुर के घुरमा मारकुंडी में पैदा हुआ। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ा और समकालीन जनमत के साथ पटना होता हुआ दिल्ली पहुँचा। यहाँ स्वतंत्र पत्रकारिता, लेखन और ऑडियो-विज़ुअल प्रोडक्शन्स में लगा हुआ हूँ।’ इरफान को आश्चर्य होता है कि उन्होंने दोस्तों से ज़्यादा दुश्मन बनाए हैं और अपने व्यवहार में हमेशा एक कटुता और मुँहफटपन लिए रहते हैं, फिर भी उनमें और उनके ब्लॉग में लोगों की जिज्ञासा क्यों है, जबकि उनके अनुसार उनके ब्लॉग में ऐसा कुछ है भी नहीं, जिसका इंतज़ार लोगों को हो।
वे कहते हैं, ‘मैंने तो मज़े-मज़े में इसे शुरू किया है और आइडिया यही है कि मैं अपनी बरसों से समेटी-सँजोई चीज़ों का एक व्यवस्थित रैक बनाऊँ। इसी क्रम में मैंने शुरुआती पोस्टें जारी कीं, जिनमें किसी की दिलचस्पी क्यों होती।
‘पुराने ईपी और एलपी के कवर्स, गुज़रे ज़माने के ब्रॉडकास्टर्स, फिल्मी लोग और साहित्यकारों की तस्वीरें.... मुझे जो कुछ भी दबा-छिपा मिल जाता, उसे मैं सँजोने लगा। सच पूछिए तो ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ पूरी तरह किसी भी एक विधा या फोकस का ब्लॉग नहीं है। वो ये भी है और वो भी है या कहें ये भी नहीं है और वो भी नहीं।’
इरफान आगे कहते हैं, ‘बहरहाल धीरे-धीरे मैंने कुछ लिखने की कोशिश की, जिसका बहुत ख़राब रिस्पांस देखकर लगा कि यहाँ समझदारी की बातें करना बेकार है। उसके बाद से मैं अब ज़्यादातर साउंड पोस्ट करने का काम करता हूँ। इसमें भी लालच यही रहता है कि जो कुछ मुझे सुनने के लायक लगता है, उसे दोस्तों के साथ शेयर करूँ। वैसे भी मेरा मौजूदा पेशा मुझे इस ओर उद्धत करता है कि खुद सुनने के अलावा मैं सुनाऊँ भी।’
इरफान रेडियो जॉकी भी हैं। वे कहते हैं, ‘सुनाने का एक बडा फोरम होने के बावजूद मेरे सामने कुछ बंदिशें भी हैं और एक ख़ास तरह का फिल्मी म्यूज़िक बजाने के अलावा मेरे सामने कोई रास्ता भी नहीं है। ऐसे में ब्लॉग ने मुझे यह अवसर दिया है कि मैं इस तरह का संगीत भी लोगों तक पहुँचा सकूँ। आलोक धन्वा, नरेश सक्सेना, उदय प्रकाश, इब्बार रब्बी, विनोद कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल और चंद्रकांत देवताले जैसे हिंदी के कवियों की उन्हीं के स्वर में कविताएँ हों, आम लोगों की बोलती गाती आवाज़ें हों, देवकीनंदन पांडे और ज़िया मोहिउद्दीन के नायाब पाठ हों या मेरी पसंद के गीत... इन सब चीज़ों के लिए एफएम रेडियो में स्थान नहीं है। मैं इस तरह ब्लॉग के माध्यम से एक वैकल्पिक रेडियो चलाने का भी आंशिक सुख लेता हूँ।’
ब्लॉग विधा के बारे में अपनी शुरुआती प्रतिक्रिया को याद करते हुए वे कहते है, ‘मुझे शुरू में लगता था और आज भी यही लगता है कि यह थोड़े से उन लोगों का शग़ल है, जिन्हें आत्म-प्रदर्शन पसंद है। मैं ख़ुद भी प्रदर्शनवादी हूँ तो यह मेरी दबी इच्छाओं का वाहन बना हुआ है।’
‘टूटी हुई बिखरी हुई’ की सैर करते हुए अचानक आपको गैब्रिएला मिस्त्राल की कविता दिख जाएगी, तो कहीं फहमीदा रियाज की कोई गुनगुनाती हुई-सी नज्म। पुराने लेखकों और साहित्यकारों की कुछ दुर्लभ तस्वीरें भी यहाँ देखी जा सकती हैं। इन्हीं सबके बीच कहीं इरफान की कविता से भी साबका पड़ता है -
चाँद और लुच्चे
ये एक सँकरा रास्ता था
जहाँ पहुँचने के लिए
कहीं से चलना
नहीं पड़ता था
या ये एक मंज़िल थी
समझो
आ जाती थी बस...
फिर रात गहराती थी
और चांद की याद भी किसी को नहीं आती थी
एक दिन
जब धूल के बगूलों पर सवार
कुछ लुच्चे आये
(वो ऐसे ही आते-जाते हैं सब जगह बगूलों पर ही सवार)
बाल बिखरे हुए थे उनके
बोले-
नींद खुलने से पहले ही जागा करो...
और ऐसी ही कई बातें.
चांद उत्तर के थोड़ा पूरब होकर लटका हुआ था
किसी को परवाह भी न थी
उन्हें भी नहीं
छटनी में छांटे गये ये लुच्चे
बस छांद की थिगलियां
जोड़ते रहते हैं
रातों में.
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इरफ़ान
12 जनवरी 1994
कहीं रुबर्तो हुआरोज की शीर्षकहीन कविता नजर आती है -
शीर्षकहीन कविता
अपने हाथों का तकिया बना लो.
आकाश अपने बादलों का
धरती अपने ढेलों का
और गिरता हुआ पेड़
अपने ही पत्तों का तकिया बना लेता है.
यही एकमात्र उपाय है
गीत को ग्रहण करने का
निकट से उस गीत को जो
पड़ता नहीं कान में,
जो रहता है कान में.
एकमात्र गीत जो दोहराया नहीं जाता.
हर व्यक्ति को चाहिये
एक ऐसा गीत जिसका
अनुवाद असंभव हो.
रोबर्तो हुआरोज़ अर्जेंटीना,1925
-----------------------
अनुवाद:कृष्ण बलदेव वैद
तो कहीं ब्रेख्त की आवाज सुन पड़ती है -
मैं सड़क के किनारे बैठा हूँ
ड्राइवर पहिया बदल रहा है
जिस जगह से मैं आ रहा हूँ वह मुझे पसंद नहीं
जिस जगह मैं जा रहा हूँ वह मुझे पसंद नहीं
फिर क्यों बेसब्री से मैं
उसे पहिया बदलते देख रहा हूँ.
इसके अलावा भारत एक खोज, सस्ता शेर और सिर्फ इरफान उनके ब्लॉग हैं। उनका पसंदीदा ब्लॉग अशोक पांडे द्वारा संचालित ब्लॉग ‘लपूझन्ना’ है। ब्लॉग पर क्या लिखते हैं, के जवाब में वे कहते हैं, ‘ब्लॉग पर लिखने के लिये विषयों का चुनाव ज़्यादातर परिस्थिति और मूडवश ही करता हूँ। कोई तयशुदा नियम नहीं है।’
हिंदी ब्लॉगिंग के बारे में इरफान कहते हैं, ‘हिंदी ब्लॉगिंग फिलहाल तैयारी और जुगुप्सा के दौर से गुजर रही है। टीवी या प्रिंट माध्यमों से इसमें एक ही भिन्नता है कि यह टीआरपी और सर्कुलेशन के दबावों से पूर्णत: मुक्त है।’
लेकिन इरफान ब्लॉगिंग को आने वाले समय की विधा नहीं मानते। वे कहते हैं, ‘आने वाले समय में चुनिंदा और विषय-भाव केंद्रित ब्लॉग ही सार्थक कर रहे होंगे। इसमें वो सब बुराइयाँ (ज़्यादा) और अच्छाइयाँ (कम) झलकेंगी, जो समाज में हैं, और निजी कैथार्सिस को रोकना कौन चाहेगा? ब्लॉगिंग से पत्रकारिता अपने लिए कच्चा माल लेगी।’
क्या आने वाले समय में इंटरनेट और ब्लॉगिंग इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया पर भारी पड़ सकते हैं, के जवाब में इरफान कहते हैं कि ऐसा हो सकता है, जब गंभीर पत्रकार अपने प्रेस क्लबों से ब्लॉग का रुख़ करेंगे। ब्लॉगिंग से हिंदी भाषा का विकास भी होगा। ग्लोबलाइज़ेशन की बुराइयों पर सहमत लोग अपने दोस्तों को पहचान सकेंगे।
इरफान एक ऐसे ब्लॉग की भी कल्पना करते हैं, जहाँ उनके मोहल्ले का कूडा उठाने वाला भी स्थान पा सकेगा।
ब्लॉगिंग के माध्यम से इंटरनेट की दुनिया में जो खजाना तैयार हो रहा है, उसमें एक है, टूटी हुई बिखरी हुई । समय के सीमा में बँधी कोई प्रासंगिता इस ब्लॉग की विवशता नहीं है। यह ब्लॉग हर समय प्रासंगिक है। दुर्लभ चित्र, कविताएँ, दस्तावेज और गीत हमेशा प्रासंगिक हैं।
ब्लॉग - टूटी हुई बिखरी हुई
URL - http://tooteehueebikhreehuee.blogspot.com/
ब्लॉग - सस्ता शेर
URL -www.ramrotiaaloo.blogspot.com
ब्लॉग - सिर्फ इरफान
URL - www.sirfirf.blogspot.com
ब्लॉग - भारत एक खोज
URL - www.ekbanjaragaaye.blogspot.com
Friday, January 25, 2008
वेब-दुनिया की ब्लॉग चर्चा में आपकी टूटी हुई का ज़िक्र
रवींद्रनाथ टैगोर की एक दुर्लभ छवि
यहाँ आज वेब दुनिया की आज की ब्लॉग चर्चा में टूटी हुई बिखरी हुई को चर्चा का विषय बनाया गया है.
Wednesday, January 23, 2008
यूँ तो आप मानेंगे नहीं लेकिन फिर भी कहता हूँ
यारों को ग़लत लिखने में अब कोई शर्म नहीं आती और जगह-बेजगह नुक़्तेबाज़ी करते हैं. नुक़्ता कहाँ हो, कहाँ न हो इस पर पहले भी ब्लॉगमहोपाध्यायों ने विचार किया है और आगे भी उन्हें कौन रोक सकता है!
दिल्ली का एक एफ़एम रेडियो-जॉकी नुक़्ते के मारों का दर्द समझते हुए उनका मनोबल बढाता है. उसी के शब्दों में-"मैं नुक्ते आपकी तरफ उछालता हूँ, जहाँ मर्जी आये लगा लीजियेगा."
यहाँ बीबीसी की तरफ़ से अचला शर्मा द्वारा संचालित एक पुस्तक से परिशिष्ट पेश कर रहा हूँ शायद काम आए.बडा करके देखने के लिये यहाँ मौजूद पृष्ठ की छवि पर दो बार क्लिक करें.
Saturday, January 19, 2008
मोहर्रम, शहादत और दुख का करुण गायन: सुनिये यह एक लाइफ़टाइम एक्सपीरिएंस साबित होगा
मोहर्रम के बारे में मुझे ज़्यादा कुछ मालूम नहीं है. बस यही कि ये हज़रत हसन-हुसेन की शहादत का महाशोक है. बचपन में मुझे साथ के बच्चों की तरह ये बहुत शौक़ था कि मैं भी मुहर्रम के ताज़िये देखूँ लेकिन ये अरमान 17 साल की उमर में इलाहाबाद आकर ही पूरा हुआ. जिन लोगों की भावनाएँ इस घडी से जुडी हैं उनका पूरा सम्मान करते हुए मैं आपके लिये पेश कर रहा हूँ शाकिरा ख़लीली की आवाज़ में इस दुख का कारुणिक साझा. मिथकों के साथ समकालीन संवेदना का ऐसा सामंजस्य मुझे दुर्लभ लगता है. इस बात से अलग एक और बात कि मानवकंठ कितनी जादुई संभावनाएं लिये रहता है.आज की मशीनी कुकिंग से गुज़रते और संगीत के शोर से बजबजाते गाने एक तरफ रखिये और शाकिरा ख़लीली की आवाज़ दूसरी तरफ...अब मुझे लिखिये कि कैसा लगा!
>Duration. 05Min 03Sec
Friday, January 18, 2008
Thursday, January 17, 2008
टिप्पणी भी बताती है आपकी शख़्सीयत
पहलू के संचालक चंद्रभूषण ने एक पोस्ट पर टिप्पणी की है. इसे पढकर मन एक बार फिर इस बात से सहमत हुआ कि-
बोलिये तो तब जब बोलिबै की जानि परै,
नहिं तो मौन गहि चुप ह्वै रहिये.
पोस्ट भले ही वैसी गूढ हो जैसी मार्तिनोव ने प्लेखानोव को सरल बनाने में बना दी थी लेकिन टिप्पणी यहाँ पेश की जाती है-
फिर से जुड़ना एक ख्वाहिश है फकत,
जिससे कि हर बार अपना होना होता है।
बकौल शमशेर (मोर ऑर लेस)-
लौट आ ओ धार
टूट मत ओ दर्द के पत्थर-
हृदय पर
लौट आ ओ फूल की पंखुड़ी
फिर फूल से लग जा...
(-चंद्रभूषण की टिप्पणी)
बोलिये तो तब जब बोलिबै की जानि परै,
नहिं तो मौन गहि चुप ह्वै रहिये.
पोस्ट भले ही वैसी गूढ हो जैसी मार्तिनोव ने प्लेखानोव को सरल बनाने में बना दी थी लेकिन टिप्पणी यहाँ पेश की जाती है-
फिर से जुड़ना एक ख्वाहिश है फकत,
जिससे कि हर बार अपना होना होता है।
बकौल शमशेर (मोर ऑर लेस)-
लौट आ ओ धार
टूट मत ओ दर्द के पत्थर-
हृदय पर
लौट आ ओ फूल की पंखुड़ी
फिर फूल से लग जा...
(-चंद्रभूषण की टिप्पणी)
Wednesday, January 16, 2008
...कौन सी दुनिया इंतज़ार कर रही है, उन दरवाज़ों के उस तरफ़ जिन्हें मैं कभी खोल नहीं पाया...
"कुछ नहीं, आज एक अजीब सी बात याद आई...मेरा स्कूल नदी के उस पार था. रोज़ एक छोटी सी नाव में उस पार जाना पडता था.जो नाव चलाता था उससे मेरी अच्छी दोस्ती थी. एक दिन हम नाव में स्कूल जा रहे थे, तभी हमने देखा कि मल्लाह नाव चलाने के बजाय अपने डंडे से एक चिडिया को उडा रहा है, पर चिडिया बार-बार उडकर वापस वहीं बैठ जाती है. मल्लाह का ग़ुस्सा बढता जा रहा था.हम सब डर गये क्यों कि नाव बुरी तरह हिल रही थी. मैंने कहा "अरे क्या कर रहे हो? नाव डुबोओगे क्या?" तो उसने कहा "अरे साहब इसे मुफ्त में नदी पार करने की आदत पड गई है." हम सब हँस दिये. इसके काफ़ी दिनों बाद हमने देखा, मल्लाह और चिडिया एक दूसरे से मुँह फेरकर बैठे हैं, मानो एक दूसरे से नाराज़ हों. फिर कुछ दिनों बाद देखा कि मल्लाह और चिडिया एक दूसरे से बात कर रहे हैं...मल्लाह लगातार कभी हँसता है कभी चिल्लाता है. सभी कहने लगे ये पागल हो गया है.मैंने उससे पूछ लिया "क्या कर रहे हो? पागल हो गये हो क्या? एक चिडिया से बात कर रहे हो?" तो वो कहने लगा-"मुझे तो लगता है आप सब लोग पागल हैं. अरे ये तो आप सब से बातें करना चाहती है.आप लोग इससे बात क्यों नहीं करते." हम उसे पागल समझ रहे थे और वो हम सबको. "
ये शब्द हैं उस नाटक के मुख्य पात्र भगवान के, जो भारत रंग महोत्सव, दिल्ली में कल शाम खेला जाएगा और आप में से ज़्यादातर लोग इस अभूतपूर्व नाटक को नहीं देख सकेंगे.नाटक है इल्हाम और इसे लेकर आया है बंबई का एक थियेटर ग्रुप. मानव कौल नाम के युवा अभिनेता और नाटककार की यह रचना कई मायनों में यह हक़ रखती है कि आप इसे देखें और उन बदक़िस्मत लोगों में न गिने जाएँ जिन्हें अपनी तीन-तिकडमों से फुर्सत नहीं मिलती.
हालाँकि दिल्ली का थियेटर सीन पिछ्ले कुछ बरसों से ऐसा नहीं रह गया हि कि कोई नाटक रिकमंड किया जाय. ख़ासकर एनएसडी ने जिस तरह संसाधनों और अपनी प्रिविलेज्ड पोज़ीशन का दुरुपयोग जारी रखा है उससे और भी मन खट्टा होता है.आपमें से जिन कई लोगों ने नाट्य सभागारों से मुँह फेर लिया है उसकी वजह भी यही सुनी जाती है कि स्कूल के नाटक संस्कृत और अंग्रेज़ी नाटकों के हज़ार बार फचीटे हुए एडैप्टेशंस हैं और उनमें समय के प्रश्न नहीं उठाए जाते.ये लोग जब इन बासी क्लासिकी प्रस्तुतियों से थक जाते हैं तो मदारी के करतब और गिमिक शुरू कर देते हैं. इस माहौल में इल्हाम एक बिल्कुल नई- समय के प्रश्नों और अद्यतन संवेदनाओं से पगी प्रस्तुति है.
यह एक मध्यवय के बैंक कर्मचारी की कहानी है. इसका नाम है-भगवान. भगवान उम्र के इस पडाव पर अपने होने के सवालों से जूझ रहा है. उसके इर्द-गिर्द मौजूद दुनिया, अपनी ही रफ़्तार में चली जा रही है जबकि उसे लगने लगता है कि वह उस रफ्तार में और अधिक अकेला होता जा रहा है.
"भीतर पानी साफ था...साफ़ ठंडा पानी...कुएँ की तरह. जब हम पैदा हुए थे...जैसे-जैसे हम बडे होते गये...हमने अपने कुएँ में खिलौने फेंके,शब्द फेंके, किताबें, लोगों की अपेक्षाओं जैसे भारी पत्थर और इंसान जैसा जीने के ढेरों खाँचे...और अब जब हमारे कुएँ में पानी की जगह नहीं बची है तो हम कहते हैं ये तो सामान्य बात है."
इस तरह भगवान सामान्य हो चली चीज़ों पर संदेह और यूँ होता तो क्या होता की एक सतत क़वायद में है. वह अपने बैंक में पेंशन लेने आनेवाली एक बूढी औरत को हर बार पाँच सौ रुपये ज़्यादा दे देता है क्योंकि उसने उसकी आह सुनी है. कहानी में हम भगवान को अक्सर देर से घर लौटते देखते हैं और बताया जाता है कि वह आजकल बैंक के पास ही एक पार्क में बैठता है, जहाँ बहुत से बच्चों को वो कहानियाँ सुनाता है, एक चाचा से बातें करता है और रोने जैसी धुनों पर नाचता है. इधर कई दिनों से वो घर नहीं लौटा है क्योंकि उसे डर है-
"...तृप्ति का डर...हाँ तृप्त हो जाने का डर...पापा कह रहे थे कि वो तृप्त हैं.जिस तृप्ति में सारी वजहें,इच्छाएँ ख़त्म हो जाती हैं.वो कह रहे थे -कोई भी वजह नहीं बची है...सिवाय एक वजह के कि मुझे वापस घर आना है...रोज़..."
भगवान अपने इर्द-गिर्द की ख़ूबसूरती पर भी हैरान है-
"...पर हम क्या करेंगे इतनी ख़ूबसूरती का...मैं कभी-कभी अपना सबसे ख़ूबसूरत सपना याद करता हूँ...मेरा सबसे ख़ूबसूरत सपना भी कभी बहुत ख़ूबसूरत नहीं था.मेरे सपने भी थोडी सी ख़ुशी में, बहुत सारे सुख चुगने जैसे हैं. जैसे कोई चिडिया अपना खाना चुगती है...पर जब उसे पूरी रोटी मिलती है तो भी वह उस पूरी रोटी को नहीं खाती...वो उस रोटी में से रोटी चुग रही होती है. बहुत बडे आकाश में हम अपने हिस्से का आकाश चुग लेते हैं...देखने के लिये हम बडा खूबसूरत आसमान देख सकते हैं पर जीने के लिये हम उतना ही आकाश जी पाएँगे जितने आकाश को हमने अपनी खिडकी से जीना सीखा है."
बदलते दौर में ये सब बातें तेज़ी से पागलपन की निशानी मानी जाने लगी हैं. अगर आप 'तृप्ति प्राप्त करने की होड' से बाहर हैं तो आपको विमहैंस का दरवाज़ा दिखाया जाएगा.
नाटक में कुमुद मिश्रा भगवान की भूमिका बडी ही सूझबूझ से निभा रहे हैं जबकि हर अभिनेता अपनी ख़ास उपस्थिति दर्ज कराता है. सेट्स बहुत सादा हैं और इसके सभी नाटकीय तत्व कथ्य को गरिमा देते हैं. जब तक मानव कौल जैसे लेखक-निर्देशक हैं तब तक हम जैसे लोग नाटक से निराश हो-होकर वापस आएँगे.
एक बेहद असहज करने वाला यह सर्वथा प्रासंगिक नाटक कल शाम देखा जा रहा होगा.
इल्हाम
एनएसडी का भारत रंग महोत्सव
17 जनवरी 2008
स्थान: बहुमुख, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, भगवानदास रोड, मंडी हाउस, नई दिल्ली (मेट्रो स्टेशन भी है)
शाम: छः बजे
-----------------------------------------
...कौन सी दुनिया इंतज़ार कर रही है
उन दरवाज़ों के उस तरफ़ जिन्हें
मैं कभी खोल नहीं पाया...
तभी मैंने एक अजीब सी चीज़ देखी
मैंने देखा मेरे माथे पर कुछ रेखाएँ बढ गयी हैं..अचानक...
अब ये रेखाएँ क्या हैं...क्या इनकी भी कोई नियति है अपने दरवाज़े हैं?...
नहीं...इनका कुछ भी नहीं है ये मौन की रेखाएँ हैं
मौन उन रेखाओं का जो मेरे हाथों में उभरी थीं
पर मैं उनके दरवाज़े कभी खोल ही नहीं पाया
सच ...मैने देखा है जब भी कोई रेखा मेरे हाथों से ग़ायब हुई है
मैने उसका मौन अपने माथे पर महसूस किया है.
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-नाटक "इल्हाम "से
ये शब्द हैं उस नाटक के मुख्य पात्र भगवान के, जो भारत रंग महोत्सव, दिल्ली में कल शाम खेला जाएगा और आप में से ज़्यादातर लोग इस अभूतपूर्व नाटक को नहीं देख सकेंगे.नाटक है इल्हाम और इसे लेकर आया है बंबई का एक थियेटर ग्रुप. मानव कौल नाम के युवा अभिनेता और नाटककार की यह रचना कई मायनों में यह हक़ रखती है कि आप इसे देखें और उन बदक़िस्मत लोगों में न गिने जाएँ जिन्हें अपनी तीन-तिकडमों से फुर्सत नहीं मिलती.
हालाँकि दिल्ली का थियेटर सीन पिछ्ले कुछ बरसों से ऐसा नहीं रह गया हि कि कोई नाटक रिकमंड किया जाय. ख़ासकर एनएसडी ने जिस तरह संसाधनों और अपनी प्रिविलेज्ड पोज़ीशन का दुरुपयोग जारी रखा है उससे और भी मन खट्टा होता है.आपमें से जिन कई लोगों ने नाट्य सभागारों से मुँह फेर लिया है उसकी वजह भी यही सुनी जाती है कि स्कूल के नाटक संस्कृत और अंग्रेज़ी नाटकों के हज़ार बार फचीटे हुए एडैप्टेशंस हैं और उनमें समय के प्रश्न नहीं उठाए जाते.ये लोग जब इन बासी क्लासिकी प्रस्तुतियों से थक जाते हैं तो मदारी के करतब और गिमिक शुरू कर देते हैं. इस माहौल में इल्हाम एक बिल्कुल नई- समय के प्रश्नों और अद्यतन संवेदनाओं से पगी प्रस्तुति है.
यह एक मध्यवय के बैंक कर्मचारी की कहानी है. इसका नाम है-भगवान. भगवान उम्र के इस पडाव पर अपने होने के सवालों से जूझ रहा है. उसके इर्द-गिर्द मौजूद दुनिया, अपनी ही रफ़्तार में चली जा रही है जबकि उसे लगने लगता है कि वह उस रफ्तार में और अधिक अकेला होता जा रहा है.
"भीतर पानी साफ था...साफ़ ठंडा पानी...कुएँ की तरह. जब हम पैदा हुए थे...जैसे-जैसे हम बडे होते गये...हमने अपने कुएँ में खिलौने फेंके,शब्द फेंके, किताबें, लोगों की अपेक्षाओं जैसे भारी पत्थर और इंसान जैसा जीने के ढेरों खाँचे...और अब जब हमारे कुएँ में पानी की जगह नहीं बची है तो हम कहते हैं ये तो सामान्य बात है."
इस तरह भगवान सामान्य हो चली चीज़ों पर संदेह और यूँ होता तो क्या होता की एक सतत क़वायद में है. वह अपने बैंक में पेंशन लेने आनेवाली एक बूढी औरत को हर बार पाँच सौ रुपये ज़्यादा दे देता है क्योंकि उसने उसकी आह सुनी है. कहानी में हम भगवान को अक्सर देर से घर लौटते देखते हैं और बताया जाता है कि वह आजकल बैंक के पास ही एक पार्क में बैठता है, जहाँ बहुत से बच्चों को वो कहानियाँ सुनाता है, एक चाचा से बातें करता है और रोने जैसी धुनों पर नाचता है. इधर कई दिनों से वो घर नहीं लौटा है क्योंकि उसे डर है-
"...तृप्ति का डर...हाँ तृप्त हो जाने का डर...पापा कह रहे थे कि वो तृप्त हैं.जिस तृप्ति में सारी वजहें,इच्छाएँ ख़त्म हो जाती हैं.वो कह रहे थे -कोई भी वजह नहीं बची है...सिवाय एक वजह के कि मुझे वापस घर आना है...रोज़..."
भगवान अपने इर्द-गिर्द की ख़ूबसूरती पर भी हैरान है-
"...पर हम क्या करेंगे इतनी ख़ूबसूरती का...मैं कभी-कभी अपना सबसे ख़ूबसूरत सपना याद करता हूँ...मेरा सबसे ख़ूबसूरत सपना भी कभी बहुत ख़ूबसूरत नहीं था.मेरे सपने भी थोडी सी ख़ुशी में, बहुत सारे सुख चुगने जैसे हैं. जैसे कोई चिडिया अपना खाना चुगती है...पर जब उसे पूरी रोटी मिलती है तो भी वह उस पूरी रोटी को नहीं खाती...वो उस रोटी में से रोटी चुग रही होती है. बहुत बडे आकाश में हम अपने हिस्से का आकाश चुग लेते हैं...देखने के लिये हम बडा खूबसूरत आसमान देख सकते हैं पर जीने के लिये हम उतना ही आकाश जी पाएँगे जितने आकाश को हमने अपनी खिडकी से जीना सीखा है."
बदलते दौर में ये सब बातें तेज़ी से पागलपन की निशानी मानी जाने लगी हैं. अगर आप 'तृप्ति प्राप्त करने की होड' से बाहर हैं तो आपको विमहैंस का दरवाज़ा दिखाया जाएगा.
नाटक में कुमुद मिश्रा भगवान की भूमिका बडी ही सूझबूझ से निभा रहे हैं जबकि हर अभिनेता अपनी ख़ास उपस्थिति दर्ज कराता है. सेट्स बहुत सादा हैं और इसके सभी नाटकीय तत्व कथ्य को गरिमा देते हैं. जब तक मानव कौल जैसे लेखक-निर्देशक हैं तब तक हम जैसे लोग नाटक से निराश हो-होकर वापस आएँगे.
एक बेहद असहज करने वाला यह सर्वथा प्रासंगिक नाटक कल शाम देखा जा रहा होगा.
इल्हाम
एनएसडी का भारत रंग महोत्सव
17 जनवरी 2008
स्थान: बहुमुख, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, भगवानदास रोड, मंडी हाउस, नई दिल्ली (मेट्रो स्टेशन भी है)
शाम: छः बजे
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...कौन सी दुनिया इंतज़ार कर रही है
उन दरवाज़ों के उस तरफ़ जिन्हें
मैं कभी खोल नहीं पाया...
तभी मैंने एक अजीब सी चीज़ देखी
मैंने देखा मेरे माथे पर कुछ रेखाएँ बढ गयी हैं..अचानक...
अब ये रेखाएँ क्या हैं...क्या इनकी भी कोई नियति है अपने दरवाज़े हैं?...
नहीं...इनका कुछ भी नहीं है ये मौन की रेखाएँ हैं
मौन उन रेखाओं का जो मेरे हाथों में उभरी थीं
पर मैं उनके दरवाज़े कभी खोल ही नहीं पाया
सच ...मैने देखा है जब भी कोई रेखा मेरे हाथों से ग़ायब हुई है
मैने उसका मौन अपने माथे पर महसूस किया है.
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-नाटक "इल्हाम "से
Monday, January 14, 2008
नैनो पर इरफान की टिप्पणी
Monday, January 7, 2008
द ग्रेट हिमालयन ब्लॉगर्स मीट
सत्रह ब्लॉगरों के सत्ताइस दुखडे सुनने-पढने के बाद यह बात आपको भले ही अच्छी न लगे कि तीन ब्लॉगर तेरह दुखडे भी न रो सके। लेकिन यह हुआ साल के आग़ाज़ के साथ, और कल ही वो यादगार ब्लॉगर मीट ख़त्म हुई है जो पिछले पाँच दिनों से चल रही थी। इसमें अशोक पांडे, मुनीश और मेरे अलावा चौथा ब्लॉगर हिमालय था. अशोक पांडे के दो पुराने दोस्त अपने बाल-बच्चों के साथ थे. दोनों कमांडर हैं : एक मिसाइल विशेषज्ञ है एक ध्वनि तरंगों पर काम करता है. और साथ थे मनोज भट्ट, जो हल्द्वानी में कम्प्य़ूटर का छोटा मोटा काम करते हैं और एक निवेदन पर मदद करने को आतुर और तत्पर रहते हैं.
उत्तरांचल की हरी-भरी वादियों में यह मिलन नये साल और दोस्ती की नई रस्में सेलीब्रेट करने का भी था. कोई कह नहीं सकता था कि यहाँ जुटे लोग एक दूसरे से पहली बार भी मिल रहे थे. समुद्र तल से कोई दो हज़ार मीटर ऊपर बने आशीष के सोनापानी रिसॉर्ट में सुविधाओं की तारीफ करने से ज़्यादा ज़रूरी यह पाया गया कि इन पाँच दिनों की पाँच रातों को जीने में सदियों के रंग घोल दिये जाएँ .
सुनसान वादी के गुलज़ार माहौल में एक हज़ार एक क़िस्सों से भरी ये ब्लॉगर मीट अपनी कुछ अविस्मरणीय यादें छोड गई. इसमें तारों से भरे आसमान के नीचे रात भर जलते अलाव हैं और रवींद्र संगीत के शाना-ब-शाना मीर-ग़ालिब और सस्तों के शेर हैं। शिवॉस रीगल रॉयल सैल्यूट की चुस्कियाँ और छोटी बडी बोतलों के ख़ाली कार्टन। और अशोक पांडे का कहना कि अपन की ओल्ड मांक अब भी सबसे शानदार. सेब, संतरो, आडुओं और माल्टों के बाग़ हैं. सुबह की चटख़ धूप में सामने खडा आवाज़ लगाता हिमालय और कान लगाए चीड, बाँझ और बुराँस के पेड हैं. एक पगडंडी है जिस पर रुक-रुक कर चलते टट्टू और सिर पर सूखी लकडियों के गठ्ठर उठाए ठिठकी औरतें हैं. ज़माने की नासाज़ियाँ और उन पर कभी हँसने और कभी गहरी फ़िक्रों की छापें हैं. लोग हैं जो अपनी ग़ैरमौजूदगी में भी हँसते-बोलते नज़र आते हैं. साधू और शैतान हैं जो अपने एकाकीपन में वक़्त की कभी वैसी भी पहचान देते हैं जैसी नानी-दादियों की कहानियों में होती थी. सने हुए नीबुओं के चटख़ारे और सतरंगी अचार हैं. नेरूदा, शिंबोर्स्का और हिटलर भी हैं. पनडुब्बियां हैं और उनमें काम करते फौजी हैं, जिन्हें इसलिये ख़ामोश बैठे रहना है ताकि वो ऑक्सीजन की खपत के ज़िम्मेदार न बनें. मान-अपमान की कहानियाँ और उन पर नवेली राय है. माल्टों की गेंद से खेलते बच्चे और पहाडी कुतिया से इश्क़ लडाता एक शहरी कुत्ता भी है. औरतें इस कडाके की सर्दी में इस बात से खुश हैं कि चलो अच्छा है दिल्ली की सर्दी में घरेलू कामों से आज़ादी है. और दूर बैठे आशीष अरोडा हैं जो हर पल यह ख़बर रख रहे हैं कि हमें कोई दिक़्क़त न हो. उदय प्रकाश, आलोकधन्वा और वीरेन डंगवाल के फ़ोन हैं जिन्हें इस पहाडी निस्तब्धता में बहुत साफ सुना जा सकता है. एक क्रिकेट मैच है जो घाटी में किन्हीं दो टीमों के बीच चल रहा है और लाउडस्पीकरों पर होने वाली कमेंटरी भी. अनजानी मंज़िलों की खडी चढाइयाँ हैं और गहरी खाइयों के बीच नमी में नहाए जंगली पौधे. अनदेखी चिडियाँ हैं और भालू के पंजे भी. पर्वतारोहण के लोमहर्षक क़िस्सों के बीच अशोक पांडे और उनकी ऑस्ट्रियाई पत्नी सबीने भी. इसमें मनोज भट्ट के पिता भी हैं जो गीज़र के पानी से नहाने के बजाय घर के बाहर आग जलाकर अपना पानी गरम करते हैं. फिर गप्पें हैं ...और सबसे ज़्यादा ज़िक्र अशोक पांडे की मेहमाननवाज़ी का क्यों किया जाना चाहिये.
चढाई से ठीक पहले
गहन दार्शनिक चर्चा में मशग़ूल मुनीश और अशोक पांडे
गहन दार्शनिक चर्चा जो ख़त्म ही नहीं होती
रानीखेत क्लब में एक ऐतिहासिक हस्ती बहादुर सिंह के साथ अशोक पांडे
रानीखेत का ऐतिहासिक होम फार्म
लौटते हुए नैनीताल
सोनापानी की एक नर्म धूप और मुनीश
माल्टे और मुनीश
सोनापानी के अपने कॉटेज के सामने मुनीश
इरफ़ान और मनोज भट्ट
इरफ़ान के पीछे गहरी घाटियाँ
सोनापानी के पीछे का हिस्सा
सोनापानी के कॉटेज
सोनापानी पुकारता है
हिमालय पर बादलों के छँटने का इंतज़ार
चाय की चुस्की के बीच हिमालय की चोटियाँ
जहाँ चार यार मिल जाएँ
रानीखेत क्लब में डेढ सौ साल पुराना फायर प्लेस
लौटते हुए पिलाट्टिक के शहर नैनीताल में मनोज भट्ट
जन्मदिन पर केक भी
...और एक वीडियो झलक अशोक पांडे के दार्शनिक अंदाज़ की
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