Wednesday, May 30, 2007
खुले दिमाग़ से सोचता है-- वो !
वो सिवाय अपने और अपने सामने खडी मौत के, इस व्यापक जगत में होनेवाली किसी अन्य चीज़ के बारे में सोचने या समझने की क्षमता खो बैठा है। वो अगर कभी सारे संसार के लोगों की पीडा-यातनाओं का ज़िक्र करता भी है, तो इस ओर ध्यान भी नहीं देता कि लोग इन पीडाओं से मुक्ति पाने के लिये संघर्ष कर रहे हैं. और अगर यह विचार कभी उसके मन में उठता भी है तो वो सिर्फ इतना ही कह सकता है कि दुख-पीडाएं सनातन हैं. वो इससे ज़्यादा कह भी नहीं सकता, क्योंकि जिस आत्मा को अकेलेपन के घुन ने खोखला बना दिया है, उसकी दृष्टि सीमित हो जाती है, वह समष्टि के इनर डायनमिज़्म को देख ही नहीं सकती और संघर्ष में जीतने का विचार ही उसकी भावना के प्रतिकूल होता है. 'मैं' के लिये, ऎसी स्थिति में पहुंचकर, आनंद का केवल एक स्रोत बाक़ी रह जाता है--- कि वह निरंतर अपनी बीमारी और अपने निकट आती हुई दुर्निवार मृत्यु का रोना रोती रहे और इसके लॉजिकल कल्मिनेशन के रूप में मोक्ष की कामना करती रहे. शायद इसी 'मैं' और उसके जैसे अन्य अकेले और क्षुद्र व्यक्तियों के मर्सिये आपको निर्मल वर्मा ऎंड पार्टी के यहां मिलते हैं.
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1 comment:
pls be courteous to nirmal verma ji
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