दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Sunday, October 21, 2007

मुर्मू मांझी यानी भारत में संगीत की संभावनाएं कम हैं


ग्यारह साल का मुर्मू मांझी(पीछे बाएं से दूसरा)अपने दोस्तों के साथ
मुर्मू मांझी का बचपन झारखंड के हज़ारीबाग़ ज़िले में बीता. हेसालांग नाम की इस कोयला खदान में कब और कैसे उसे गाने की धुन सवार हुई, ये कोई नहीं जानता. हालांकि सब ये जानते हैं कि आदिवासी जीवन में संगीत स्वाभाविक है. टीवी वहां भी है और इंडियन आइडल वहां भी देखा जाता है. नया राज्य बनने के बाद ये उम्मीद की जा रही थी कि युवा प्रतिभाओं के प्रोत्साहन के लिये सरकार कुछ करेगी लेकिन मुर्मू का संघर्ष इस उम्मीद को ठेस पहुंचाता है. यहां सवाल यह भी है कि बाज़ारीकरण के बीच क्या सचमुच संगीत का लोकतांत्रीकरण हुआ है, और युवा गायकों के लिये प्रस्फुटन के नये क्षेत्र खुले हैं!

अपनी धुन में मगन मुर्मू
बहरहाल,बचपन से ही मुर्मू धूल उड़ाती कोयले से लदी ट्रकों के गुज़रते क़ाफ़िले की ओट में अपनी मस्ती के सुर बिखेरता, जिसे उसके दोस्तों के बीच सारी शिकायतों के बावजूद सराहा जाता. मुर्मू जब जवान हुआ तो उसे एक कोलियरी में ट्रक लोड करने वाले गैंग में मज़दूरी मिल गई. सोलह लोग मिलकर एक ट्रक भरते तो हर किसी के हाथ चालीस रुपये लगते. मां बचपन में ही सांप काटने से मर चुकी थी और पिता चिड़ियां पकड़कर कर पास के बाज़ार में बेचते. कमाई इतनी तो हो ही जाती थी कि अपना और अपनी बेटी रोप्ती का पेट भर सके. चिंता कुछ नहीं थी.

मुर्मू के पिता और बहन रोप्त
मुर्मू ख़ुद कमाता ही था. उसका भी क्या ख़र्च! उसने अपनी कमाई से पैसे बचाने शुरू किये और जब इतने पैसे हो गये कि वो बंबई जा सके तो उसने एक रात कोलियरी के पिछवाड़े से गुज़रते हुए वहां पड़ी बेशुमार राख के ढेर में अपनी बिना बुझी बीड़ी फेंक दी. ये हेसालांग को उसका आखिरी झटका था. एक धीमी आग जो आज भी वहां धुआं छोड़ रही है,वो मुर्मू की लगाई हुई है.

मुर्मू की पत्नी गेउनी का ताज़ा फ़ोटो,ये अब अपने भाई के साथ मुर्मू से मिलने जा रही है
बहरहाल उसी रात वो बंबई पहुंच गया. मुर्मू को अच्छी तरह मालूम था कि वह कुछ स्वनामधन्य गायकों से क्यों मिल रहा है. हिमेश रेशमिया उस वक़्त अपने सीडी प्लेयर पर ओउम भूर्भुवः स्व: का प्रख्यात वर्ज़न सुन रहा था और आंखे मीचे अपने मोबाइल पर अपने अहमदाबाद वाले साढू से शेयर के दामों पर अपनीं चिंताएं शेयर कर रहा था. कुमार सानू और उदित नारायण को अपने बढ़ते मोटापे के लिये कसरत करते देखकर वो पिछली शाम आया था. अनु मलिक और ए.आर.रहमान ने उसको डांटा तो नहीं लेकिन अनु मलिक जिस नये गायक को लेना चाहता था उसे अचानक मेलबर्न जाना पड़ गया था और ए.आर.रहमान ने जिस फ़ार्म हाउस के लिये अस्सी करोड़ रुपये जिस मुकाटीवाला को दिये थे वो अब फ़ोन नहीं उठा रहा था. दोनों की चिंताओं को भांपते हुए मुर्मू ने सोनू निगम से मिलना तय किया. सोनू निगम अपने ज्योतिष के घर बैठा हुआ था. ज्योतिष उसे दो मुट्ठी चावल दान करवाने की कहकर अपने लैपटॉप की लीड ठीक करने लगा था. चावल माता वैष्णों रानी की देहरी पर चढ़ाए जाने थे और मुश्किल ये थी कि सोनू कैसे वहां जाएगा. सोनू ने कैलाश खेर से इस बारे में राय मांगी तो उसने झट रास्ता बताया. म्यूज़िक टुडे का सर्कुलेशन मैनेजर उन दिनों वैष्णों देवी के मंदिर में भंडारा कराने गया हुआ था. कैलाश ने फ़ोन पर मखीजा से कह दिया कि वो सोनू के लिये दो मुट्ठी चावल चढा दे. मुर्मू को हेसालांग की कुलदेवी याद आई और अपने पुराने कुटुंबी भी...मुर्मू ने अब और अधिक भटकना नहीं चाहा और कल्याण में एक डॉर्मेटरी लेकर पड़ा रहा. एक दिन उसी डॉर्मेटरी में एक प्रख्यात संगीतकार आया. लोगों ने बताया कि वो दुनिया भर में जाना जाता है. उसका नाम अली फ़र्कातूरे था. मुर्मू ने एक नज़र उसे देखा फिर चारपाई पर पसर गया. दोनों हथेलियों का फ़ंदा बनाकर उन्हें सिर के नीचे लगाया. सोचने को कुछ खास नहीं था. हथेलियों के तकिये पर अधलेटा मुर्मू गाने लगा. अली फ़र्कातूरे ने अपने बिना मोज़ेवाले पैर जूतों से निकाले और अपना गिटार टुनटुनाने लगा. जल्द ही एक अद्भुत संगीत रचना ने जन्म लिया. पांच सात मिनट बाद जब गाना खतम हुआ तो अली फ़र्कातूरे ने अपने रकसैक से पानी की बोतल निकाली, मुर्मू ने खइनी का एक तिनका उंगली से निकाल कर अपनी आस्तीन से पोंछा---दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कराए.

मुर्मू का संगीत आज इसी लोगो से दुनिया भर में जाना जाता ह
फ़रवरी की २२ तारीख़ को मुर्मू अली फ़र्कातूरे के साथ माली पहुंच गया. वहां उसे बहुत से गाने वाले बजानेवाले मिले. उनके साथ गाता बजाता मुर्मू आज एक बड़ा स्टार है. झारखंड के किसी थाने में उसकी गुमशुदगी की कोई रपट दर्ज नहीं है अलबत्ता कोलियरी में भीतर ही भीतर सिसकती आग किसने लगाई इसकी तफ़्तीश चल रही है. आग कब बुझेगी किसी को पता नहीं.
आपको सुनाते हैं मुर्मू मांझी का गाया ये हिट गीत.
यहां इसका ट्रांसक्राइब्ड टेक्स्ट दिया जा रहा है और साथ में अनुवाद भी.

इबीबो बोइरो सीडूम डीडां
बराबोर जिंगोई रों
बोरचिंग रोइरो सीडूम डीडां
बोराबीं बीबोई रोडां

दगागी बीवई सीसा हीडां
बरांडा हांडू डाऊला
गोरची ऊंहई सीसांही
बरांडा हांडू डाऊला

इजाबी बीवई सीसा डीडां
बरांडा हांडू डाऊला
बोरची नू हई सीसांही
बरांडा हांडू डाऊला

वलई तदीन डापोर चींडां
अली गली ऊं गइयो
कालई चडीन डापोर चींडां
अजीन्डो होनीन्डोगई

इसीडी कैलिन मानीन्डीडां
वलंगई कदू बोरची
बोरची नू अई यकूम ऐन्डा
कईडा रई जेनूम डागूई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
कारां येम्बाडा मेंहों

ना वोई ये, ना वोई ये
इयारा वोई ये वो ईये
खई डारई जेंमिन डगोई

इबीबो बोइरो सीडूम डीडां
बराबोर जिंगोई रों
बोरचिंग रोइरो सीडूम डीडां
खई डारई जेंमिन डगोई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
खई डारई जेंमिन डगोई

ना वोई ए, ना वोई ए
इयारा वोई ये वो ईये
कारां येम्बाडा मेंहों
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और अब मुंडारी भाषा के इस गीत का अनुवाद.

जीवन की अब दास्तान
क्या कहूं

जीवन
खुद ही दास्तान है
मुझे बन्दे की क्या औकात

गोर्की जैसे महालेखक
तक खाक में तमाम हुए
स्याही का काम करते हुए

कहती थी मां मेरी
मरते दिन तक
बोर्ची जैसा लोकगायक
बाढ़ में बह गया

गलियों में
फकीर भी गाता था
ढपोरशंखी कम कर बन्दे
खुदा देख रहा है

बोर्ची तो
कहता गया
बोर्ची तो कहता ही गया
गाता जाएगा जीवन को

न ये सही न वो सही
वो असल में ये
और ये असल में वो है
खड्ड में डालो बाकी बातों को

न ये सही न वो सही
वो असल में ये
और ये असल में वो है
ऐसी क्या मगजमारी करते हो

जीवन की दास्तान
क्या कहूं
जीवन
दोहराता जाता है खुद को

जीवन ने क्या सिखाया:
सबको बराबर ज्ञान है बन्धु
चाहे वह रहे कहीं

खड्ड में डालो बाकी बातों को
न ये सही न वो सही
वो असल में ये और ये असल में वो है

ऐसी क्या मगजमारी करते हो
न ये सही न वो सही
वो असल में ये और ये असल में वो है

खड्ड में डालो बाकी बातों को

मूल मुंडारी गीत का हिंदी अनुवाद: अशोक पाँडे
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वैधानिक घोषणा: इस वृत्तांत के सभी पात्र काल्पनिक हैं. किसी भी व्यक्ति, स्थान या घटना का सादृश्य मात्र संयोग माना जाए.
माफ़ीनामा: अज़दक, बाबा माल और अली फ़र्कातूरे से.

5 comments:

Manish Kumar said...

शुक्रिया..इस प्रस्तुति के लिए। सच में ये झारखंड के लोक गीतों से इसकी लय मिलती जुलती है

मुनीश ( munish ) said...

THANX . THIS IS SOMETHING OUTSTANDING AND UNIQUE. U R DOING A GREAT SERVICE FOR THE CAUSE OF MUSIC.PLS. KEEP IT UP. HIP HIP HURRAY.

Anonymous said...

साथ का अनुवाद आ गया । अब मेरी पहले वाली टीप हटा दीजिए।

VIMAL VERMA said...

इरफ़ानजी,
इस लोकगीत मे जो आवाज़ सुन रहा हूं,वो बखूबी अपने इस अंचल से हूबहू मिलती जुलती है, पर हां आपने जो अनुवाद भी साथ साथ दिया है जो बहुत सार्थक लगा,साथी,हम लोग १९८४ में नाटक करने गिरीडिह गये थे और तब हमने वहां पर कुछ झारखन्डी लोक गीत सुना था जो मस्त था, और उसी के साथ खांटी झारखन्डी आवाज़ में एक लोकगीत सुना था " सांवर गोरिया हे सांवर गोरिया, कमर में बांधेली कटार हे धन सांवर गोरिया" ये जन लीजिये उसी समय का सुना हुआ है जिसकी पहली लाइन आजतक याद है, माली के कुछ गीत प्रमोदजी के सौजन्य से सुन चुका हूं संगीत और उनकी लय अद्भुत है... पर आपकी काल्पनिक कहानी भी कम दिलचस्प नही है.. ज़रूर आपने अपनी कल्पना को आकार दिया है...पर सूरत कमोबेश है भी यही.. बहुत अच्छा लगा ऐसे ही सुनिये और सुनाइये अच्छा लगता है शुक्रिया.

Ashok Pande said...

इरफान, इस पूरे वाकये ने एक बात साबित कर दी। भाईलोगों की पसन्द ज़रा जादे ऊंची है, दिक्खे। चलो उदास उदास खेला जाये। या सीरियस सीरियस। एक नया खेल आजकल सुना बहुत पोपुलर हो रह है : मनहूस मनहूस। ... टूटी बिखरी लिखने वाले शमशेर क्या कह कर गए, आपको याद रखना चाहिये। ...जो नहीं है/ जैसे कि सुरुचि/ उस का गम क्या?/ वह नहीं है।