Monday, July 9, 2007
बुन रही हूं एक शरीर
मातृत्व: एक छवि
अब मैं सडकों पर नहीं जा सकती
मेरी कमर मोटी हो गयी है,
आंखों के नीचे गहरे काले गड्ढे बन गये हैं
इन सब को देख मुझे शर्म आती है
लेकिन फूलों से भरी हुई एक डोलची ले आओ
और मेरे पास, बिल्कुल मेरे पास उसे रखो.
धीरे-धीरे बाजे पर कोई मधुर लय सुनाओ.
उसके लिये, सिर्फ़ उसके लिये
मैं संसार में डूब जाना चाहती हूं,
मैं अपने शरीर को गुलाब से सजाती हूं
और सोते हुए उसको सुनाती हूं शाश्वत गीत
बाग़ों में बैठ घंटों मैं संजोती हूं सूरज का ताप
कि मुझमें फलों के रस-सा
शहद घुल जाये.
चीड के वनों से आती हुई हवा
मुझे शीतल बना जाती है,
रोशनी और हवा मेरे रक्त को गाढा और
शुद्ध कर दे
उसे स्वच्छ बनाने के लिये मैं अब न तो
घृणा ही करूंगी और न गपशप. केवल प्रेम
क्योंकि इस निस्तब्धता में मैं
बुन रही हूं एक शरीर,
एक चेहरा, आंखें
और हृदय निष्पाप !
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1954 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित चिली की कवयित्री गैब्रिएला मिस्ट्राल.
पेशे से अध्यापिका रही गैब्रिएला आजीवन अविवाहित रहीं. कविताओं का अनुवाद स्नेहमयी चौधरी ने किया है. मातृत्व पर उनकी छः कविताओं मे से एक यहां पेश की जाती है. यह डॉ भावना को दिल के दरम्यां और मुक्ता जी को सादर भेंट है.
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5 comments:
अद्भुत ! इरफ़ान भाई , अनुवादक का नाम भी दीजिए और उन्हें साधुवाद भी ।
बहुत सुदर !
रचना और अनुवाद दोनों ही उत्कृष्ठ।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत अच्छी कविताये है. पढ्वाने के लिये शुक्रिया.
क्योंकि इस निस्तब्धता में मैं
बुन रही हूं एक शरीर,
kitni sundar hai ye bunavat..
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