Monday, October 29, 2007
ब्लॊगलिखी की पॊडलिखी
काग़ज़ पर छपे हुए शब्दों से ब्लॊग पर छपे शब्दों तक बहुत कुछ है जिस पर कभी हमारी नज़र पड़ती है तो कभी नहीं. इधर हिंदी ब्लॊग्स में थोड़ी हलचल शुरू हुई तो प्रिंट पब्लिकेशंस का ध्यान इस ओर भी गया.आज कोई आधा दर्जन महत्वपूर्ण प्रिंट पब्लिकेशंस ब्लॊग्स राउंड अप छाप रहे हैं. अपने अविनाश भाई के जी की जलन तो प्रिंट से लेकर ब्लॊग तक और टीवी से लेकर पॊडकास्ट तक, बुझाए नहीं बुझती.
सच है ऐसी ही रेस्टलेस सोल्स बिगड़ी बनाती हैं.
वो जनसत्ता में भी इधर कुछ हफ़्तों से ये बताने में लगे हैं कि ब्लॊग कितने कमाल का माध्यम है. मुझे भी यह रोग उन्होंने ही लगाया है. मैं उनका आभारी हूं और यह पोस्ट उनके उपकारों के प्रति एक श्रंद्धांजलि भी है.
तो भाइयो पेश है अविनाश जी की ब्लॊगलिखी की पॊडलिखी. इसलिये कि इंग्लैंड में बैठे अनामदास और कनाडा में रहे उड़न तश्तरी के लिये तो छोडिये लखनऊ में भाई प्रभात और हल्द्वानी में भाई अशोक तक नहीं जान सके होंगे कि आज जनसत्ता में क्या ब्लॊग राउंड अप क्या छपा. और इससे भी बड़ी बात यह है कि यह अविनाश जी का लिखा एक ऐसा लेख है जिससे गुज़रे ज़माने के मेलों की संस्कृति का एक झरोखा हम पर खुलता है. मैं जब स्कूल में था तो हमें सोनपुर के मेले से जुड़ा एक पाठ पढ़ाया जाता था. सो जब बिहार पहुंचा तो उसी साल पड़े सोनपुर के मेले में जा धमका. इस मेले की मेरी भी कई रोमांचक स्मृतियां है. सुनिये और कहिये क्या ये सिर्फ़ ब्लॊगलिखी है या ब्लॊग्स से उनकी अपेक्षाओं का आईना भी?
विवरण में बस एक सुधार यह है कि मैंने अफ़लातून भाई की मांग पर ठीक वही गीत नहीं बल्कि उसी के पासपड़ोस का गीत पेश किया था.
रही बात नौटंकी की, तो मैं अभी पिछले हफ़्ते नौटंकी की ज़मीन से होकर ही लौटा हूं. कहते हैं कि गुलाब बाई की शोहरत के नीचे नंबरादार, तिर्मोहन, बांके और परसुराम भी दब गये. आप गुलाबबाई को तो जानते हैं लेकिन कृष्णाबाई को नहीं. जबकि गुलबिया-किसनिया वैसा ही शब्द-युग्म था जैसे आज लता-आशा. क़न्नौज के मकनपुर ने जो नौटंकियां देखी हैं उनके आगे आज की नौटंकियां थूकने के क़ाबिल भी नहीं हैं, ये बात मैं नहीं बीस साल तक तिरमोहन की नौटंकी कंपनी मे फ़रहाद का रोल कर चुके जुम्मन क़साई का कहना है जो अब बस दुनिया की बरबादियों पर हिक़ारत से मुंह फेर लेते हैं.
बहरहाल लीजिये ्सुनिये कि आज जनसत्ता में अपने नियमित कॊलम ब्लॊगलिखी में अविनाश भाई ने क्या लिखा है...आवाज़ हमारे परम मित्र मुनीष की है जिन्हें आप अज़दक से बात करते हुए पहले यहीं सुन चुके हैं.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
5 comments:
पिछले कई बरसों से 'जनसत्ता' की एक भी कॉपी बनारस नहीं आती , ऐसे में अविनाश के स्तम्भ को सुन पाना ,सिर्फ़ इरफ़ान भाइ के जरिए मुमकिन था। 'जनसत्ता ' का नेट संस्करण भी नहीं है।'जनसत्ता' छप रहा है,इसका सन्तोष है।
बहुत बढ़िया, शानदार आवाज़!!
सुनना अच्छा लगा । लेख, आवाज व प्रस्तुति सब बढ़िया है ।
घुघूती बासूती
बेहतरीन आवाज. उम्दा प्रस्तुति. बधाई.
shukriya priya mitro. ye irfaan kafi mayaavi hota ja raha hai, nahi?
Post a Comment