Monday, June 30, 2008
छिब्बरजी अब बंबई में हैं!
विजय दीपक छिब्बर के साथ अभी पिछले हफ़्ते कोई सात बरसों से चला आ रहा लगभग रोज़ का सिलसिला टूट गया। वो अब ट्राँसफ़र होकर बंबई पहुँचे हैं और विविध भारती के साथ बतौर प्रोग्राम एग्ज़ीक्यूटिव काम करेंगे. इस तरह अब शायद हमारे आपके साथी ब्लॉगर यूनुस उनकी आगे की ख़बर हम तक पहुँचाएंगे. नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से प्रशिक्षित विजय दीपक छिब्बर फिल्मों-नाटकों और टीवी धारावाहिकों में काम करते हुए आख़िरकार जिस एक पायनियरिंग भूमिका के लिये याद किये जाएँगे, वो है नए एफ़एम रेडियो में प्रोग्रामिंग का सूत्रपात. उनके एक और सहयोगी दानिश इक़बाल इस काम में बराबर के हिस्सेदार हैं और इस तरह ये दो मूरतें तब तक जय और बीरू की तरह दिखती रहीं जब तक एफएम प्रसारण का नया मुहावरा गढ नहीं लिया गया. उसी नींव पर आज एफ़एम फल-फूल रहा है, ये अलग बात है कि प्रोग्रामिंग को बाज़ार ग़ैर-ज़रूरी मानता है.
कोई तीन साल पहले मैंने एक रिसर्च के सिलसिले में छिब्बरजी से एक लंबा इंटरव्यू किया था जिसे आज तक आपसे शेयर नहीं कर सका हूँ. कुछ तो शायद इसलिये कि इसे चापलूसी के ख़ाने में न रख दिया जाय और दूसरा इसलिये कि ब्लॉग और उसके ज़रिये शेयरिंग का मंच भी हाल ही की घटना है.
मैंने छिब्बरजी (यही हम उन्हें कहते आए हैं) के साथ काम करते हुए बहुत कुछ सीखा है और आगे भी ऐसे मौक़े हासिल करना चाहूँगा. ऐसा नहीं है कि उनसे हर बात पर सहमति ही रही हो, कई मौक़ों पर हम तीखी-बहसों में भी उलझे, जिनका मक़सद कभी प्रोग्राम तो कभी अपनी सोच में क्लैरिटी लाना रहा है.पिछले पुस्तक मेले में अशोक पांडे द्वारा अनूदित वैन गॉ की आत्मकथा से वो बडे प्रभावित हुए(अशोक ने अपनी मुलाक़ात के दौरान ये किताब उन्हें भेंट की थी) और अशोक तक अपनी बधाई भेजने को कहा, जो बधाई मैं इस पोस्ट के ज़रिये अशोक तक पहुँचाता हूँ. मुझे आज यह सोचते हुए अच्छा लगता है कि जब एफएम का दूसरा चैनेल देश में शुरू हुआ तो कई नये प्रोग्राम्स की सोच को अमली जामा पहनाने की ज़िम्मेदारी मुझे दी गई. मैं इस पोस्ट के ज़रिये छिब्बर जी की शख़्सियत और उनके निजी अनुभवों को सामने लाने के अलावा उनके उस विश्वास के प्रति सम्मान ज़ाहिर करना चाहता हूँ जो उन्होंने मुझ पर किया।
Part-1 12min
Part-2 7min
Part-3 18min
Part-4 7min
Part-5 4min
Part-6(Last) 27min
Sunday, June 29, 2008
आदमी का तीन बटा चार उर्फ़ तीन-चार आदमियों में मैं नहीं हूँ!
आदमी किसी आदमी की तरह नहीं था. उसे अपने आदमी होने पर शक से भी अधिक शक होता था. और जैसे-जैसे शक होता था, वह अपने थैले से गोबर निकाल कर फेंकता था. उत्तर में अक्सर दक्षिण से कभी फतुहावाली और कभी जगेसरी की भौजाई का आँचल सामने आ जाता था. का रे बउवा एही ठीं खरा है...खरे-खरे पिसाबौ नहीं किया? कुछ कर रे दइजरा! एतना सब छाँगुर, अछैबर और ननकू कुल अपन-अपना पतोहू के लेके चल गइलन...दू-दू गो, तिन-तिन गो छोहडा-छोहडी आँगन में टट्टी करता है....
...मन देखके जुडा जाता है.केतना निम्मन दिरिस्य देखाला.
आदमी हर बार इन बातों को हिंदी समाज के उडबुकाए-गबरचौथ का नाम देता और बदले में अपने बिग्यापोन से अपनी फोटो बदल देता. फोटो बदलकर जितना चैन उसे मिलता उतना ही चैन अनिस अंबानी को "सैस्वर्या राय की जाँघ" कहने में मिलता. कब-कहाँ और कैसे की तकलीफदेह पडताल में देह सबसे सार्थक ध्वनि थी जिसके आगे एक और फोटो था. फोटो का होना उसके न होने से बेहतर था/थी/थे और हिंदीवाले अपने नीम नशे में विभाग और पुरस्कार कर रहे थे. कभी-कभी कुछ कवि और विचारक अपने सुलझे विचारों को उलझाने में इतना प्राणायाम करते कि बथुआ का साग भी उन्हें उतना एनेर्जी नहीं देता था. गोभी-पोलाओ एक नई ईजाद था और उसे न खाने का अफ़सोस कभी गेलिसवाली पतलूनों और कभी सिगरेट जलाने की अदाओं से जुदा था.अब अदाकारी की कोई पप्पू ही सीमा तय कर सकता है और मैं भी पप्पू नहीं हूँ कि आप ही पप्पू नहीं हैं...इसे आप जाने न जानें...आदमी ज़रूर जानता है.
इस पोस्ट में गोभी पुलाओ का संदर्भ अज़दक से साभार है.
Thursday, June 26, 2008
मेरी ब्लॉग का नाम है- "गदगद" उर्फ़ हाय राम! आर्ट ऑफ़ रीडिंग वाले मेरा कोई पोस्ट काहेला नहीं चढाते?
अचकचाए हुए चिरगिल्ली मुस्कान माथा पर सजाए पहुँच तो गए सितामढी की लल्लन टाकिज में,लेकिन देखे छोहडा सब परसाद की आस में खडा है. पता नहीं कहाँ से मिर्जापुर और नबाबगंज से आ गया था सब. भऊजी ने बोलीं कि हम पकाए हैं बथुआ का साग, लेकिन हम कहे कि हम तो बस गोभी पुलाओ खाएँगे. माथा से पसीना पोछे तो निरंजन भी लगा नकल उतारने. हमको गुस्सा आ गया लेकिन हमहूँ कहे ससुर तुम हिदीवाले कभी सुधरोगे नहीं.सत्तू का बास मुंह से छोडा नहीं रहा है और चले हो मैक्डोनल का पीजा खाने? बिछौना पर अलाय-बलाय रख के जब दुलरुआ राहुलजी अपना नयका मर्सीडीज पर चलने लगे तो हम बोले कि भाई एतना हिलकोरी मत दिखाइये सिपाही दू डंटा लगाएगा और भित्तर ढुका देगा काहेकि पंजाब केसरी पढने में बस घर का अंदर निम्मन लगता है "ऎंड हाऊ योर कॉंशस एल्लाउइंग टु सिट इन अ मर्सिडीज विथाउट वोग? नेभर रीड पंजाब केसरी इन अ लक्झोरी कार."
लल्लन टाकीज वाला सब बुडबकै है. कितना बार कहे कि आप लोग इज्बान आउस्माकी, हेजीन कोबोल और जियोवानी इताल्लो का पिच्चर सब मंगवाइये इससे परगती का निसानी होता है लेकिन बुझाता उसको नहीं है.झोला में झालमुडी भर के लाता है और उसी का नस्ता करता है. परतीकवा भी उन्हीं के साथ हें-हें करता है और बारिस में बतकुन्नी का चुन्नी उढाता है. तुम्हरे बापौ ससुर खाए थे!जो तुम खाओगे? जाओ! उहाँ ईंटा पे बैठो और बिलॉग मत लिखना. देख नहीं रहे हो हम सुबह झाडा फिर के आए तभी से हाथ नहीं धोए हैं. काहे कि समय लगता है और ई हिंदी समाज हाथ धोने में इतना समय गँवा दिया कि उरभुल्ले से गुलगुल्ली भी निकल गया. हम तो जामवंत को भी खून माफ कर दिये, बलवर्द्धन को गले लगाए, बसंती और डेजी ऐसन से भी हमारा राउंड टेबल बिछाया हुआ है. फस्ट नम्बर पर भी हमारा नम्बर चल्ते रहता है. चरण वर्मा-फरण वर्मा मंटो-मंटू-मुंटू और गुप्ता पान भंडार, नाम्ग्याल, रसख्याल, फौज, इंशाअल्ला और त्रिभुवन कुमार शुक्ल को छोडायत हमारा लेखनी को तअज्जो भी नहीं देता ई सब. हम तो टट्टी वाला हाथ से भी बोलॉग लिखते हैं फिर नाम भी हम "गदगद" रखे अपने बिलॉग का. पर हाय राम आर्ट ऑफ़ रीडिंग वाले हमारा पोस्ट काहेला नहीं चढाते?
Thursday, June 19, 2008
कृपया मदद करें
मित्रो!
मैं एक कहानी की तलाश में हूँ। स्वयं प्रकाश की यह कहानी "क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा है?"
मेरे पास बरसों से है लेकिन जब ढूँढ रहा हूँ तो हाथ नहीं आ रही. आप में से अगर किसी के पास यह कहानी है तो कृपया ramrotiaaloo@gmail.com पर भेज दें। भेजने वाले को एक सरप्राइज़ अनुभव दिया जाएगा.
धन्यवाद
मैं एक कहानी की तलाश में हूँ। स्वयं प्रकाश की यह कहानी "क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा है?"
मेरे पास बरसों से है लेकिन जब ढूँढ रहा हूँ तो हाथ नहीं आ रही. आप में से अगर किसी के पास यह कहानी है तो कृपया ramrotiaaloo@gmail.com पर भेज दें। भेजने वाले को एक सरप्राइज़ अनुभव दिया जाएगा.
धन्यवाद
Tuesday, June 17, 2008
एक छात्र नेता, जो कि बाद में उत्तर प्रदेश में मंत्री बना, के मंत्रीत्व काल के भाषण से एक अंश
आदरणीय द्विवेदीजी, तिवारीजी, झाजी और परमादरणीय चौबेजी,
आज बहुत बडा कोस्चन खडा हो जाता है कि हमारे बीच आदर्स नहीं हैं. अतीत में हमारे आदर्स और उद्देस्य ससक्त थे. आदर्स थे बाबा-ए-कौम महात्मा गाँधी और उद्देस्य था देस की आजादी. गाँव से लगायत और दिल्ली की पंचायत तक. बहुत कम लोग होते हैं जिनके मन में दर्द,पीडा और बेदना होती है. मैं बनारस की धरती से आने का काम करता हूँ. गाँव में बडा अभाव है, अभाव दुनिया की सबसे खराब चीज है वह आदमी का स्वभाव बदल देता है. एक लाख से अधिक लोग आज सडक पर मरने का काम करते हैं. हमें सडक पर चलने की तमीज नहीं है.इसलिये यह जो सडक सुरक्षा सप्ताह मनाने का काम किया गया है, मैं तन, मन और धन से इसका समर्थन करता हूँ. धन्यवाद.
Wednesday, June 11, 2008
बीकानेर का एक संस्मरण
"अलाउद्दीन ख़िलजी मुसलमान था, परंतु दयालु था." बाक़ी सब तो ठीक लेकिन इस परंतु पर ग़ौर कीजिये. यह आठवीं कक्षा के इतिहास के पाठ्यक्रम में पढाया जा रहा है.
एक बार मैं ट्रेन में सफ़र कर रहा था. सुबह जब आँख खुली और साथी मुसाफ़िर दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर थोडे अनौपचारिक होने लगे तो मेरे एक साथी मुसाफ़िर ने मुझसे पूछा "आपका नाम?" मैंने जवाब दिया "मुशीरुल हसन" वो छूटते ही बोला "कोई शेर सुनाइये!"
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के स्वर्ण जयंती वर्ष में एक व्याख्यान के दौरान प्रख्यात इतिहासकार और विचारक प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने ये दो दृष्टांत सुनाए थे.
------------------------
ये वाक़या कोई आठ साल पुराना है जब मुझे बीकानेर की आर्मी लायज़ाँ यूनिट ने पूछताछ के लिये बैठा लिया था. आपका नाम आपको किस तरह के नफ़े-नुक़सान पहुँचाता है इसका लेखाजोखा रखने के लिये शोध संस्थानों को पृथक शोध-अध्ययन केंद्र चलाने चाहिये."शक के रेगिस्तान में" शीर्षक से इस वाक़ये को मैं जनसत्ता (26 नवंबर 2000)में लिख चुका हूँ.
अलीगढ के नाट्यकर्मी राजेश कुमार का पिछले हफ़्ते फ़ोन आया कि वह कतरन अगर मेरे पास हो तो मैं उन्हें भेज दूँ, वो शायद इस संदर्भ में कोई नाटक लिख रहे हैं. ख़ैर इस कतरन को उन्हें भेजा तो याद आया कि आपमें से जिनकी नज़र इस संस्मरण पर न पडी हो उनसे भी यह अनुभव साझा करूँ. तो पेश है. इमेज पर डबल क्लिक करने से वह पढने लायक़ हो जाएगी.
एक बार मैं ट्रेन में सफ़र कर रहा था. सुबह जब आँख खुली और साथी मुसाफ़िर दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर थोडे अनौपचारिक होने लगे तो मेरे एक साथी मुसाफ़िर ने मुझसे पूछा "आपका नाम?" मैंने जवाब दिया "मुशीरुल हसन" वो छूटते ही बोला "कोई शेर सुनाइये!"
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के स्वर्ण जयंती वर्ष में एक व्याख्यान के दौरान प्रख्यात इतिहासकार और विचारक प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने ये दो दृष्टांत सुनाए थे.
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ये वाक़या कोई आठ साल पुराना है जब मुझे बीकानेर की आर्मी लायज़ाँ यूनिट ने पूछताछ के लिये बैठा लिया था. आपका नाम आपको किस तरह के नफ़े-नुक़सान पहुँचाता है इसका लेखाजोखा रखने के लिये शोध संस्थानों को पृथक शोध-अध्ययन केंद्र चलाने चाहिये."शक के रेगिस्तान में" शीर्षक से इस वाक़ये को मैं जनसत्ता (26 नवंबर 2000)में लिख चुका हूँ.
अलीगढ के नाट्यकर्मी राजेश कुमार का पिछले हफ़्ते फ़ोन आया कि वह कतरन अगर मेरे पास हो तो मैं उन्हें भेज दूँ, वो शायद इस संदर्भ में कोई नाटक लिख रहे हैं. ख़ैर इस कतरन को उन्हें भेजा तो याद आया कि आपमें से जिनकी नज़र इस संस्मरण पर न पडी हो उनसे भी यह अनुभव साझा करूँ. तो पेश है. इमेज पर डबल क्लिक करने से वह पढने लायक़ हो जाएगी.
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