इब्नबतूता का इंडिया ट्रैवेल शो- तीन
उनमें जो दो मुसलमान थे उन्होंने अपने साथियों में एक आदमी की तरफ़ इशारा करते हुए मुझे बताया कि यह इनका सरदार है. और यह भी कि ये लोग तुझे ज़रूर ही मार डालेंगे. मैंने इन्हीं मुसलमानो की मार्फ़त उनसे गुज़ारिश शुरू की कि वे मुझे छोड दें. इस बीच सरदार ने मुझे एक बूढे, उसके बेटे और एक कमीने काले आदमी के सुपुर्द किया और उन्हें कुछ हिदायतें देकर चलता किया. मैं अपनी मौत का फ़रमान समझ न सका.
ये तीनों मुझे उठाकर एक घाटी की तरफ़ ले चले लेकिन रास्ते में उस काले आदमी को बुखार आ गया और वो मेरे ऊपर अपनी दोनों टांगे रखकर सो गया. थोडी देर बाद वो बूढा और उसका बेटा- दोनों, सो गये. सुबह होते ही ये तीनों आपस में बातें करने लगे और मुझको सरोवर तक चलने का इशारा करने लगे. अब मैं अच्छी तरह समझ गया था कि अब मेरी ज़िन्दगी का आखिरी लम्हा नज़दीक है. मैनें एक बार फिर बूढे से अपनी जान की बख़्शीश चाही...इस बार उसका कलेजा पसीज गया.
यह देख मैंने अपने कुर्ते की दोनों आस्तीनें फाडीं और उसे दे दीं ताकि वापस लौट कर वो अपने साथियों को आस्तीनें दिखाते हुए कह सकें कि क़ैदी भाग गया.
इतने में हम सरोवर के पास आ गये और हमारे कानों में वहां पहले से मौजूद कुछ लोगों की आवाज़ें पड्ने लगीं,
बूढे ने भांप लिया कि वो उसके साथी ही हैं जो वहां पहुंच चुके हैं. उसने मुझे इशारे से पीछे होने को कहा.सरोवर पर पहुंच कर मैने पाया कि वहां बहुत से आदमी इकट्ठा हैं. इन लोगों ने बूढे से अपने साथ चलने को कहा लेकिन बूढे और उसके साथियों ने इनकार कर दिया.
बूढे और उसके साथियों ने अपने साथ लायी रस्सी खोलकर ज़मीन पर रख दी और मेरे सामने बैठ गये. यह देख मैने ये समझा कि इस रस्सी से बांधकर वो मुझे मार डालना चाहते हैं. फिर तीन आदमी इनके पास आये और कुछ खुसुर फुसुर करने लगे. मैने अंदाज़ा लगाया कि वो ये पूछ रहे हैं कि इस आदमी को अभी तक मारा क्यों नहीं गया. यह सुन बूढे ने काले आदमी की तरफ़ इशारा करके कहा कि इसको बुखार आ गया था इसलिये अभी तक काम पूरा नहीं हुआ है. उनमें एक बेहद ख़ूबसूरत और नौजवान आदमी भी था, उसने अब मेरी तरफ़ देखकर इशारे से पूछा कि क्या तू आज़ाद होना चाहता है? मेरे 'हां' करने पर उसने मुझे जाने की इजाज़त दे दी और एक राह की तरफ़ दिखाते हुए बोला कि इसी राह चला जा.
मैं चल तो दिया लेकिन दिल में अब भी डर था कि कहीं और लोग मुझे देख न लें. बांस का जंगल देख मैं उसी में हो रहा और सूरज ढलने तक वहीं छिपा रहा. रात होते ही मैं वहां से निकल कर वही राह पकड चलने लगा. थोडी देर बाद मुझे पानी दिखा, मैने पानी पिया और फिर चल दिया. मैं रात का तीसरा पहर बीतने तक चलता रहा. इतने में एक पहाड आ गया और मैं उसके नीचे पडकर सो गया.
सुबह होते ही मैने फिर चलना शुरू किया और दोपहर होने तक एक ऊंची पहाडी पर जा पहुंचा. यहां कीकड और बेरी की भरमार थी. मैने भरपूर बेर खाए और मिटाई. कांटो ने मेरे पैर इस तरह छलनी कर दिये कि आज भी उनके निशान मौजूद हैं.
(आगे अभी और है...किस तरह की तकलीफ़ें और सतरंगे तजुर्बे मिले इब्नबतूता को इस सफ़र में)
वही, पृष्ठ 169-170
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