दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Sunday, June 29, 2008

आदमी का तीन बटा चार उर्फ़ तीन-चार आदमियों में मैं नहीं हूँ!


आदमी किसी आदमी की तरह नहीं था. उसे अपने आदमी होने पर शक से भी अधिक शक होता था. और जैसे-जैसे शक होता था, वह अपने थैले से गोबर निकाल कर फेंकता था. उत्तर में अक्सर दक्षिण से कभी फतुहावाली और कभी जगेसरी की भौजाई का आँचल सामने आ जाता था. का रे बउवा एही ठीं खरा है...खरे-खरे पिसाबौ नहीं किया? कुछ कर रे दइजरा! एतना सब छाँगुर, अछैबर और ननकू कुल अपन-अपना पतोहू के लेके चल गइलन...दू-दू गो, तिन-तिन गो छोहडा-छोहडी आँगन में टट्टी करता है....
...मन देखके जुडा जाता है.केतना निम्मन दिरिस्य देखाला.
आदमी हर बार इन बातों को हिंदी समाज के उडबुकाए-गबरचौथ का नाम देता और बदले में अपने बिग्यापोन से अपनी फोटो बदल देता. फोटो बदलकर जितना चैन उसे मिलता उतना ही चैन अनिस अंबानी को "सैस्वर्या राय की जाँघ" कहने में मिलता. कब-कहाँ और कैसे की तकलीफदेह पडताल में देह सबसे सार्थक ध्वनि थी जिसके आगे एक और फोटो था. फोटो का होना उसके न होने से बेहतर था/थी/थे और हिंदीवाले अपने नीम नशे में विभाग और पुरस्कार कर रहे थे. कभी-कभी कुछ कवि और विचारक अपने सुलझे विचारों को उलझाने में इतना प्राणायाम करते कि बथुआ का साग भी उन्हें उतना एनेर्जी नहीं देता था. गोभी-पोलाओ एक नई ईजाद था और उसे न खाने का अफ़सोस कभी गेलिसवाली पतलूनों और कभी सिगरेट जलाने की अदाओं से जुदा था.अब अदाकारी की कोई पप्पू ही सीमा तय कर सकता है और मैं भी पप्पू नहीं हूँ कि आप ही पप्पू नहीं हैं...इसे आप जाने न जानें...आदमी ज़रूर जानता है.

इस पोस्ट में गोभी पुलाओ का संदर्भ अज़दक से साभार है.

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

बड़ा अजीब लगा यह आलेख पढ़ कर। संदर्भ का अनुमान हो रहा है लेकिन स्पष्ट नहीं।

महेन said...

कुछ-कुछ अंदाज़ा हुआ आप किस ओर इशारा कर रहे हैं मगर समझ नहीं आया। कन्फ़ुज़िया गया हूँ बुरी तरह से।