Thursday, July 19, 2007
ये सब अफ़वाहें हैं !
रामसनेही:आपने सुना! संजय दत्त को फांसी अब भी होगी?
रामपदारथ:क्या करें घोर कलियुग है.
रामसनेही:क्यों?
रामपदारथ:आप तो जानते हैं कि न्याय सत्ता के साथ ही रहता है.
रामसनेही: इसमें सत्ता की बात कहां से आ गयी?
रामपदारथ: अगर अफ़वाहों पर कान दें तो उस हिसाब से संजय दत्त का संबंध कांग्रेस पार्टी के साथ होना चाहिये!
रामसनेही: कैसे?
राम्पदारथ: वो ऐसे कि संजय दत्त की मां की मां की मां राहुलजी के पिता की मां के पिता के पिताजी की वैसीवाली पत्नी थीं.
रामसनेही: आप तो गूढ होने लगे?
रामपदारथ: नहीं. कहते हैं कि बनारस की एक कोठेवाली दलीपाबाई पंडित मोतीलाल नेहरू की वैसीवाली पत्नी थीं. दलीपाबाई की पुत्री जद्दनबाई दुनिया की पहली महिला संगीतकार-गायिका थीं जिन्होंने फिल्मों में संगीत दिया. जद्दनबाई नें कई शादियां की होंगी लेकिन उनका पहला प्यार उत्तमचन्द मोहनचंद्जी थे जो कि एक डॉक्टर थे और जद्दनबाई से शादी करके अब्दुल रशीद बन गये थे. इसी शादी से जो तीन बच्चे हुए उनमें सबसे बडी का नाम उन्होंने फ़ातिमा ए.रशीद रखा. यही फातिमा आगे चलकर नरगिस नाम से मशहूर हुईं और थोडा और आगे जाने पर कॉंग्रेस सांसद स्वर्गीय सुनील दत्त की पत्नी बनीं थोडा और आगे जाने पर संजय दत्त की मां बनीं.
रामसनेही: अरे आप तो धाराप्रवाह बोले ही चले जा रहे हैं?
रामपदारथ: हम क्या ये सब तो नेट पर उपलब्ध जानकारियों का प्रवाह है.
रामसनेही: हां तो फिर?
रामपदारथ: अफवाहें तो यहां तक हैं कि जद्दनबाई पंडित नेहरू को राखी भी बांधती थीं.
रामसनेही: तो आप क्या कहना चाहते हैं?
रामपदारथ: यही कि बरसों से शासकवर्ग के साथ रहा आया न्याय अब संजय दत्त के पीछे क्यों पडा हुआ है? आख़िरकार आते तो वे उसी परिवार से हैं जहां बाक़ी लोग ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा में रहते हैं?
रामसनेही: आप आजकल नेट पर उपलब्ध जानकारियों को बहुत विश्वसनीय क्यों मानने लगे हैं?
रामपदारथ: ये तो आप का ही शुरू किया हुआ खेल है.
दोनों: हा, हा, हा...
रामसनेही: चाय नहीं मंगवाइयेगा?
रामपदारथ: अरे हां, ए लडका! दू गो चाय लाना रे! चीनी कम पत्ती जादा.
Wednesday, July 11, 2007
आज़ादी की नुक्ती
कोई एक महीने बाद वो दिन आ जायेगा जब हम अपनी 'आज़ादी' की एक और सालगिरह मनाएंगे.
हमारी ही तरह कइयों के लिये हर दिन की तरह महज़ एक दिन की हैसियत रखनेवाला ये दिन इतनी टीस तो समोए हुए है कि हम अपनी ग़ुलामी का एह्सास कर सकें. हमारे प्रायमरी स्कूल में तब तीन दिन पहले से ही तैयारियां शुरू हो जाती थीं. हम पास की नदी के किनारे से बेहाया (बेहया या पामबेल) की टहनियां तोड-तोड कर स्कूल पहुंचाते और देर शाम तक उन डंडियो में झंडियां लगाते. ये तिरंगी झंडियां भी हम ही बनाते थे. गीत-नाटक और देश भक्ति के आइटम हफ्तों से तैयार होने लगते थे. प्रभात फेरी करते हुए हम 'वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो, सामने पहाड हो सिंह की दहाड हो' ज़ोर-ज़ोर से गाते और 'भारत माता की जय' 'महात्मा गांधी अमर रहें' 'स्वतंत्रता दिवस अमर रहे' के नारे लगाते.
राष्ट्रगान सुन कर लेटे से खडे हो जाना और रेडियो पर भी राष्ट्रधुन सुनते ही सावधान की मुद्रा में आ जाना लंबे समय तक चला. दस साल पहले जिस दिन् आज़ादी की पचासवीं सालगिरह मनाई जा रही थी, हम(मैं और मित्र संजय जोशी)एक सेकेंड हैंड साइकिल खरीदने ईस्ट ऑफ़ कैलाश जा रहे थे. हमने फ़्री ऎड्स में एक मुफ़्त विग्यापन छपवाया था कि एक साइकिल चाहिये. विग्यापन के जवाब में सुबह तब एक फ़ोन आया था जब लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री देश की उपलब्धियों की सूची गिनाने की तैयारी कर रहे थे. बहुत बार्गेनिंग के बाद साढे चार सौ रुपये की सायकिल खरीद कर हमने उस छुट्टी के दिन कहीं एक पंचरवाला ढूंढा था और हवा भरवाकर बारी बारी से एक दूसरे को बैठा कर हम सायकिळ चलाते हुए पटपडगंज तक आये थे.रास्ते में कई साइकिलों और रिक्शों पर लगे प्लास्टिक के तिरंगों की फडफडाहट हमें याद दिलाती रही कि हम आज़ाद हैं. उन्हीं दिनों बच्चों की कहानियों का एक संग्रह हमारे हाथ लगा जिसमें राजनारायण दुबे की लिखी एक कहानी हमें आज़ादी की सालगिरह पर हमारे जैसे कई लोगों की भावनाओं का प्रतिबिंब लगी. संग्रह एकलव्य,भोपाल ने प्रकाशित किया है. भाई अनामदास की बताई परतदार हक़ीक़तों को हवा देती ये कहानी आप भी पढिये.
आज़ादी की नुक्ती
15 अगस्त के कारण हमने एक दिन पहले से कपडे धो रखे थे. 15 अगस्त के दिन हमने सबेरे 5 बजे उठकर मुंह-हाथ धोए और नहाया. फिर हमने चाय पी और उसके बाद हम ड्रेस पहनकर, जूते-मोज़े पहनकर बढिया तैयार होकर स्कूल गये.
वहां हम थोडे घूमे-फिरे और फूटे खाये. इतने में सर आ गये और कहने लगे चलो लाइन में लगो. हम लाइन में लग गये. एक मोडा हमरी लाइन में लगो. हमने बाके दो-चार करारे हाथ जमाए. इत्ते में बो मास्साब के पास पहुंच गओ. मासाब से बा ने कही कि मासाब मोहे एक मोडा ने मार दओ. तब मासाब मेरे पीछे दौडे तई हमने भग दओ और सिंधी कालोनी की गलियों में घूमते रहे और बुद्धा के खेत में से हीट के गल्ले बाजार पहुंचे. भा पे भाषण भये. भाषण सुन-सुन के हमरो दिमाग पच गओ. भाषण खतम भये हम सब स्कूल आए. हम लाइन में लगे नुक्ती बंट रही थी.
फिर बोई मोडा मिल गओ. बो फिर हमसे उलझन लगो. हमने बाको इत्तो-मारो इत्तो-मारो कि बाहे बेहोश कर दओ. हमें एक पुडिया नुक्ती मिली. उत्तीसी नुक्ती के पीछे हम दिन भर परेशान रहे और नुक्ती खात-खात घर आ गए.
Tuesday, July 10, 2007
मैं अकेली नहीं हूं
मातृत्व: कुछ छवियां
पहाड की चोटियों से लेकर समुद्र तक
रात अकेली पडी हुई है
लेकिन मैं जो तुम्हारा पालना झुला रही हूं,
अकेली नहीं हूं.
समुद्र में चांद के डूब जाने के बाद
आसमान अकेला रह गया है
लेकिन मैं जो तुमसे जुडी हुई हूं,
अकेली नहीं हूं.
सारा संसार अकेला हो गया है
सब यातनाएं भुगत रहे हैं
लेकिन मैं जो अपनी गोद में
तुम्हें भरे हुए हूं अकेली नहीं हूं.
गैब्रिएला मिस्ट्राल
अनुवाद: स्नेहमयी चौधरी
Monday, July 9, 2007
बुन रही हूं एक शरीर
मातृत्व: एक छवि
अब मैं सडकों पर नहीं जा सकती
मेरी कमर मोटी हो गयी है,
आंखों के नीचे गहरे काले गड्ढे बन गये हैं
इन सब को देख मुझे शर्म आती है
लेकिन फूलों से भरी हुई एक डोलची ले आओ
और मेरे पास, बिल्कुल मेरे पास उसे रखो.
धीरे-धीरे बाजे पर कोई मधुर लय सुनाओ.
उसके लिये, सिर्फ़ उसके लिये
मैं संसार में डूब जाना चाहती हूं,
मैं अपने शरीर को गुलाब से सजाती हूं
और सोते हुए उसको सुनाती हूं शाश्वत गीत
बाग़ों में बैठ घंटों मैं संजोती हूं सूरज का ताप
कि मुझमें फलों के रस-सा
शहद घुल जाये.
चीड के वनों से आती हुई हवा
मुझे शीतल बना जाती है,
रोशनी और हवा मेरे रक्त को गाढा और
शुद्ध कर दे
उसे स्वच्छ बनाने के लिये मैं अब न तो
घृणा ही करूंगी और न गपशप. केवल प्रेम
क्योंकि इस निस्तब्धता में मैं
बुन रही हूं एक शरीर,
एक चेहरा, आंखें
और हृदय निष्पाप !
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1954 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित चिली की कवयित्री गैब्रिएला मिस्ट्राल.
पेशे से अध्यापिका रही गैब्रिएला आजीवन अविवाहित रहीं. कविताओं का अनुवाद स्नेहमयी चौधरी ने किया है. मातृत्व पर उनकी छः कविताओं मे से एक यहां पेश की जाती है. यह डॉ भावना को दिल के दरम्यां और मुक्ता जी को सादर भेंट है.
Sunday, July 8, 2007
एक रुपये का नोट और प्यार
ऐसा नहीं था कि उन्हें प्यार नहीं हुआ. बस दुश्वारी ये थी कि प्यार में भी वो होश में रहते थे. होश और प्यार का रिश्ता तो आप जानते/ती हैं कि चोली दामन का नहीं है. चोली की भली चलाई. उसकी इमेज ही काफ़ी है टु पुट यू ऑन. लेकिन ये बात यहां नहीं होगी. तो हुआ ये कि उसने जब पहला ख़त लिखा तो उसे वार्डेन ने खोल लिया और बात फैलते-फैलते बची. उसे जब पता चला कि ख़त खुल गया था तो उसने अपना तीसरा नेत्र खोला. अबकी बार ख़त बैरंग भेजा गया. खत के अंदर दो चीज़ें निकलीं- एक तो बहुत सा प्यार और दूसरा एक रुपये का नोट. लिखा था- ये ख़त आप तक ही पहुंचे इसलिये बैरंग भेज रही हूं और चुकाने के पैसे आप पर भारी न पडें इसके लिये ये एक रुपये का नोट भेज रही हूं. खत छुडा लिया गया था और अब ये एक रुपये का नोट था जो यादों में चुभने को दुनिया के सभी नोटों पर भारी था. आज भी वो एक रुपये का नोट उनके पास है. इसमें दुनिया भर की दौलत पर भारी पडने का वज़न है. ये एक टाइम मशीन है जिसे उनसे कोई नहीं छीन सकता.
एक ख़्वाब मेरे नज़दीक आता जा रहा है
रात का सन्नाटा
रात का सन्नाटा
झील की तारीकी में चप्पू चला रहा है
आहिस्ता-आहिस्ता
एक ख़्वाब मेरे नज़दीक आता जा रहा है
खंडहर हो गये महल की परछाइयां पीछे छूट गयी हैं
दिये की लौ में आफताब सिमट आया है
और मुस्तक़बिल किसी नवेली की तरह रूबरू हो उठा है
मैं तुम्हीं से मुख़ातिब हूं मेरे हमसफ़र!
चांदनी रात में पडे ओलों की तरह
मैंने ख़ुद को किसी करिश्मे के हाथों सौंप दिया है
कल सुबह मैं सूरज की किरन के साथ
कंवलों के ख़ूबसूरत तहख़ानों को खोल दूंगा
मेरा तवील सफ़र एक मंज़िल की तलाश था
रात को बाआवाज़ बनाती वह मंज़िल
ख़ुद मेरे पास आ गयी है
कस्तूरी की महक मेरे चारों तरफ़ है
उफ़क़ मेरे सामने हाथ बांधे खडा है
कल मैं समुंदर को नया नाम दूंगा
आसमान को नये चांद-सूरज से सजाऊंगा
और एक लम्हा मेरी आंखों के इशारे पर
एक नयी दुनिया की तामीर करेगा
मैं तुम्हीं से मुख़ातिब हूं, मेरे हमसफ़र!
मेरी सोच और ख़्वाबों के हिस्सेदार!!
मेरी दुनिया का नया सफ़र तुम्हीं से शुरू होता है...आमीन!
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अब हमारी क्या बिसात कि हम भी कुछ लिख सकें...सारे नुक़्ते और सारे एहसास यारों की क़लम से चुकते हुए. अब इसी लाइन को लिखने में देखिये मुझे अब तक सीखी ज़बान की कैसे कसरतें करनी पडीं और लाइन ग़लत ही कंस्ट्रक्ट हुई. लेकिन तब हम उतना नहीं डरते थे, जितना अब डरते हैं. एक बार जब किशोर कुमार के पिता ने फ़िल्म में उनसे कहा कि 'बेटा किशोर! अब तुम जवान हो गये हो." तो जवाब में किशोर कुमार ने कहा था कि "और पिताजी!जवानी दिवानी होती है" तो इसी दिवानी जवानी के जोश में हमने अपनी प्रेमिका को निम्नलिखित कविता भेज दी. आजकल ब्लॉग की मंडी में ऐसी कविताओं की पैकेजिंग की भारी मांग को देखते हुए यहां ठेलता हूं--
(गुलज़ार प्रेमी जल उठते हैं ये पढकर क्योंकि अब तक बादलों को काटकर सीने का कौशल उन्हीं के पास था)
एक कुंवारा जग का मारा
पापा से ज़्यादा उन्हें मम्मी की याद आती थी. मम्मी! देखो ये सब्जीवाला डांट रहा है. मम्मी! देखो पैर में पॉटी लग गयी. मम्मी! तौलिया दे दो... सुन-सुनकर मम्मी आजिज़ आ गयी थीं. उनको तो हर चीज़ के लिये मम्मी का सहारा चाहिये था. पहली बार जब कॉलेज में राहुल ने उन्हें सिगरेट पिलाई तो घर लौटकर मम्मी से बोले- मम्मी सिगरेट से धुआं निकलता है, मेरे पेट में भी राहुल ने धुआं उंडेल दिया, कुल्ला कर लूं. मम्मी को समझ में आ गया था कि लडके की शादी कर देनी चाहिये. उन्हें लडकियों से बहुत शर्म आती थी और राहुल गंदी-गंदी बातें करता था. अब तो कॉलेज छोडे हुए तीस साल हो गये लेकिन मम्मी का दामन तीस सेकेंड को भी नहीं छूटा. आखिरी बार जब श्वेता ने मैकडॉनल्ड चलने को कहा तो मम्मी ने अपना बटुआ डाइनिंग टेबल पर छोड रखा था कि वो ले लेंगे जितने भी पैसे चाहिये. लेकिन आवाज़ आई मम्मी! श्वेता को कितनेवाला पिज़्ज़ा खिलाऊं! मम्मी ने टीवी का वॉल्यूम ऊंचा कर दिया था.
आज उन्हें हर लडकी पिज़्ज़ा खानेवाली लगती है और सबसे उन्होंने किनारा कर लिया है, जब पिज़्ज़ा कॉर्नर पर ही खडा रहना है तो पिज़्ज़ा का बिज़नेस न कर लिया जाये? उन्होंने यह एक रात अधनींद में सोचा था लेकिन उसी सुबह उन्हें अपनी चड्ढी कुछ गीली लगी थी. आजकल एक लैपटॉप पर बैठे अक्सर वो शाही शफ़ाख़ाना की साइट पर होते हैं मम्मी भी कभी उनके कमरे में नहीं जातीं. शांताबाई ने एक दिन बताया था- "कम्पूटर पर भैया जी गंदी-गंदी फ़ोटो देखते हैं."
अब तो एसी की ठंडी हवा से उनका रंग पीला पड गया है और राहुल का फोन वो अटेंड नहीं करते.
इब्नबतूता का इंडिया ट्रैवेल शो- तीन
उनमें जो दो मुसलमान थे उन्होंने अपने साथियों में एक आदमी की तरफ़ इशारा करते हुए मुझे बताया कि यह इनका सरदार है. और यह भी कि ये लोग तुझे ज़रूर ही मार डालेंगे. मैंने इन्हीं मुसलमानो की मार्फ़त उनसे गुज़ारिश शुरू की कि वे मुझे छोड दें. इस बीच सरदार ने मुझे एक बूढे, उसके बेटे और एक कमीने काले आदमी के सुपुर्द किया और उन्हें कुछ हिदायतें देकर चलता किया. मैं अपनी मौत का फ़रमान समझ न सका.
ये तीनों मुझे उठाकर एक घाटी की तरफ़ ले चले लेकिन रास्ते में उस काले आदमी को बुखार आ गया और वो मेरे ऊपर अपनी दोनों टांगे रखकर सो गया. थोडी देर बाद वो बूढा और उसका बेटा- दोनों, सो गये. सुबह होते ही ये तीनों आपस में बातें करने लगे और मुझको सरोवर तक चलने का इशारा करने लगे. अब मैं अच्छी तरह समझ गया था कि अब मेरी ज़िन्दगी का आखिरी लम्हा नज़दीक है. मैनें एक बार फिर बूढे से अपनी जान की बख़्शीश चाही...इस बार उसका कलेजा पसीज गया.
यह देख मैंने अपने कुर्ते की दोनों आस्तीनें फाडीं और उसे दे दीं ताकि वापस लौट कर वो अपने साथियों को आस्तीनें दिखाते हुए कह सकें कि क़ैदी भाग गया.
इतने में हम सरोवर के पास आ गये और हमारे कानों में वहां पहले से मौजूद कुछ लोगों की आवाज़ें पड्ने लगीं,
बूढे ने भांप लिया कि वो उसके साथी ही हैं जो वहां पहुंच चुके हैं. उसने मुझे इशारे से पीछे होने को कहा.सरोवर पर पहुंच कर मैने पाया कि वहां बहुत से आदमी इकट्ठा हैं. इन लोगों ने बूढे से अपने साथ चलने को कहा लेकिन बूढे और उसके साथियों ने इनकार कर दिया.
बूढे और उसके साथियों ने अपने साथ लायी रस्सी खोलकर ज़मीन पर रख दी और मेरे सामने बैठ गये. यह देख मैने ये समझा कि इस रस्सी से बांधकर वो मुझे मार डालना चाहते हैं. फिर तीन आदमी इनके पास आये और कुछ खुसुर फुसुर करने लगे. मैने अंदाज़ा लगाया कि वो ये पूछ रहे हैं कि इस आदमी को अभी तक मारा क्यों नहीं गया. यह सुन बूढे ने काले आदमी की तरफ़ इशारा करके कहा कि इसको बुखार आ गया था इसलिये अभी तक काम पूरा नहीं हुआ है. उनमें एक बेहद ख़ूबसूरत और नौजवान आदमी भी था, उसने अब मेरी तरफ़ देखकर इशारे से पूछा कि क्या तू आज़ाद होना चाहता है? मेरे 'हां' करने पर उसने मुझे जाने की इजाज़त दे दी और एक राह की तरफ़ दिखाते हुए बोला कि इसी राह चला जा.
मैं चल तो दिया लेकिन दिल में अब भी डर था कि कहीं और लोग मुझे देख न लें. बांस का जंगल देख मैं उसी में हो रहा और सूरज ढलने तक वहीं छिपा रहा. रात होते ही मैं वहां से निकल कर वही राह पकड चलने लगा. थोडी देर बाद मुझे पानी दिखा, मैने पानी पिया और फिर चल दिया. मैं रात का तीसरा पहर बीतने तक चलता रहा. इतने में एक पहाड आ गया और मैं उसके नीचे पडकर सो गया.
सुबह होते ही मैने फिर चलना शुरू किया और दोपहर होने तक एक ऊंची पहाडी पर जा पहुंचा. यहां कीकड और बेरी की भरमार थी. मैने भरपूर बेर खाए और मिटाई. कांटो ने मेरे पैर इस तरह छलनी कर दिये कि आज भी उनके निशान मौजूद हैं.
(आगे अभी और है...किस तरह की तकलीफ़ें और सतरंगे तजुर्बे मिले इब्नबतूता को इस सफ़र में)
वही, पृष्ठ 169-170
उनमें जो दो मुसलमान थे उन्होंने अपने साथियों में एक आदमी की तरफ़ इशारा करते हुए मुझे बताया कि यह इनका सरदार है. और यह भी कि ये लोग तुझे ज़रूर ही मार डालेंगे. मैंने इन्हीं मुसलमानो की मार्फ़त उनसे गुज़ारिश शुरू की कि वे मुझे छोड दें. इस बीच सरदार ने मुझे एक बूढे, उसके बेटे और एक कमीने काले आदमी के सुपुर्द किया और उन्हें कुछ हिदायतें देकर चलता किया. मैं अपनी मौत का फ़रमान समझ न सका.
ये तीनों मुझे उठाकर एक घाटी की तरफ़ ले चले लेकिन रास्ते में उस काले आदमी को बुखार आ गया और वो मेरे ऊपर अपनी दोनों टांगे रखकर सो गया. थोडी देर बाद वो बूढा और उसका बेटा- दोनों, सो गये. सुबह होते ही ये तीनों आपस में बातें करने लगे और मुझको सरोवर तक चलने का इशारा करने लगे. अब मैं अच्छी तरह समझ गया था कि अब मेरी ज़िन्दगी का आखिरी लम्हा नज़दीक है. मैनें एक बार फिर बूढे से अपनी जान की बख़्शीश चाही...इस बार उसका कलेजा पसीज गया.
यह देख मैंने अपने कुर्ते की दोनों आस्तीनें फाडीं और उसे दे दीं ताकि वापस लौट कर वो अपने साथियों को आस्तीनें दिखाते हुए कह सकें कि क़ैदी भाग गया.
इतने में हम सरोवर के पास आ गये और हमारे कानों में वहां पहले से मौजूद कुछ लोगों की आवाज़ें पड्ने लगीं,
बूढे ने भांप लिया कि वो उसके साथी ही हैं जो वहां पहुंच चुके हैं. उसने मुझे इशारे से पीछे होने को कहा.सरोवर पर पहुंच कर मैने पाया कि वहां बहुत से आदमी इकट्ठा हैं. इन लोगों ने बूढे से अपने साथ चलने को कहा लेकिन बूढे और उसके साथियों ने इनकार कर दिया.
बूढे और उसके साथियों ने अपने साथ लायी रस्सी खोलकर ज़मीन पर रख दी और मेरे सामने बैठ गये. यह देख मैने ये समझा कि इस रस्सी से बांधकर वो मुझे मार डालना चाहते हैं. फिर तीन आदमी इनके पास आये और कुछ खुसुर फुसुर करने लगे. मैने अंदाज़ा लगाया कि वो ये पूछ रहे हैं कि इस आदमी को अभी तक मारा क्यों नहीं गया. यह सुन बूढे ने काले आदमी की तरफ़ इशारा करके कहा कि इसको बुखार आ गया था इसलिये अभी तक काम पूरा नहीं हुआ है. उनमें एक बेहद ख़ूबसूरत और नौजवान आदमी भी था, उसने अब मेरी तरफ़ देखकर इशारे से पूछा कि क्या तू आज़ाद होना चाहता है? मेरे 'हां' करने पर उसने मुझे जाने की इजाज़त दे दी और एक राह की तरफ़ दिखाते हुए बोला कि इसी राह चला जा.
मैं चल तो दिया लेकिन दिल में अब भी डर था कि कहीं और लोग मुझे देख न लें. बांस का जंगल देख मैं उसी में हो रहा और सूरज ढलने तक वहीं छिपा रहा. रात होते ही मैं वहां से निकल कर वही राह पकड चलने लगा. थोडी देर बाद मुझे पानी दिखा, मैने पानी पिया और फिर चल दिया. मैं रात का तीसरा पहर बीतने तक चलता रहा. इतने में एक पहाड आ गया और मैं उसके नीचे पडकर सो गया.
सुबह होते ही मैने फिर चलना शुरू किया और दोपहर होने तक एक ऊंची पहाडी पर जा पहुंचा. यहां कीकड और बेरी की भरमार थी. मैने भरपूर बेर खाए और मिटाई. कांटो ने मेरे पैर इस तरह छलनी कर दिये कि आज भी उनके निशान मौजूद हैं.
(आगे अभी और है...किस तरह की तकलीफ़ें और सतरंगे तजुर्बे मिले इब्नबतूता को इस सफ़र में)
वही, पृष्ठ 169-170
Saturday, July 7, 2007
इब्नबतूता का इंडिया ट्रैवेल शो - दो
कोल(अलीगढ) आने पर खबर मिली कि शहर से सात मील की दूरी पर जलाली नाम के क़स्बे के हिंदुओं ने बग़ावत कर दी है. वहां के लोग हिंदुओं का सामना तो कर रहे थे लेकिन अब उनकी जान पर आ बनी थी. हिंदुओं को हमारे आने की ख़बर न थी. हमने हमला कर के सभी हिंदुओं को मार डाला, यानी तीन हज़ार सवार और एक हज़ार पैदल को मार कर उनके घर और हथियार वग़ैरह सब क़ब्ज़े में ले लिये...इस वाक़ये की ख़बर सुल्तान को देकर हम जवाब के इंतज़ार में इसी शहर में ठहर गये.
पहाडों से निकलकर हिंदू रोज़ जलाली क़स्बे पर हमला किया करते थे और हमारी तरफ से भी 'अमीर' हम सब को साथ लेकर उनका सामना करने जाया करता था.
एक दिन मैं सबके साथ घोडों पर सवार होकर बाहर गया. गर्मियों का महीना, हम एक बाग़ में घुसे ही थे कि शोर सुनाई दिया और हम गांव की तरफ़ मुड पडे. इतने में कुछ हिंदू हमारे ऊपर आ टूटे. लेकिन जब हमने सामना किया तो उनके पांव न टिके. ये देख हमारे साथियों ने अलग-अलग दिशाओं में उनका पीछा करना शुरू किया. मेरे साथ उस वक़्त सिर्फ़ पांच आदमी थे. मैं भी भगेडुओं का पीछा कर रहा था कि अचानक एक झाडी में से निकल कर कुछ सवार और पदातियों ने मुझ पर हमला किया. गिनती में कम होने की वजह से हमने अब भागना शुरू कर दिया, दस आदमी हमारा पीछा कर रहे थे. हम बस तीन थे, ज़मीन पथरीली थी और राह दिखाई न देती थी.मेरे घोडे की अगली टांगें तक पत्थरों में अटक गईं. लाचार होकर मै नीचे उतरा, उसके पैर निकाले और फिर सवार होकर चला.
इस मुल्क में दो तलवारें रखने का रिवाज है. एक जीन में लटकाई जाती है जिसको 'रकाबी' कहते हैं और दूसरी कमर में लटकाई जाती है.
मैं कुछ ही आगे बढा था कि मेरी रकाबी म्यान से निकल कर गिर पडी. उसकी मूठ सोने की थी इसलिये मैं फिर नीचे उतरा और उसे ज़मीन से उठाकर जीन में रखा और चल पडा.दुश्मन मेरा पीछा अब भी कर रहे थे.मैं एक गड्ढा देख उसी में उतर गया और उनकी नज़रों से ओझल हो गया.
गड्ढे के बीच से एक राह जाती थी. यह न जानते हुए भी वो कहां को जाती है, मैं उसी पर हो लिया. लेकिन अभी कुछ ही दूर गया होऊंगा कि अचानक चालीस आदमियों ने मुझे घेर लिया, उनके हाथों में तीर-धनुष थे. मेरे बदन पर कवच नहीं था इसलिये मैं भागा नहीं वरना तीरों से मुझे छलनी कर दिया जाता. मैं ज़मीन पर लेट गया, ताकि वो जान जायें कि मैं उनका क़ैदी हूं. ऐसा करनेवाले को ये कभी नहीं मारते हैं. लबादा, पैजामा और क़मीज़ के अलावा ये मेरे सारे कपडे उतार कर मुझे एक झाडी के भीतर ले गये. इसी जगह पेडों से घिरे एक तालाब के किनारे ये ठहरे हुए थे.
यहां पहुंचकर इन्होंने मुझे उरद की रोटी दी. खाने के बाद मैने पानी पिया.
उनके साथ दो मुसलमान भी थे जिन्होने फ़ारसी ज़बान में मेरा तार्रुफ़ पूछा. मैंने अपने बारे में सब कुछ बता दिय लेकिन ये न बताया कि मैं सुल्तान का ख़ादिम हूं.
(आगे है अभी कि किस तरह इब्नबतूता को मौत की सज़ा सुनाई गयी.)
कोल(अलीगढ) आने पर खबर मिली कि शहर से सात मील की दूरी पर जलाली नाम के क़स्बे के हिंदुओं ने बग़ावत कर दी है. वहां के लोग हिंदुओं का सामना तो कर रहे थे लेकिन अब उनकी जान पर आ बनी थी. हिंदुओं को हमारे आने की ख़बर न थी. हमने हमला कर के सभी हिंदुओं को मार डाला, यानी तीन हज़ार सवार और एक हज़ार पैदल को मार कर उनके घर और हथियार वग़ैरह सब क़ब्ज़े में ले लिये...इस वाक़ये की ख़बर सुल्तान को देकर हम जवाब के इंतज़ार में इसी शहर में ठहर गये.
पहाडों से निकलकर हिंदू रोज़ जलाली क़स्बे पर हमला किया करते थे और हमारी तरफ से भी 'अमीर' हम सब को साथ लेकर उनका सामना करने जाया करता था.
एक दिन मैं सबके साथ घोडों पर सवार होकर बाहर गया. गर्मियों का महीना, हम एक बाग़ में घुसे ही थे कि शोर सुनाई दिया और हम गांव की तरफ़ मुड पडे. इतने में कुछ हिंदू हमारे ऊपर आ टूटे. लेकिन जब हमने सामना किया तो उनके पांव न टिके. ये देख हमारे साथियों ने अलग-अलग दिशाओं में उनका पीछा करना शुरू किया. मेरे साथ उस वक़्त सिर्फ़ पांच आदमी थे. मैं भी भगेडुओं का पीछा कर रहा था कि अचानक एक झाडी में से निकल कर कुछ सवार और पदातियों ने मुझ पर हमला किया. गिनती में कम होने की वजह से हमने अब भागना शुरू कर दिया, दस आदमी हमारा पीछा कर रहे थे. हम बस तीन थे, ज़मीन पथरीली थी और राह दिखाई न देती थी.मेरे घोडे की अगली टांगें तक पत्थरों में अटक गईं. लाचार होकर मै नीचे उतरा, उसके पैर निकाले और फिर सवार होकर चला.
इस मुल्क में दो तलवारें रखने का रिवाज है. एक जीन में लटकाई जाती है जिसको 'रकाबी' कहते हैं और दूसरी कमर में लटकाई जाती है.
मैं कुछ ही आगे बढा था कि मेरी रकाबी म्यान से निकल कर गिर पडी. उसकी मूठ सोने की थी इसलिये मैं फिर नीचे उतरा और उसे ज़मीन से उठाकर जीन में रखा और चल पडा.दुश्मन मेरा पीछा अब भी कर रहे थे.मैं एक गड्ढा देख उसी में उतर गया और उनकी नज़रों से ओझल हो गया.
गड्ढे के बीच से एक राह जाती थी. यह न जानते हुए भी वो कहां को जाती है, मैं उसी पर हो लिया. लेकिन अभी कुछ ही दूर गया होऊंगा कि अचानक चालीस आदमियों ने मुझे घेर लिया, उनके हाथों में तीर-धनुष थे. मेरे बदन पर कवच नहीं था इसलिये मैं भागा नहीं वरना तीरों से मुझे छलनी कर दिया जाता. मैं ज़मीन पर लेट गया, ताकि वो जान जायें कि मैं उनका क़ैदी हूं. ऐसा करनेवाले को ये कभी नहीं मारते हैं. लबादा, पैजामा और क़मीज़ के अलावा ये मेरे सारे कपडे उतार कर मुझे एक झाडी के भीतर ले गये. इसी जगह पेडों से घिरे एक तालाब के किनारे ये ठहरे हुए थे.
यहां पहुंचकर इन्होंने मुझे उरद की रोटी दी. खाने के बाद मैने पानी पिया.
उनके साथ दो मुसलमान भी थे जिन्होने फ़ारसी ज़बान में मेरा तार्रुफ़ पूछा. मैंने अपने बारे में सब कुछ बता दिय लेकिन ये न बताया कि मैं सुल्तान का ख़ादिम हूं.
(आगे है अभी कि किस तरह इब्नबतूता को मौत की सज़ा सुनाई गयी.)
Friday, July 6, 2007
इब्नबतूता का इंडिया ट्रैवेल शो
बदाऊं में मैने दादा शेख़ फ़रीदउद्दीन बदाऊंनी की मज़ार पर ज़ेयारत की. दरगाह से लौटने पर देखता क्या हूं कि जिस जगह पर हमने ख़ेमे गाडे थे उस तरफ़ से लोग भागे चले आते हैं.इनमें हमारे आदमी भी थे. पूछ्ने पर उन्होंने बताया कि एक हिंदू मर गया है, चिता तैयार के गयी है और उसके साथ उसकी बीवी भी जलेगी. उन दोनों के जलाए जाने के बाद हमारे साथियों ने लौटकर कहा कि वो औरत तो लाश से चिपट कर जल गयी.
एक बार मैंने भी एक औरत को बनाव-सिनंगार किये घोडे पर चढ कर जाते हुए देखा था. हिंदू और मुसलमान इस औरत के पीछे चल रहे थे.आगे-आगे नौबत बजती जाती थी, और ब्राह्मण साथ-साथ थे. हाकिम की इजाज़त मिलने पर यह औरत जलाई गई.
एक वाक़या और याद आया. तब मैं 'अबरही' नगर में था, जहां के ज़्यादातर लोग हिंदू थे लेकिन हाकिम मुसलमान था. इस इलाक़े के कुछ हिंदू ऐसे थे जो हमेशा बादशाह की हुक्मउदूली किया करते थे. एक बार इन लोगों ने छापा मारा तो अमीर हिंदू-मुसलमानों को लेकर इनका सामना करने गया. लडाई हुई और हिंदू रियाया में से सात अफराद हलाक हुए. इनमें से तीन की औरतें भी थीं.और उन्होंने सती होने का इरादा ज़ाहिर किया.हिंदुओं में हर विधवा के लिये सती होना ज़रूरी नहीं है लेकिन शौहर के साथ औरत के जल जाने से खानदान की इज़्ज़त बढ जाती है. औरत को भी पतिव्रता गिना जाने लगता है. सती न होने पर विधवा को मोटे-मोटे कपडे पहनकर बेहद तकलीफ़ज़दा ज़िंदगी जीनी पडती है और उसे पतिपरायण भी नहीं समझा जाता.
हां, तो फिर इन तीनों औरतों ने तीन दिन तक ख़ूब गाया-बजाया और तरह-तरह के खाने खाये, जैसे ये दुनिया से विदा ले रही थीं.इनके इर्द-गिर्द चारों तरफ की औरतों का जमघट लगा रहता था. चौथे दिन इनके पास ग़्होडे लाये गये और ये तीनों बनाव-सिंगार कर, ख़ुशबुएं लगा कर तैयार हो गईं. उनके दाहिने हाथ में एक नारियल था, जिसको ये बराबर उछाल रही थीं और बाऎ हाथ में एक आईना था जिसमें ये अपना चेहरा देखती थीं. चारों तरफ ब्राहमणों और रिश्तेदारों की भीड लग रही थी. आगे-आगे नगाडे और नौबत बजती जाती थी. हर हिंदू आकर अपने मृत मां-बाप-भाई-बहन और नातेदारों-दोस्तों के लिये इनसे प्रणाम कहने को कह देता था और ये 'हां-हां' कहती और हंसती चली जाती थीं. मैं भी दोस्तों के साथ यह देखने को चल दिया कि ये किस तरह से जलती हैं. तीन कोस तक जाने के बाद हम एक ऐसी जगह पर पहुंचे जहां बहुत पानी था, घने पेड थे और इसलिये अंधेरा छाया हुआ था. यहां चार गुंबद बने थे और हरेक में एक-एक देवता की मूर्ति थी. इन चारों मंदिरों के बीच में एक ऐसा तालाब था जिस पर पेडों की घनी छाया होने की वजह से धूप नाम को भी न थी.
घने अंधेरे में ये जगह नरक जैसी लग रही थी. मंदिरों के पास पहुंचने पर ये औरतों नहाईं और इन्होंने कुंड में डुबकी लगाई. गहने और कपडे उतार कर रख दिये और उनकी जगह मोटी साडियां पहन लीं. कुंड के पास एक नीची जगह में आग दहकाई गई. सरसों का तेल डालने पर उसमें से ऊंची-ऊची लपटें निकलने लगीं. पंद्रह आदमियों के हाथ में लकडियों के गठ्ठे बंधे हुए थे और दस आदमी अपने हाथों में बडे-बडे लकडी के कुंदे लिये खडे थे. नगाडे-नौबत और शहनाई बजानेवाले औरतों के इंतज़ार में खडे थे. लोगों ने आग को एक रज़ाई की ओट में कर लिया था ताकि औरतों की नज़र उधर न पडे लेकिन इनमें से एक औरत ने रज़ाई को ज़बर्दस्ती खींचकर कहा कि क्या मैं जानती नहीं कि ये आग है, मुझे क्या डराते हो? इतना कहकर वो अग्नि को प्रणामकर फ़ौरन उसमें कूद पडी. बस नगाडे-ढोल-शहनाई और नौबत बजने लगी. आदमियों ने अपने हाथों की पतली लकडियां आग में डालनी शुरू कर दीं और फिर बडे-बडे कुंदे भी डाल दिये जिससे औरत की हरकत बंद हो जाये. वहां मौजूद लोग भी चिल्लाने लगे. मैं ये दिल दहलाने वाला मंज़र देखकर बेहोश हो घोडे से गिरने ही को था कि मेरे दोस्तों ने मुझे संभाल लिया और मेरा मुंह पानी से धुलवाया. आपे में आनेपर मैं वहां से लौट आया.
(इब्नबतूता की भारत यात्रा...पृष्ठ 25)
इब्नबतूता अरब देश से 14वीं शताब्दी में भारत आया था. भारत में मौलाना बदरुद्दीन और दूसरे पूर्वी देशों में शेख़ शम्सुद्दीन कहे जानेवाले इस इतिहास-प्रसिद्ध यायावर का असली नाम अबू अब्दुल्ला मोहम्मद था. ये जब 22 साल का था तो दुनिया की ख़ाक छानने निकल पडा था और लगातार 30 साल तक घूमता ही रहा था. उस ज़माने में कोई 75000 मील का सफर आसान न था एक बार तो भारतीय समुद्री डाकुओं ने उसे ऐसा लूटा कि उसकी कुछ महत्वपूर्ण पांडुलिपियां भी जाती रहीं. 73 साल की उम्र में वह अपने देश में ही मरा. दुनिया में वो घुमक्कडों का सुल्तान माना जाता है.
एक बार मैंने भी एक औरत को बनाव-सिनंगार किये घोडे पर चढ कर जाते हुए देखा था. हिंदू और मुसलमान इस औरत के पीछे चल रहे थे.आगे-आगे नौबत बजती जाती थी, और ब्राह्मण साथ-साथ थे. हाकिम की इजाज़त मिलने पर यह औरत जलाई गई.
एक वाक़या और याद आया. तब मैं 'अबरही' नगर में था, जहां के ज़्यादातर लोग हिंदू थे लेकिन हाकिम मुसलमान था. इस इलाक़े के कुछ हिंदू ऐसे थे जो हमेशा बादशाह की हुक्मउदूली किया करते थे. एक बार इन लोगों ने छापा मारा तो अमीर हिंदू-मुसलमानों को लेकर इनका सामना करने गया. लडाई हुई और हिंदू रियाया में से सात अफराद हलाक हुए. इनमें से तीन की औरतें भी थीं.और उन्होंने सती होने का इरादा ज़ाहिर किया.हिंदुओं में हर विधवा के लिये सती होना ज़रूरी नहीं है लेकिन शौहर के साथ औरत के जल जाने से खानदान की इज़्ज़त बढ जाती है. औरत को भी पतिव्रता गिना जाने लगता है. सती न होने पर विधवा को मोटे-मोटे कपडे पहनकर बेहद तकलीफ़ज़दा ज़िंदगी जीनी पडती है और उसे पतिपरायण भी नहीं समझा जाता.
हां, तो फिर इन तीनों औरतों ने तीन दिन तक ख़ूब गाया-बजाया और तरह-तरह के खाने खाये, जैसे ये दुनिया से विदा ले रही थीं.इनके इर्द-गिर्द चारों तरफ की औरतों का जमघट लगा रहता था. चौथे दिन इनके पास ग़्होडे लाये गये और ये तीनों बनाव-सिंगार कर, ख़ुशबुएं लगा कर तैयार हो गईं. उनके दाहिने हाथ में एक नारियल था, जिसको ये बराबर उछाल रही थीं और बाऎ हाथ में एक आईना था जिसमें ये अपना चेहरा देखती थीं. चारों तरफ ब्राहमणों और रिश्तेदारों की भीड लग रही थी. आगे-आगे नगाडे और नौबत बजती जाती थी. हर हिंदू आकर अपने मृत मां-बाप-भाई-बहन और नातेदारों-दोस्तों के लिये इनसे प्रणाम कहने को कह देता था और ये 'हां-हां' कहती और हंसती चली जाती थीं. मैं भी दोस्तों के साथ यह देखने को चल दिया कि ये किस तरह से जलती हैं. तीन कोस तक जाने के बाद हम एक ऐसी जगह पर पहुंचे जहां बहुत पानी था, घने पेड थे और इसलिये अंधेरा छाया हुआ था. यहां चार गुंबद बने थे और हरेक में एक-एक देवता की मूर्ति थी. इन चारों मंदिरों के बीच में एक ऐसा तालाब था जिस पर पेडों की घनी छाया होने की वजह से धूप नाम को भी न थी.
घने अंधेरे में ये जगह नरक जैसी लग रही थी. मंदिरों के पास पहुंचने पर ये औरतों नहाईं और इन्होंने कुंड में डुबकी लगाई. गहने और कपडे उतार कर रख दिये और उनकी जगह मोटी साडियां पहन लीं. कुंड के पास एक नीची जगह में आग दहकाई गई. सरसों का तेल डालने पर उसमें से ऊंची-ऊची लपटें निकलने लगीं. पंद्रह आदमियों के हाथ में लकडियों के गठ्ठे बंधे हुए थे और दस आदमी अपने हाथों में बडे-बडे लकडी के कुंदे लिये खडे थे. नगाडे-नौबत और शहनाई बजानेवाले औरतों के इंतज़ार में खडे थे. लोगों ने आग को एक रज़ाई की ओट में कर लिया था ताकि औरतों की नज़र उधर न पडे लेकिन इनमें से एक औरत ने रज़ाई को ज़बर्दस्ती खींचकर कहा कि क्या मैं जानती नहीं कि ये आग है, मुझे क्या डराते हो? इतना कहकर वो अग्नि को प्रणामकर फ़ौरन उसमें कूद पडी. बस नगाडे-ढोल-शहनाई और नौबत बजने लगी. आदमियों ने अपने हाथों की पतली लकडियां आग में डालनी शुरू कर दीं और फिर बडे-बडे कुंदे भी डाल दिये जिससे औरत की हरकत बंद हो जाये. वहां मौजूद लोग भी चिल्लाने लगे. मैं ये दिल दहलाने वाला मंज़र देखकर बेहोश हो घोडे से गिरने ही को था कि मेरे दोस्तों ने मुझे संभाल लिया और मेरा मुंह पानी से धुलवाया. आपे में आनेपर मैं वहां से लौट आया.
(इब्नबतूता की भारत यात्रा...पृष्ठ 25)
इब्नबतूता अरब देश से 14वीं शताब्दी में भारत आया था. भारत में मौलाना बदरुद्दीन और दूसरे पूर्वी देशों में शेख़ शम्सुद्दीन कहे जानेवाले इस इतिहास-प्रसिद्ध यायावर का असली नाम अबू अब्दुल्ला मोहम्मद था. ये जब 22 साल का था तो दुनिया की ख़ाक छानने निकल पडा था और लगातार 30 साल तक घूमता ही रहा था. उस ज़माने में कोई 75000 मील का सफर आसान न था एक बार तो भारतीय समुद्री डाकुओं ने उसे ऐसा लूटा कि उसकी कुछ महत्वपूर्ण पांडुलिपियां भी जाती रहीं. 73 साल की उम्र में वह अपने देश में ही मरा. दुनिया में वो घुमक्कडों का सुल्तान माना जाता है.
Thursday, July 5, 2007
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