दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Friday, October 5, 2007

सुनिये अज़दक को पहली बार इस पॉडकास्ट में

प्रमोद सिंह अपने बेबाक विचारों के लिये ख़ासे चर्चित हैं. आप उनके दो चिट्ठों अज़दक और सिलेमा पर उन्हें पढ़ते ही रहते हैं. आजकल भाई अज़दक दिल्ली में हैं और मैं उनके सानिध्य का लाभ उठाता हुआ अपने पुराने इलाहाबादी दिनों की यादें ताज़ा कर रहा हूं (यह पढ़कर कई सीनों पर सांप लोटने लगे क्या? ) बहरहाल, आप जानते हैं कि अज़दक के पास फ़िल्मों को लेकर कहने को बहुत कुछ है. हमने उनके दिल्ली प्रवास का लाभ उठाते हुए अभी दो घंटे पहले एक लंबी बातचीत रिकॉर्ड की है जो मौजूदा सिनेसीन और आगे-पीछे के हिंदुस्तानी फ़िल्मी ्सफ़रनामें से ताल्लुक़ रखता है.बातचीत का टीज़र आप तक पहुंचा रहा हूं अगर कुछ दिलचस्प लगा और आपने यह पाया कि बातचीत के इस बीच के टुकड़े के इधर और उधर क्या बात हुई होंगी, जाना जाये- तो आपके लिये बाक़ी टुकड़े भी जारी किये जाएंगे.
बातचीत मुख्य रूप से भाई मुनीश शर्मा कर रहे हैं जो कि आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा के युवा सीज़ंड ब्रॉडकास्टर और सस्ता शेर के एक नियमित सितारे हैं.बीच बीच में लकड़ी करते हुए आप मुझे भी सुनेंगे. हालांकि मेरा बीच में होना इस कसरत के एक हिस्से के रिकॉर्ड न हो सकने का कारण बना है जिसके लिये थोड़ा ज़िम्मेवार मुनीश हैं और ज़्यादा मैं, जो कि बातचीत में शामिल होने का लोभ संवरण नहीं कर पाया और पैनेल से उठने की चूक कर बैठा.
जो नहीं हो सका उसका ग़म न करते हुए आइये सुनिये कि अपनी बात रखने के लिये प्रमोद भाई किस अंदाज़ और आवाज़ में बरामद होते है. बिल्कुल पहली बार सुनिये अज़दक को बोलते हुए.






5 comments:

Anonymous said...

भई बड़ा छोटा था. इतनी अच्छी चीज़ और इतनी कम. जारी रखें.

अनामदास said...

प्रमोद भाई
इस पॉडकास्ट में बहुत मार्के की बात कर रहे हैं, एनएफ़डीसी के पैसे कुछ ठीक-ठीक और लीक से हटकर फ़िल्में बनीं लेकिन उनमें से कोई बेहतरीन फ़िल्म नहीं थी. वंचित, भूखे-प्यासे समझदार दर्शकों के लिए वही ओस की बूंद थी, भारत में सिनेमा जब तक मनोरंजन के संकीर्ण परिभाषा से बाहर निकलेगा तब तक बात नहीं बनेगी. कैसे निकलेगा, कौन निकालेगा, कब निकलेगा, प्रमोद जी से ही पूछिए...

chavannichap said...

zaroor sunayen aur use shabdon mein bhi pesh karen.aap ki mehnat aur lagan ke liye shubhkaamnayen.

रवि रतलामी said...

पॉडकास्टों की डाउनलोड कड़ी भी दिया करें. जिससे हार्डडिस्क में सहेज कर फुरसत (भले ही न मिलती हो,) के समय या कहीं जा-आ रहे हों तो सुना जा सके.

Rajendra said...

भाई मजा आ गया सामान्तर सिनेमा पर बेबाक और सटीक टिप्पणी सुन कर. सरकार से पैसा लेकर बनी फिल्मों को बनाने वालों के लिए ख़ुद के अहं को संतुष्ट करने के लिए समांतर सिनेमा के बिल्ले की स्थापना जरुरी थी. और यह लोगों का भावनात्मक स्तर पर जोड़ने का प्रयास भी था. लेकिन सिनेमा के प्रति तो ये फिल्मकार प्रतिबद्ध थे. यह भी कह सकते हैं कि तब के "नया सिनेमा" के लोगों में समांतर वालों से सिनेमा मीडियम की कैमरे के उपयोग की बेहतर समझ थी. कुमार शाहनी और मणि कौल को इन में गिन सकते हैं. लेकिन उस दौर की अपनी अहमियत है. उन फिल्मकारों के विकास या पतन की कहनी में उनकी यह समांतर फिल्में प्रमुख सोपान है. बाकी की वार्ता भी सुनाइये.