दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Friday, July 6, 2007

इब्नबतूता का इंडिया ट्रैवेल शो

बदाऊं में मैने दादा शेख़ फ़रीदउद्दीन बदाऊंनी की मज़ार पर ज़ेयारत की. दरगाह से लौटने पर देखता क्या हूं कि जिस जगह पर हमने ख़ेमे गाडे थे उस तरफ़ से लोग भागे चले आते हैं.इनमें हमारे आदमी भी थे. पूछ्ने पर उन्होंने बताया कि एक हिंदू मर गया है, चिता तैयार के गयी है और उसके साथ उसकी बीवी भी जलेगी. उन दोनों के जलाए जाने के बाद हमारे साथियों ने लौटकर कहा कि वो औरत तो लाश से चिपट कर जल गयी.
एक बार मैंने भी एक औरत को बनाव-सिनंगार किये घोडे पर चढ कर जाते हुए देखा था. हिंदू और मुसलमान इस औरत के पीछे चल रहे थे.आगे-आगे नौबत बजती जाती थी, और ब्राह्मण साथ-साथ थे. हाकिम की इजाज़त मिलने पर यह औरत जलाई गई.
एक वाक़या और याद आया. तब मैं 'अबरही' नगर में था, जहां के ज़्यादातर लोग हिंदू थे लेकिन हाकिम मुसलमान था. इस इलाक़े के कुछ हिंदू ऐसे थे जो हमेशा बादशाह की हुक्मउदूली किया करते थे. एक बार इन लोगों ने छापा मारा तो अमीर हिंदू-मुसलमानों को लेकर इनका सामना करने गया. लडाई हुई और हिंदू रियाया में से सात अफराद हलाक हुए. इनमें से तीन की औरतें भी थीं.और उन्होंने सती होने का इरादा ज़ाहिर किया.हिंदुओं में हर विधवा के लिये सती होना ज़रूरी नहीं है लेकिन शौहर के साथ औरत के जल जाने से खानदान की इज़्ज़त बढ जाती है. औरत को भी पतिव्रता गिना जाने लगता है. सती न होने पर विधवा को मोटे-मोटे कपडे पहनकर बेहद तकलीफ़ज़दा ज़िंदगी जीनी पडती है और उसे पतिपरायण भी नहीं समझा जाता.



हां, तो फिर इन तीनों औरतों ने तीन दिन तक ख़ूब गाया-बजाया और तरह-तरह के खाने खाये, जैसे ये दुनिया से विदा ले रही थीं.इनके इर्द-गिर्द चारों तरफ की औरतों का जमघट लगा रहता था. चौथे दिन इनके पास ग़्होडे लाये गये और ये तीनों बनाव-सिंगार कर, ख़ुशबुएं लगा कर तैयार हो गईं. उनके दाहिने हाथ में एक नारियल था, जिसको ये बराबर उछाल रही थीं और बाऎ हाथ में एक आईना था जिसमें ये अपना चेहरा देखती थीं. चारों तरफ ब्राहमणों और रिश्तेदारों की भीड लग रही थी. आगे-आगे नगाडे और नौबत बजती जाती थी. हर हिंदू आकर अपने मृत मां-बाप-भाई-बहन और नातेदारों-दोस्तों के लिये इनसे प्रणाम कहने को कह देता था और ये 'हां-हां' कहती और हंसती चली जाती थीं. मैं भी दोस्तों के साथ यह देखने को चल दिया कि ये किस तरह से जलती हैं. तीन कोस तक जाने के बाद हम एक ऐसी जगह पर पहुंचे जहां बहुत पानी था, घने पेड थे और इसलिये अंधेरा छाया हुआ था. यहां चार गुंबद बने थे और हरेक में एक-एक देवता की मूर्ति थी. इन चारों मंदिरों के बीच में एक ऐसा तालाब था जिस पर पेडों की घनी छाया होने की वजह से धूप नाम को भी न थी.
घने अंधेरे में ये जगह नरक जैसी लग रही थी. मंदिरों के पास पहुंचने पर ये औरतों नहाईं और इन्होंने कुंड में डुबकी लगाई. गहने और कपडे उतार कर रख दिये और उनकी जगह मोटी साडियां पहन लीं. कुंड के पास एक नीची जगह में आग दहकाई गई. सरसों का तेल डालने पर उसमें से ऊंची-ऊची लपटें निकलने लगीं. पंद्रह आदमियों के हाथ में लकडियों के गठ्ठे बंधे हुए थे और दस आदमी अपने हाथों में बडे-बडे लकडी के कुंदे लिये खडे थे. नगाडे-नौबत और शहनाई बजानेवाले औरतों के इंतज़ार में खडे थे. लोगों ने आग को एक रज़ाई की ओट में कर लिया था ताकि औरतों की नज़र उधर न पडे लेकिन इनमें से एक औरत ने रज़ाई को ज़बर्दस्ती खींचकर कहा कि क्या मैं जानती नहीं कि ये आग है, मुझे क्या डराते हो? इतना कहकर वो अग्नि को प्रणामकर फ़ौरन उसमें कूद पडी. बस नगाडे-ढोल-शहनाई और नौबत बजने लगी. आदमियों ने अपने हाथों की पतली लकडियां आग में डालनी शुरू कर दीं और फिर बडे-बडे कुंदे भी डाल दिये जिससे औरत की हरकत बंद हो जाये. वहां मौजूद लोग भी चिल्लाने लगे. मैं ये दिल दहलाने वाला मंज़र देखकर बेहोश हो घोडे से गिरने ही को था कि मेरे दोस्तों ने मुझे संभाल लिया और मेरा मुंह पानी से धुलवाया. आपे में आनेपर मैं वहां से लौट आया.

(इब्नबतूता की भारत यात्रा...पृष्ठ 25)

इब्नबतूता अरब देश से 14वीं शताब्दी में भारत आया था. भारत में मौलाना बदरुद्दीन और दूसरे पूर्वी देशों में शेख़ शम्सुद्दीन कहे जानेवाले इस इतिहास-प्रसिद्ध यायावर का असली नाम अबू अब्दुल्ला मोहम्मद था. ये जब 22 साल का था तो दुनिया की ख़ाक छानने निकल पडा था और लगातार 30 साल तक घूमता ही रहा था. उस ज़माने में कोई 75000 मील का सफर आसान न था एक बार तो भारतीय समुद्री डाकुओं ने उसे ऐसा लूटा कि उसकी कुछ महत्वपूर्ण पांडुलिपियां भी जाती रहीं. 73 साल की उम्र में वह अपने देश में ही मरा. दुनिया में वो घुमक्कडों का सुल्तान माना जाता है.

4 comments:

चंद्रभूषण said...

पता नहीं इसी तरह का मैंने कोई सपना देखा था या बड़े जमाने पहले ऐसी ही कहानी वाली कोई किताब पढ़ी थी। लेकिन उसमें औरत को जबर्दस्ती ले जाया जा रहा है और वह अग्निकुंड की तली में बनी किसी गुप्त सुरंग से निकल भागने की कोशिश करती है। शायद दिमाग में जड़ जमाए सती की यह अलहदा छवि अपनी इस निजी वैचारिक मान्यता पर टिकी हुई है कि यह काम औरतों से हर हाल में जबरिया ही कराया जाता रहा होगा। लेकिन अभी टीवी पर छोटी-छोटी बातों को लेकर लोगों को महिमामंडित करने, सीन बनाने और फिर उसे भुनाने की जो प्रवृत्ति दिख रही है- और तो और, इंसान को दिन दहाड़े आत्मदाह करने को राजी करा लिया जा रहा है- उसे देखते हुए लगता है कि किसी समय वाकई औरतें खुद को दुनिया की नजर में सती-सावित्री साबित करने के लिए गाती-बजाती आग में कूदने निकल पड़ती रही होंगी। इब्न बतूता का यह वर्णन देश में लिखे गए किसी भी कालजयी साहित्य से ज्यादा नहीं तो उतना ही महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्यवश, कभी इसे पढ़ने का मौका नहीं मिला। आगे उनके लिखे कुछ और पन्ने पढ़ाएं तो बड़ी मेहरबानी होगी।

Sanjeet Tripathi said...

इब्नबतूता का नाम बचपन से सुनते आए है पर उन्हे पढ़ने का मौका नही मिला है अभी तक!

शुक्रिया आपका !!

इरफ़ान said...

Thanx and sorry for writing in English. Mere system mein vaay_ras ghus gaya hai and I am using another system. Aisaa 'ras' yaa to yahaan hai yaa fir Bana_ras mein.

अनामदास said...

भाई इरफ़ान जी
ऐसी कोई चीज़ इससे पहले नेट पर नहीं पढ़ी, अनुवाद भी सुंदर और सटीक है..जितना है सब निकालिए, हम बेताब हैं.