दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Wednesday, July 11, 2007

आज़ादी की नुक्ती


कोई एक महीने बाद वो दिन आ जायेगा जब हम अपनी 'आज़ादी' की एक और सालगिरह मनाएंगे.
हमारी ही तरह कइयों के लिये हर दिन की तरह महज़ एक दिन की हैसियत रखनेवाला ये दिन इतनी टीस तो समोए हुए है कि हम अपनी ग़ुलामी का एह्सास कर सकें. हमारे प्रायमरी स्कूल में तब तीन दिन पहले से ही तैयारियां शुरू हो जाती थीं. हम पास की नदी के किनारे से बेहाया (बेहया या पामबेल) की टहनियां तोड-तोड कर स्कूल पहुंचाते और देर शाम तक उन डंडियो में झंडियां लगाते. ये तिरंगी झंडियां भी हम ही बनाते थे. गीत-नाटक और देश भक्ति के आइटम हफ्तों से तैयार होने लगते थे. प्रभात फेरी करते हुए हम 'वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो, सामने पहाड हो सिंह की दहाड हो' ज़ोर-ज़ोर से गाते और 'भारत माता की जय' 'महात्मा गांधी अमर रहें' 'स्वतंत्रता दिवस अमर रहे' के नारे लगाते.
राष्ट्रगान सुन कर लेटे से खडे हो जाना और रेडियो पर भी राष्ट्रधुन सुनते ही सावधान की मुद्रा में आ जाना लंबे समय तक चला. दस साल पहले जिस दिन् आज़ादी की पचासवीं सालगिरह मनाई जा रही थी, हम(मैं और मित्र संजय जोशी)एक सेकेंड हैंड साइकिल खरीदने ईस्ट ऑफ़ कैलाश जा रहे थे. हमने फ़्री ऎड्स में एक मुफ़्त विग्यापन छपवाया था कि एक साइकिल चाहिये. विग्यापन के जवाब में सुबह तब एक फ़ोन आया था जब लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री देश की उपलब्धियों की सूची गिनाने की तैयारी कर रहे थे. बहुत बार्गेनिंग के बाद साढे चार सौ रुपये की सायकिल खरीद कर हमने उस छुट्टी के दिन कहीं एक पंचरवाला ढूंढा था और हवा भरवाकर बारी बारी से एक दूसरे को बैठा कर हम सायकिळ चलाते हुए पटपडगंज तक आये थे.रास्ते में कई साइकिलों और रिक्शों पर लगे प्लास्टिक के तिरंगों की फडफडाहट हमें याद दिलाती रही कि हम आज़ाद हैं. उन्हीं दिनों बच्चों की कहानियों का एक संग्रह हमारे हाथ लगा जिसमें राजनारायण दुबे की लिखी एक कहानी हमें आज़ादी की सालगिरह पर हमारे जैसे कई लोगों की भावनाओं का प्रतिबिंब लगी. संग्रह एकलव्य,भोपाल ने प्रकाशित किया है. भाई अनामदास की बताई परतदार हक़ीक़तों को हवा देती ये कहानी आप भी पढिये.

आज़ादी की नुक्ती

15 अगस्त के कारण हमने एक दिन पहले से कपडे धो रखे थे. 15 अगस्त के दिन हमने सबेरे 5 बजे उठकर मुंह-हाथ धोए और नहाया. फिर हमने चाय पी और उसके बाद हम ड्रेस पहनकर, जूते-मोज़े पहनकर बढिया तैयार होकर स्कूल गये.
वहां हम थोडे घूमे-फिरे और फूटे खाये. इतने में सर आ गये और कहने लगे चलो लाइन में लगो. हम लाइन में लग गये. एक मोडा हमरी लाइन में लगो. हमने बाके दो-चार करारे हाथ जमाए. इत्ते में बो मास्साब के पास पहुंच गओ. मासाब से बा ने कही कि मासाब मोहे एक मोडा ने मार दओ. तब मासाब मेरे पीछे दौडे तई हमने भग दओ और सिंधी कालोनी की गलियों में घूमते रहे और बुद्धा के खेत में से हीट के गल्ले बाजार पहुंचे. भा पे भाषण भये. भाषण सुन-सुन के हमरो दिमाग पच गओ. भाषण खतम भये हम सब स्कूल आए. हम लाइन में लगे नुक्ती बंट रही थी.
फिर बोई मोडा मिल गओ. बो फिर हमसे उलझन लगो. हमने बाको इत्तो-मारो इत्तो-मारो कि बाहे बेहोश कर दओ. हमें एक पुडिया नुक्ती मिली. उत्तीसी नुक्ती के पीछे हम दिन भर परेशान रहे और नुक्ती खात-खात घर आ गए.

2 comments:

Yunus Khan said...

भोत सई । ऐसी नुक्‍ती तो हमने भी खाई हे । ज़े सई बात हे भाई । इरफान भिया सुक्रिया इस कहानी को हम तक पोंचाने के लिए ।

Anonymous said...

कया बात है संडास के गोले मे घुस कर कया लिखा है? आपकी रचना सब समाप्त हो गई क्या?