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आज का आदमी, अलग अकेला होने के लिये प्रयत्नशील और बेगाना, एक ऐसा प्राणी है जिसका दुख ही सबसे बडा साथी है. सच्चाई ये है कि न तो उसका कोई है जिसके पास वो आसरे के लिये जा सके और न किसी को उसकी ज़रूरत ही है. वह अपनी कमज़ोरी के एहसास से बौखलाया हुआ है, आसन्न विनाश के भय से संत्रस्त है. उसके जीवन-मूल्य क्या हैं? उसका सौंदर्य किस चीज़ में निहित है? इस अधमरे प्राणी में जिसका स्नायविक सिस्टम विश्रृंखल हो चुका है, जिसका मस्तिष्क विक्षिप्ति से असमर्थ हो गया है, भावना और संकल्प की बीमारियों से भरे इस क्षुद्र पात्र में मानवीय करुणा क्या बाक़ी रह गयी है?
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