इकबाल बानो को न जानना इस समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को न जानना है। मैं ने उन्हें १९८९ में जाना था, उनकी इस नज़्म से, जिसे यहाँ पेश कर रहा हूँ। मदर डेरी के पीछे ध्रुव apartment में जिस दीवानगी के साथ अनुभव सिन्हा, राजेश जोशी, नवीन वर्मा और विमल वर्मा सहित कई दोस्त इसे सुन रहे थे और झूम रहे थे वो न भुलाया जानेवाला वाकया है।
iकबाल बानो १९३५ में दिल्ली में पैदा हुई थीं और शास्त्रीय संगीत में निपुण थीं। ठुमरी, दादरा, उर्दू ग़ज़लें और फारसी ग़ज़लें बड़ी रवानी से गाती थीं। उनकी आवाज़ का ठहराव और उनका कन्विक्शन काबिल-ऐ-तारीफ़ और अश-अश कर देने वाला है। मलिका पुखराज और बेगम अख्तर के साथ वो मेरी प्रिया गायिकाओं में थीं। परसों 21 अप्रेल 2009 को वो हमें छोड गईं. उनके जाने के साथ ही फैज़ को गाने की एक संस्था का अंत हो गया। उनकी कमी हमेशा खटकेगी।
फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' की नज़्म "हम देखेंगे..."
अभी अभी भाई अशोक पान्डे के ब्लॉग पर इक़बाल बानो का ज़िक्र देखा. वहीं से साभार इस नज़्म का टेक्स्ट यहाँ जारी कर रहा हून, उन्हें जै बोर्ची कहते हुए.
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम देखेंगे
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो नाज़िर भी है मन्ज़र भी
उट्ठेगा अनल - हक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो