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हमारे लेखक शायद इस बात से इनकार न करें कि उनके लिये मातृभूमि का विचार एक गौण वस्तु है, कि सामजिक समस्याएं उनके अन्दर उतनी तीव्र सृजनात्मक प्रेरणाएं नहीं जगातीं, जितनी प्रेरणा व्यक्ति के अस्तित्व की पहेलियां; कि उनके लिये कला ही मुख्य चीज़ है--मुक्त और यथार्थपरक कला, जो देश की नियति, राजनीति और दलों से ऊपर है और दिन, वर्ष या युग के प्रश्नों में कोई रुचि नहीं रखती.ऐसी भी कला हो सकती है, क्योंकि ये सोचना कठिन है कि कोई विवकशील प्राणी , जिसका इस पृथ्वी पर अस्तित्व है, चेतन या अचेतन रूप से किसी भी सामाजिक समूह से सम्बद्ध होने से इनकार करेगा,और अगर वे हित उसकी आकांक्षाओं से मेल नहीं खाते हैं तो उनकी रक्षा नहीं करेगा.
1 comment:
संगम पांडेय
तीनों टिप्पणियां पढ़ीं। कुछ बात तो है...।
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