दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Wednesday, October 31, 2007

त्रिलोचन के साथ सुबह के कुछ घंटे और कुछ ब्लॉग्स पर मौजूद उनकी कविताएं

आज सुबह सीपीआईएमएल के महासचिव कॉमरेड दीपंकर भट्टाचार्य और साथियों के साथ हम त्रिलोचन से मिलने पहुंचे. वे इन दिनों वैशाली,ग़ाज़ियाबाद (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र,दिल्ली)में अपने बेटे के साथ रहते हैं.अभी कुछ दिनों पहले से ही यहां के एक स्थानीय यशोदा अस्पताल में इलाज कराते हुए वे अपने बेटे के साथ रह रहे हैं.स्मृति कुछ कम ही साथ दे रही है और दवाओं के असर में उनके हाथ और पैर सूजन से घिरे हैं लेकिन शब्द-चर्चा के दौरान उनके चेहरे पर अब भी वही उत्साह देखा जा सकता है. बनारस का ज़िक्र बार-बार आ जाता है और बनारस पहुंचने को उनका मन हुलसता है.नागार्जुन को याद करते हुए उन्होंने याद किया कि नागार्जुन को ज़िंदगी के आख़िरी बरसों में मछली खाने का जुनून सा था. यह भी कि नागार्जुन को जितनी मछलियों के नाम मालूम थे उतने शायद ही किसी को मालूम होंगे.
त्रिलोचन थके और बीमार तो थे लेकिन हमारी उपस्थिति के दौरान उन्होंने लेटना गवारा नहीं किया. उनके बेटे अमित का मानना था कि हमारे पहुंचने और हमारी बातों ने उन्हें थोड़ी ताज़गी दे दी है.यहां जो तस्वीरें हैं वो उनकी पोती पंखुड़ी की खींची हुई हैं.


बाएं से अज़दक, इरफ़ान, कॉ.दीपंकर भट्टाचार्य ,कवि त्रिलोचन,रामजी राय, सुवाचन यादव और प्रभात जी

बाएं से सत्या भाई, इरफ़ान, कॉ.दीपंकर भट्टाचार्य और कवि त्रिलोचन

पृष्ठभूमि में कॉ.दीपंकर,इरफ़ान,अज़दक और सामने की तरफ़ त्रिलोचन जी और इंडिया टुडे की कला संपादक सुवाचन यादव

बाएं से कॉ.दीपंकर भट्टाचार्य, त्रिलोचनजी और रामजी राय

बाएं से इरफ़ान, कॉ.दीपंकर भट्टाचार्य और कवि त्रिलोचन
त्रिलोचन

प्रियंकर के ब्लॉग से साभार

आज की हिंदी के शिखर कवि त्रिलोचन का जन्म 20 अगस्त 1917 को चिरानीपट्टी, कटघरापट्टी, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। अंग्रेजी में एम.ए.पूर्वार्ध तक की पढ़ाई बीएचयू से । इनकी दर्जनों कृतियाँ प्रकाशित हैं जिनमें धरती(1945), गुलाब और बुलबुल(1956), दिगंत(1957), ताप के ताए हुए दिन(1980), शव्द(1980), उस जनपद का कवि हूँ (1981) अरधान (1984), तुम्हें सौंपता हूँ( 1985) काफी महत्व रखती हैं। इनका अमोला नाम का एक और महत्वपूर्ण संग्रह है। त्रिलोचन की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह राजकमल प्रकाशन से छप चुका है। वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह के शव्दों में “उनका जितना प्रकाशित है उतना या कदाचित उससे अधिक ही अप्रकाशित है”।हिंदी में सॉनेट जैसी काव्य विधा को स्थापित करने का श्रेय मात्र त्रिलोचन को ही जाता है। आप त्रिलोचन को आत्मपरकता कवि भी मान सकते हैं। ‘भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल’ जैसी आत्मपरक पंक्तियाँ त्रिलोचन ही लिख सकते हैं। परंतु ऐसा नहीं है कि त्रिलोचन का काव्य संसार केवल आत्मपरकता तक ही सीमित है। शब्दों का सजग प्रयोग त्रिलोचन की भाषा का प्राण है ।
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त्रिलोचन जी की कुछ कविताएं
अस्वस्थ होने पर
मित्रों से बात करना अच्छा है
और यदि मुँह से बात ही न निकले तो
उतनी देर साथ रहना अच्छा है
जितनी देर मित्रों को
यह चुप्पी न खले।

बिस्तरा है न चारपाई है
बिस्तरा है न चारपाई है
जिन्दगी खूब हमने पाई है ।

अँधेरे में जिसने सर काटा
नाम मत लो हमारा भाई है ।

ठोकरें दर -ब -दर की थीं हम थे ,
कम नहीं हमने मुँह की खाई है ।

कब तलक तीर वे नही छूते ,
अब इसी बात पर लडाई है ।

आदमी जी रहा है मरने को
सबसे ऊपर यहीं सचाई है ।

कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम
धुन कहां वह संभल के आई है ।

कोइलिया न बोली
मंजर गए आम
कोइलिया न बोली

बाटो के अपने
हाथ उठाये

धरती
वसंती -सखी को बुलाये
पडे हैं सब काम
कोइलिया न बोली

पाकर नीम ने
पात गिराए
बात अपत की
हवा फैलाये
कहां गए श्याम
कोइलिया न बोली ।
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हमारा देश तुम्हारा देश से साभार
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त्रिलोचन के कुछ सॉनेट
जनपद का कवि
उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,नंगा है,
अनजान है, कला–नहीं जानता कैसी होती है क्या है,
वह नहीं मानता कविता कुछ भी दे सकती है।
कब सूखा है उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता सकता है।
वह उदासीन बिलकुल अपने से,अपने समाज से है;
दुनिया को सपने सेअलग नहीं मानता,
उसे कुछ भी नहीं पता दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची;
अब समाज में वे विचार रह गये नही हैं
जिन को ढोता चला जा रहा है वह,
अपने आँसू बोता विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण सुन पढ़ कर,
जपता है नारायण नारायण।

भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझे था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी नहीं;
झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को ।
जाकर पूछा ‘भिक्षा से क्या मिलता है। ‘जीवन।’
‘क्या इसको अच्छा आप समझते हैं ।’
‘दुनिया में जिसको अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं,
छूछा पेट काम तो नहीं करेगा ।’
'मुझे आप से ऎसी आशा न थी ।’
‘आप ही कहें, क्या करूं, खाली पेट भरूं,
कुछ काम करूं कि चुप मरूं, क्या अच्छा है ।’ जीवन जीवन है प्रताप से, स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था, यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।

कुछ अन्य कवितायें
आत्मालोचन
शब्द मालूम है व्यर्थ नहीं जाते हैं
पहले मैं सोचता था उत्तर यदि नहीं मिले
तो फिर क्या लिखा जाए
किन्तु मेरे अन्तर निवासी ने मुझसे कहा- लिखा कर
तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने कभी तुझे
एक साथ सत्य शिव सुन्दर को दिखा जाए
अब मैं लिखा करता हूँ अपने अन्तर की अनुभूति
बिना रँगे चुने कागज पर बस उतार देता हूँ ।


आछी के फूल
मग्घू चुपचाप सगरा के तीर बैठा था
बैलों की सानी-पानी कर चुका था
मैंने, बैठा देखकर पूछा,बैठे हो, काम कौन करेगा.
मग्घू ने कहा, काम कर चुका हूं नहीं तो यहां बैठता कैसे,
मग्घू ने मुझसे कहा,लंबी लंबी सांस लो,
सांस ले ले कर मैंने कहा,सांस भी ले ली,बात क्या है,
आछी में फूल आ रहे हैं,मग्घू ने कहा,
अब ध्यान दो,सांस लो,कैसी महक है.
मग्घू से मैंने कहा,बड़ी प्यारी मंहक है
मग्घू ने पूछा ,पेड़ मैं दिखा दूंगा,
फूल भी दिखा दूंगा.आछी के पेड़ पर जच्छ रहा करते हैं
जो इसके पास रात होने पर जाता है,
उसको लग जाते हैं,सताते हैं,वह किसी काम का नहीं रहता.
इसीलिये इससे बचने के लिये हम लोग इससे दूर दूर रहते हैं

पीपल
मिट्टी की ओदाई ने पीपल के पात की
हरीतिमा को पूरी तरह से सोख लिया था
मूल रूप में नकशापात का,बाकी था,
छोटी बड़ी नसें,वृंत्त की पकड़ लगाव दिखा रही थी
पात का मानचित्र फैला था
दाईं तर्जनी के नखपृष्ठ की चोट दे दे कर
मैंने पात को परिमार्जित कर दिया
पीपल के पात में आदिम रूप अब न था
मूल रूप रक्षित था मूल को विकास देनेवाले हाथ
आंखों से ओझल थे पात का कंकाल भई मनोरम था,
उसका फैलाव क्रीड़ा-स्थल था समीरण का
जो मंदगामी था पात के प्रसार को कोमल कोमल परस से छूता हुआ.
काकेश के ब्लॉग से साभार
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चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती
चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से
कैसे ये सब स्वर निकला करते हैं.
चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गाय भैसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है
चम्पा अच्छी है चंचल है

न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ - अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ
चम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चम्पा चुप हो जाती है

उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें

चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ूंगी तुम तो कहते थे
गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूंगी
मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!
चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो ,
देखा ,हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूंगी

कलकत्ता पर बजर गिरे।
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काकेश के ब्लॉग से साभार
धरती से 1945

Monday, October 29, 2007

ब्लॊगलिखी की पॊडलिखी


काग़ज़ पर छपे हुए शब्दों से ब्लॊग पर छपे शब्दों तक बहुत कुछ है जिस पर कभी हमारी नज़र पड़ती है तो कभी नहीं. इधर हिंदी ब्लॊग्स में थोड़ी हलचल शुरू हुई तो प्रिंट पब्लिकेशंस का ध्यान इस ओर भी गया.आज कोई आधा दर्जन महत्वपूर्ण प्रिंट पब्लिकेशंस ब्लॊग्स राउंड अप छाप रहे हैं. अपने अविनाश भाई के जी की जलन तो प्रिंट से लेकर ब्लॊग तक और टीवी से लेकर पॊडकास्ट तक, बुझाए नहीं बुझती.
सच है ऐसी ही रेस्टलेस सोल्स बिगड़ी बनाती हैं.

वो जनसत्ता में भी इधर कुछ हफ़्तों से ये बताने में लगे हैं कि ब्लॊग कितने कमाल का माध्यम है. मुझे भी यह रोग उन्होंने ही लगाया है. मैं उनका आभारी हूं और यह पोस्ट उनके उपकारों के प्रति एक श्रंद्धांजलि भी है.


तो भाइयो पेश है अविनाश जी की ब्लॊगलिखी की पॊडलिखी. इसलिये कि इंग्लैंड में बैठे अनामदास और कनाडा में रहे उड़न तश्तरी के लिये तो छोडिये लखनऊ में भाई प्रभात और हल्द्वानी में भाई अशोक तक नहीं जान सके होंगे कि आज जनसत्ता में क्या ब्लॊग राउंड अप क्या छपा. और इससे भी बड़ी बात यह है कि यह अविनाश जी का लिखा एक ऐसा लेख है जिससे गुज़रे ज़माने के मेलों की संस्कृति का एक झरोखा हम पर खुलता है. मैं जब स्कूल में था तो हमें सोनपुर के मेले से जुड़ा एक पाठ पढ़ाया जाता था. सो जब बिहार पहुंचा तो उसी साल पड़े सोनपुर के मेले में जा धमका. इस मेले की मेरी भी कई रोमांचक स्मृतियां है. सुनिये और कहिये क्या ये सिर्फ़ ब्लॊगलिखी है या ब्लॊग्स से उनकी अपेक्षाओं का आईना भी?
विवरण में बस एक सुधार यह है कि मैंने अफ़लातून भाई की मांग पर ठीक वही गीत नहीं बल्कि उसी के पासपड़ोस का गीत पेश किया था.
रही बात नौटंकी की, तो मैं अभी पिछले हफ़्ते नौटंकी की ज़मीन से होकर ही लौटा हूं. कहते हैं कि गुलाब बाई की शोहरत के नीचे नंबरादार, तिर्मोहन, बांके और परसुराम भी दब गये. आप गुलाबबाई को तो जानते हैं लेकिन कृष्णाबाई को नहीं. जबकि गुलबिया-किसनिया वैसा ही शब्द-युग्म था जैसे आज लता-आशा. क़न्नौज के मकनपुर ने जो नौटंकियां देखी हैं उनके आगे आज की नौटंकियां थूकने के क़ाबिल भी नहीं हैं, ये बात मैं नहीं बीस साल तक तिरमोहन की नौटंकी कंपनी मे फ़रहाद का रोल कर चुके जुम्मन क़साई का कहना है जो अब बस दुनिया की बरबादियों पर हिक़ारत से मुंह फेर लेते हैं.

बहरहाल लीजिये ्सुनिये कि आज जनसत्ता में अपने नियमित कॊलम ब्लॊगलिखी में अविनाश भाई ने क्या लिखा है...आवाज़ हमारे परम मित्र मुनीष की है जिन्हें आप अज़दक से बात करते हुए पहले यहीं सुन चुके हैं.

Monday, October 22, 2007

लीजिये आ गया मुर्मू के मुँडारी गीत का हिंदी अनुवाद

मुर्मू माझी: गीत
कल जब मैंने मुर्मू माँझी से आपका परिचय कराया तो उनके गाये गीत का अनुवाद भी देने का वादा किया था. देर के लिये माफी के साथ पेश है इस अद्भुत गीत का हिंदी अनुवाद.

इबीबो बोइरो सीडूम डीडां
बराबोर जिंगोई रों
बोरचिंग रोइरो सीडूम डीडां
बोराबीं बीबोई रोडां

दगागी बीवई सीसा हीडां
बरांडा हांडू डाऊला
गोरची ऊंहई सीसांही
बरांडा हांडू डाऊला

इजाबी बीवई सीसा डीडां
बरांडा हांडू डाऊला
बोरची नू हई सीसांही
बरांडा हांडू डाऊला

वलई तदीन डापोर चींडां
अली गली ऊं गइयो
कालई चडीन डापोर चींडां
अजीन्डो होनीन्डोगई

इसीडी कैलिन मानीन्डीडां
वलंगई कदू बोरची
बोरची नू अई यकूम ऐन्डा
कईडा रई जेनूम डागूई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
कारां येम्बाडा मेंहों

ना वोई ये, ना वोई ये
इयारा वोई ये वो ईये
खई डारई जेंमिन डगोई

इबीबो बोइरो सीडूम डीडां
बराबोर जिंगोई रों
बोरचिंग रोइरो सीडूम डीडां
खई डारई जेंमिन डगोई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
खई डारई जेंमिन डगोई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
कारां येम्बाडा मेंहों
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-----------------------
जीवन की अब दास्तान
क्या कहूं

जीवन
खुद ही दास्तान है
मुझे बन्दे की क्या औकात

गोर्की जैसे महालेखक
तक खाक में तमाम हुए
स्याही का काम करते हुए

कहती थी मां मेरी
मरते दिन तक
बोर्ची जैसा लोकगायक
बाढ़ में बह गया

गलियों में
फकीर भी गाता था
ढपोरशंखी कम कर बन्दे
खुदा देख रहा है

बोर्ची तो
कहता गया
बोर्ची तो कहता ही गया
गाता जाएगा जीवन को

न ये सही न वो सही
वो असल में ये
और ये असल में वो है
खड्ड में डालो बाकी बातों को

न ये सही न वो सही
वो असल में ये
और ये असल में वो है
ऐसी क्या मगजमारी करते हो

जीवन की दास्तान
क्या कहूं
जीवन
दोहराता जाता है खुद को

जीवन ने क्या सिखाया:
सबको बराबर ज्ञान है बन्धु
चाहे वह रहे कहीं

खड्ड में डालो बाकी बातों को
न ये सही न वो सही
वो असल में ये और ये असल में वो है

ऐसी क्या मगजमारी करते हो
न ये सही न वो सही
वो असल में ये और ये असल में वो है

खड्ड में डालो बाकी बातों को

मूल मुंडारी गीत का हिंदी अनुवाद: अशोक पाँडे

Sunday, October 21, 2007

मुर्मू मांझी यानी भारत में संगीत की संभावनाएं कम हैं


ग्यारह साल का मुर्मू मांझी(पीछे बाएं से दूसरा)अपने दोस्तों के साथ
मुर्मू मांझी का बचपन झारखंड के हज़ारीबाग़ ज़िले में बीता. हेसालांग नाम की इस कोयला खदान में कब और कैसे उसे गाने की धुन सवार हुई, ये कोई नहीं जानता. हालांकि सब ये जानते हैं कि आदिवासी जीवन में संगीत स्वाभाविक है. टीवी वहां भी है और इंडियन आइडल वहां भी देखा जाता है. नया राज्य बनने के बाद ये उम्मीद की जा रही थी कि युवा प्रतिभाओं के प्रोत्साहन के लिये सरकार कुछ करेगी लेकिन मुर्मू का संघर्ष इस उम्मीद को ठेस पहुंचाता है. यहां सवाल यह भी है कि बाज़ारीकरण के बीच क्या सचमुच संगीत का लोकतांत्रीकरण हुआ है, और युवा गायकों के लिये प्रस्फुटन के नये क्षेत्र खुले हैं!

अपनी धुन में मगन मुर्मू
बहरहाल,बचपन से ही मुर्मू धूल उड़ाती कोयले से लदी ट्रकों के गुज़रते क़ाफ़िले की ओट में अपनी मस्ती के सुर बिखेरता, जिसे उसके दोस्तों के बीच सारी शिकायतों के बावजूद सराहा जाता. मुर्मू जब जवान हुआ तो उसे एक कोलियरी में ट्रक लोड करने वाले गैंग में मज़दूरी मिल गई. सोलह लोग मिलकर एक ट्रक भरते तो हर किसी के हाथ चालीस रुपये लगते. मां बचपन में ही सांप काटने से मर चुकी थी और पिता चिड़ियां पकड़कर कर पास के बाज़ार में बेचते. कमाई इतनी तो हो ही जाती थी कि अपना और अपनी बेटी रोप्ती का पेट भर सके. चिंता कुछ नहीं थी.

मुर्मू के पिता और बहन रोप्त
मुर्मू ख़ुद कमाता ही था. उसका भी क्या ख़र्च! उसने अपनी कमाई से पैसे बचाने शुरू किये और जब इतने पैसे हो गये कि वो बंबई जा सके तो उसने एक रात कोलियरी के पिछवाड़े से गुज़रते हुए वहां पड़ी बेशुमार राख के ढेर में अपनी बिना बुझी बीड़ी फेंक दी. ये हेसालांग को उसका आखिरी झटका था. एक धीमी आग जो आज भी वहां धुआं छोड़ रही है,वो मुर्मू की लगाई हुई है.

मुर्मू की पत्नी गेउनी का ताज़ा फ़ोटो,ये अब अपने भाई के साथ मुर्मू से मिलने जा रही है
बहरहाल उसी रात वो बंबई पहुंच गया. मुर्मू को अच्छी तरह मालूम था कि वह कुछ स्वनामधन्य गायकों से क्यों मिल रहा है. हिमेश रेशमिया उस वक़्त अपने सीडी प्लेयर पर ओउम भूर्भुवः स्व: का प्रख्यात वर्ज़न सुन रहा था और आंखे मीचे अपने मोबाइल पर अपने अहमदाबाद वाले साढू से शेयर के दामों पर अपनीं चिंताएं शेयर कर रहा था. कुमार सानू और उदित नारायण को अपने बढ़ते मोटापे के लिये कसरत करते देखकर वो पिछली शाम आया था. अनु मलिक और ए.आर.रहमान ने उसको डांटा तो नहीं लेकिन अनु मलिक जिस नये गायक को लेना चाहता था उसे अचानक मेलबर्न जाना पड़ गया था और ए.आर.रहमान ने जिस फ़ार्म हाउस के लिये अस्सी करोड़ रुपये जिस मुकाटीवाला को दिये थे वो अब फ़ोन नहीं उठा रहा था. दोनों की चिंताओं को भांपते हुए मुर्मू ने सोनू निगम से मिलना तय किया. सोनू निगम अपने ज्योतिष के घर बैठा हुआ था. ज्योतिष उसे दो मुट्ठी चावल दान करवाने की कहकर अपने लैपटॉप की लीड ठीक करने लगा था. चावल माता वैष्णों रानी की देहरी पर चढ़ाए जाने थे और मुश्किल ये थी कि सोनू कैसे वहां जाएगा. सोनू ने कैलाश खेर से इस बारे में राय मांगी तो उसने झट रास्ता बताया. म्यूज़िक टुडे का सर्कुलेशन मैनेजर उन दिनों वैष्णों देवी के मंदिर में भंडारा कराने गया हुआ था. कैलाश ने फ़ोन पर मखीजा से कह दिया कि वो सोनू के लिये दो मुट्ठी चावल चढा दे. मुर्मू को हेसालांग की कुलदेवी याद आई और अपने पुराने कुटुंबी भी...मुर्मू ने अब और अधिक भटकना नहीं चाहा और कल्याण में एक डॉर्मेटरी लेकर पड़ा रहा. एक दिन उसी डॉर्मेटरी में एक प्रख्यात संगीतकार आया. लोगों ने बताया कि वो दुनिया भर में जाना जाता है. उसका नाम अली फ़र्कातूरे था. मुर्मू ने एक नज़र उसे देखा फिर चारपाई पर पसर गया. दोनों हथेलियों का फ़ंदा बनाकर उन्हें सिर के नीचे लगाया. सोचने को कुछ खास नहीं था. हथेलियों के तकिये पर अधलेटा मुर्मू गाने लगा. अली फ़र्कातूरे ने अपने बिना मोज़ेवाले पैर जूतों से निकाले और अपना गिटार टुनटुनाने लगा. जल्द ही एक अद्भुत संगीत रचना ने जन्म लिया. पांच सात मिनट बाद जब गाना खतम हुआ तो अली फ़र्कातूरे ने अपने रकसैक से पानी की बोतल निकाली, मुर्मू ने खइनी का एक तिनका उंगली से निकाल कर अपनी आस्तीन से पोंछा---दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कराए.

मुर्मू का संगीत आज इसी लोगो से दुनिया भर में जाना जाता ह
फ़रवरी की २२ तारीख़ को मुर्मू अली फ़र्कातूरे के साथ माली पहुंच गया. वहां उसे बहुत से गाने वाले बजानेवाले मिले. उनके साथ गाता बजाता मुर्मू आज एक बड़ा स्टार है. झारखंड के किसी थाने में उसकी गुमशुदगी की कोई रपट दर्ज नहीं है अलबत्ता कोलियरी में भीतर ही भीतर सिसकती आग किसने लगाई इसकी तफ़्तीश चल रही है. आग कब बुझेगी किसी को पता नहीं.
आपको सुनाते हैं मुर्मू मांझी का गाया ये हिट गीत.
यहां इसका ट्रांसक्राइब्ड टेक्स्ट दिया जा रहा है और साथ में अनुवाद भी.

इबीबो बोइरो सीडूम डीडां
बराबोर जिंगोई रों
बोरचिंग रोइरो सीडूम डीडां
बोराबीं बीबोई रोडां

दगागी बीवई सीसा हीडां
बरांडा हांडू डाऊला
गोरची ऊंहई सीसांही
बरांडा हांडू डाऊला

इजाबी बीवई सीसा डीडां
बरांडा हांडू डाऊला
बोरची नू हई सीसांही
बरांडा हांडू डाऊला

वलई तदीन डापोर चींडां
अली गली ऊं गइयो
कालई चडीन डापोर चींडां
अजीन्डो होनीन्डोगई

इसीडी कैलिन मानीन्डीडां
वलंगई कदू बोरची
बोरची नू अई यकूम ऐन्डा
कईडा रई जेनूम डागूई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
कारां येम्बाडा मेंहों

ना वोई ये, ना वोई ये
इयारा वोई ये वो ईये
खई डारई जेंमिन डगोई

इबीबो बोइरो सीडूम डीडां
बराबोर जिंगोई रों
बोरचिंग रोइरो सीडूम डीडां
खई डारई जेंमिन डगोई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
खई डारई जेंमिन डगोई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
कारां येम्बाडा मेंहों
--------------
और अब मुंडारी भाषा के इस गीत का अनुवाद.

जीवन की अब दास्तान
क्या कहूं

जीवन
खुद ही दास्तान है
मुझे बन्दे की क्या औकात

गोर्की जैसे महालेखक
तक खाक में तमाम हुए
स्याही का काम करते हुए

कहती थी मां मेरी
मरते दिन तक
बोर्ची जैसा लोकगायक
बाढ़ में बह गया

गलियों में
फकीर भी गाता था
ढपोरशंखी कम कर बन्दे
खुदा देख रहा है

बोर्ची तो
कहता गया
बोर्ची तो कहता ही गया
गाता जाएगा जीवन को

न ये सही न वो सही
वो असल में ये
और ये असल में वो है
खड्ड में डालो बाकी बातों को

न ये सही न वो सही
वो असल में ये
और ये असल में वो है
ऐसी क्या मगजमारी करते हो

जीवन की दास्तान
क्या कहूं
जीवन
दोहराता जाता है खुद को

जीवन ने क्या सिखाया:
सबको बराबर ज्ञान है बन्धु
चाहे वह रहे कहीं

खड्ड में डालो बाकी बातों को
न ये सही न वो सही
वो असल में ये और ये असल में वो है

ऐसी क्या मगजमारी करते हो
न ये सही न वो सही
वो असल में ये और ये असल में वो है

खड्ड में डालो बाकी बातों को

मूल मुंडारी गीत का हिंदी अनुवाद: अशोक पाँडे
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वैधानिक घोषणा: इस वृत्तांत के सभी पात्र काल्पनिक हैं. किसी भी व्यक्ति, स्थान या घटना का सादृश्य मात्र संयोग माना जाए.
माफ़ीनामा: अज़दक, बाबा माल और अली फ़र्कातूरे से.

Saturday, October 20, 2007

धरती माता जागो


सुनिये दिनेश कुमार शुक्ल की एक और छंद सघन रचना खुद उनकी ही आवाज़ में.
दिनेश जी की तिलस्म और मालगाड़ी और बंदर चढ़ा है पेड़ पर भी यहां आप सुन चुके हैं.

Sunday, October 7, 2007

इंतज़ार ख़त्म : अब अज़दक हैं आपके साथ, आज की फ़िल्मों से आपकी बेज़ारी बढाते हुए

हिंदी फ़िल्मों को लेकर अज़दक के पास कहने को बहुत कुछ है. परसों हमने उनकी बातों को रिकॉर्ड करके कोशिश की है कि उनकी राय आप तक उनकी आवाज़ में पहुंचे जिसमें उनका ख़ास अंदाज़ भी शामिल हो. तो वादे के मुताबिक़ पेश है सात छोटे-छोटे हिस्सो में पूरी बातचीत, इनमें से जिन दो छोटे हिस्सों को कल-परसों में मैं बतौर टीज़र सुना चुका हूं उन्हें सुनते हुए आप दोहराव के लिये मुझे माफ़ करेंगे. बातचीत की शुरुआत मुनीश ने की है जिसके आरंभ में मैं कुछ अदाकारी दिखा रहा हूं.
मुनीश external services division की हिंदी सेवा के एक युवा ब्रॉड्कास्टर हैं और दिल्ली में रहते हैं.देशी-विदेशी फ़िल्मों और साहित्य के अलावा उन्हें सैर और शराब का ख़ासा शौक़ है.अभिनय वे स्वाभाविक रूप से करते हैं-मंच पर और मंच से परे भी.हमारी दोस्ती की वजह यह सहमति है कि आजकल-
शान के लोग दुनिया में कम रह गये,
एक तुम रह गये एक हम रह गये.

अज़दक के बारे में आप जो जानते हैं, उससे अलग बस इतना कहूंगा कि तेइस साल पहले मेरी उनसे मुलाक़ात हुई थी.( उसी दौर की उनकी एक तस्वीर यहां पेश कर रहा हूं) इलाहाबाद की सांस्कृतिक हलचलों के बीच मैंने उनसे बहुत कुछ सीखने की कोशिश की है और आज भी कर रहा हूं. लंबे समय तक विमलभाई और प्रमोदभाई(पढ़ें अज़दक) का इलाहाबाद के सोहबतिया बाग़ का कमरा मेरा दूसरा घर रहा. गर्मियों की कई ख़ामोश दोपहरें याद करूं तो याद आता है साइकिल चलाते हुए मेरा सोबतिया बाग़ पहुंचना. आज सोचूं तो लगता है कि कोई और जगह थी, कोई और जनम थाजहां मैं इतना चार्ज्ड माहौल पाया करता था. और सोचूं कि क्या मुझे विमलभाई-प्रमोदभाई के डेरे पहुंचने में कोई प्रयास करना होता था? क्या मैं आंख मूंदकर भी साइकिल चलाऊं तो सोबतिया बाग़ नहीं पहुंच सकता था? विमलभाई-प्रमोदभाई नाम युग्म कुछ अब्दुलभाई-सत्तारभाई इतरवाले या राजन-साजन मिश्र जैसा लगता है.इस बातचीत के दौरान मुझे कई बार इलाहाबाद फ़िल्म सोसायटी में साथ-साथ फ़िल्में देखने के बाद यूनिवर्सिटी रोड पर चाय टकराते हुए हुई सरगर्म चर्चाएं याद हो आई.
बहरहाल, आपको अपनी भावुकता(ऐसा ही प्रमोदभाई कहते हैं)से बोर नहीं करते हुए छोड़ता हूं इस बातचीत के साथ.
Recorded on 5th October 2007, 7:30PM, New Delhi







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Saturday, October 6, 2007

अज़दक की बोलती-गाती आवाज़


मुनीश अपनी आदत से बाज़ नहीं आते हैं और चलते-चलते अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा पर फ़िल्मी गीतों को भारी कहते हुए उन्होंने ये बात साबित की. बात अज़दक से हो रही हो तो उन्हें फूंक-फूंक कर क़दम रखना चाहिये लेकिन मुनीश अगर मुनीश हैं तो अज़दक भी कम नहीं, बड़ी ही ख़ास अदा से उन्होंने मामले को बिगड़ने नहीं दिया और एक गीत सुनाया-अधूरा ही सही. मूल गीत यहां सुनें. और अज़दक को नीचे. अज़दक पॉडकास्टस श्रंखला जारी है.





Friday, October 5, 2007

सुनिये अज़दक को पहली बार इस पॉडकास्ट में

प्रमोद सिंह अपने बेबाक विचारों के लिये ख़ासे चर्चित हैं. आप उनके दो चिट्ठों अज़दक और सिलेमा पर उन्हें पढ़ते ही रहते हैं. आजकल भाई अज़दक दिल्ली में हैं और मैं उनके सानिध्य का लाभ उठाता हुआ अपने पुराने इलाहाबादी दिनों की यादें ताज़ा कर रहा हूं (यह पढ़कर कई सीनों पर सांप लोटने लगे क्या? ) बहरहाल, आप जानते हैं कि अज़दक के पास फ़िल्मों को लेकर कहने को बहुत कुछ है. हमने उनके दिल्ली प्रवास का लाभ उठाते हुए अभी दो घंटे पहले एक लंबी बातचीत रिकॉर्ड की है जो मौजूदा सिनेसीन और आगे-पीछे के हिंदुस्तानी फ़िल्मी ्सफ़रनामें से ताल्लुक़ रखता है.बातचीत का टीज़र आप तक पहुंचा रहा हूं अगर कुछ दिलचस्प लगा और आपने यह पाया कि बातचीत के इस बीच के टुकड़े के इधर और उधर क्या बात हुई होंगी, जाना जाये- तो आपके लिये बाक़ी टुकड़े भी जारी किये जाएंगे.
बातचीत मुख्य रूप से भाई मुनीश शर्मा कर रहे हैं जो कि आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा के युवा सीज़ंड ब्रॉडकास्टर और सस्ता शेर के एक नियमित सितारे हैं.बीच बीच में लकड़ी करते हुए आप मुझे भी सुनेंगे. हालांकि मेरा बीच में होना इस कसरत के एक हिस्से के रिकॉर्ड न हो सकने का कारण बना है जिसके लिये थोड़ा ज़िम्मेवार मुनीश हैं और ज़्यादा मैं, जो कि बातचीत में शामिल होने का लोभ संवरण नहीं कर पाया और पैनेल से उठने की चूक कर बैठा.
जो नहीं हो सका उसका ग़म न करते हुए आइये सुनिये कि अपनी बात रखने के लिये प्रमोद भाई किस अंदाज़ और आवाज़ में बरामद होते है. बिल्कुल पहली बार सुनिये अज़दक को बोलते हुए.






Wednesday, October 3, 2007

बंदर चढ़ा है पेड़ पर करता टिली-लिली...




सुनिये दिनेश कुमार शुक्ल की एक और कविता. दिनेश जी की एक कविता आप यहां पहले भी सुन चुके हैं।

बंदर चढ़ा है पेड़ पर करता टिली-लिली...

यहां प्ले को चटकाएं और कविता सुनें.